शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

लाश वही है सिर्फ कफन बदला है - 2

मेरे विचार से कुदरत की कारगुजारी भी कुछ कम नही है। इन्सानी जीव को उसने ऐसे फुर्सत के वक्त गढ़ा है कि जरूरत पड़ने पर उसके चेहरों के गेटअप को किसी भी तरह के मुखौटों से बदला जा सके। चेहरे वही रहते है सिर्फ मुखौटे बदल जाते है और यह एक ऐसा निरीह प्राणी है कि वक्त की नजाकत और मुखौटे की रंगत के हिसाब से अपने को ढाल लेता है, लेकिन कमाल यह है कि कुदरत ने इस रंगमंच पर कुछ करेक्टर ऐसे खड़े कर दिये जिनकी इमेज अजर-अमर हो कर रह जाती है। लगता है कि उसके कथानक में विलेन छाप करेक्टरों की अपनी अलग इमेज होती है, जिनके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमकर अपना प्रभाव डालती है।

मूर्ख दिवस की जय बोलो

महामूर्ख दिवस की पूर्व संध्या पर दुनिया के तमाम समझ-समझ कर नासमझ लोगों का हार्दिक अभिनन्दन। कितनी सदियां बीत गयी हाय तुम्हें समझाने में। लोगों ने कितनी बार वही रटे रटाये मंत्र का जाप घिसे-पिटे तरीके से सुनाया ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ पर अपने दुनिया भर के मूर्ख कामरेडो ने दूर दूरदृष्टि और पक्का इरादा नहीं छोड़ा। अपनी परम्परा को पीढ़ी-दर पीढ़ी बुलन्दी की सीढ़ी पर चढ़कर फहराने में कोई कसर न छोड़ी। दृढ़ विश्वास के साथ कहते रहे कि ‘मूर्खता हमारा जन्म सिध्द अधिकार है।’

राजा की आयेगी बारात

भई जिस हसीना बिजलीबाई का दीदार पाने को अपने शहर वाले तरसते रहें। आज वह जब महफिल में रूबरू होकर ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा’ पर जी खोलकर थिरक उठी तो लोगों की बाछें खिल गई। बहुत से लोग तो मुंह बाये हुए बिजलीबाई की बांकी अदा पर जान छिड़क उठे। अपनी हैरत भरी निगाहों को देखकर गली के नुक्कड़ से आते हुए ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ बने मीर साहब ने कहा, ‘अमां क्या चुचके हुए आम की तरह शक्ल बनाए हुए हो? खुश हो कि आप बिजलीबाई दिल खोल कर थिरक रही हैं और सारा शहर अपने दर्द को भूल कर दीवाना बना है। दीवाना बने भी क्यों नहीं क्योंकि मंत्री जी की बिटिया की शादी है। अल्लाह उनका इकबाल बुलन्द करे और ‘बिटिया सदा सुहागन’ रहे।

महंगाई फैशन के आईने में

लोग कहते हैं कि महंगाई बहुत बढ़ गयी है। कहते होंगे – लोगों का काम है कहना। कुछ लोग यूं ही बात का बतगड़ बना लेते हैं। सब तो नही कहते हैं। क्योंकि सब कहते तो देश में न जाने क्या हो जाता। भारी आफत आ जाती। दूसरी तरह की सुनामी लहरों का कहर बरपा हो जाता। मगर कुछ लोग कहते होंगे जिनका समाज में कोई वजूद नहीं है।

मैंने भी गोकुल चाय वाले की दुकान पर सुना है। तालिब भाई के होटल पर सुना है। जिन्हें कोई काम धंधा नही है उन्हीं से सुना है। उनमे कोई रिटायर्ड रेलवे वाला होता है, कोई सिलाई का काम करता है, कोई ट्यूशन करता है या ज्यादा से ज्यादा कोई किसी दफ्तर में दफ्तरी का काम करता है। जिनमें शाहिद मियां, मैकू मिस्त्री, कुवंर बहादुर या ढोढ़ेराम होते है।

मुझे इन बेचारों पर तरस आती है। दबी जुब़ान से उठा इन्कलाब भी कोई इन्कलाब होता है। अरे वह तो ‘महंगाई बनी फैशन’ के सैलाब में न जाने कहां गुम होकर रह जायेगा। है इनकी शिकायत में कोई दम? हैं इनकी आवाज़ में कोई बुलन्दी? कहीं है इनका वजूद? सुन लिया होगा इन्होनें महंगाई की चर्चा ऐसे लोगों से जो खिसियाये हुए होगें किन्हीं वजहों से या जो सरकार गिराने के लिये कोई मुद्दा तलाश रहे होगें। मैं भी समझता हूं कि वाकई में यह पूरे देश का मुद्दा होता तो अब तक न जाने क्या हो जाता।

हमारे प्रिय जनप्रतिनिधि सड़को पर उतर कर एक-एक दुकान का जायजा लेते कि कहां लोग महंगी चीजे खरीदने और बेचने के लिये मजबूर है? कहीं लोग भूखे सो जाने को विवश हो रहे हैं? आखिर वह हमारे प्रतिनिधि हैं-शाहिद, मैकू, कुंवर बहादुर और ढोढ़े के प्रतिनिधि हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि जनता कहलाने वाली इन लोगों ने अपना कीमती वोट देकर चुना है। वे ऐसे बेवफा नहीं हैं कि एहसान भूल जायें। मगर वे बेचारे करें भी तो क्या करें? महंगाई कहीं दिखती भी तो नहीं है-लखनऊ, भोपाल, पटना, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली से गांधीनगर तक तो उन्होनें छान मारा पर कहीं दिखती नहीं हैं और न तो उसे कोई दिखाने के लिए मिलकर शोर गुल मचा रहा है। यह सब अहमक हैं -

किसी गलतफहमी के शिकार हैं –जरूर किसी ने गुमराह किया है –इनका कोई स्टैण्डर्ड नहीं है न। कोई काम धंधा या बातचीत का विषय नहीं सूझा तो लेकर बैठ गये महंगाई.......महंगाई। अरे अक्ल के दुश्मनों अगर चर्चा ही करना है तो करते ‘सास भी कभी बहू थी’ के बारे में। शहर में बन रही किसी आलीशान महलनुमा इमारत के बारे में या किसी मंदिर-मस्जिद के बारे में। यह भी कोई मुद्दा है महंगाई? कहां दिखती है महंगाई?

-यही न कि थोड़ा टैक्स बढ़ गया है, -यही न डीजल पेट्रोल और रसोई गैस थोड़ी महंगी हो गयी है? –यही न स्कूलों में थोड़ी फीस बढ़ गयी है? यही न कि किरासन के कुओं में सुनामी का थोड़ा असर आया है?

-यही न कि बैकों में ब्याज घट गयी है? अरे मूर्खों पैसा खर्च करने के लिये होता है। रखने के लिये नहीं। चाटे-पोछे सब बराबर। फिर जब कुछ बचेगा ही नहीं तो बैंक में रखोगे क्या? दुख मुसीबत या शादी-ब्याह के लिए सरकार है न? सांसद और विधायक कोटे की राशि किस लिये है? विकास के लिये न। यह भी तो विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत आता है।

अच्छा माना कि महंगाई बढ़ गयी है तो इसको इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए कि घटी क्या चीज है?

-क्राइम बढ़ा है। फैशन बढ़ा है। आबादी बढ़ी है। लोगों के रहन सहन का दर्जा बढ़ा है। महंगे सामान खरीदने की आदतें बढ़ी है। फाइलें बढ़ी हैं। कम्प्यूटर बढ़े है। मोबाइल और टेलीफोन बढ़े है। गांव की जगह शहर बढ़े है।

तो भाई अगर महंगाई को बढ़ने का सुअवसर दिया गया तो बेजा क्या है? सीधी सी बात है कि एक लकीर के बगल में दूसरी बड़ी लकीर खींचने पर पहली लकीर अपने आप छोटी दिखेगी- अब अगर पहली लकीर की तरह किसी मैकू, शाहिद, कुंवर बहादुर और ढोढ़े का कद छोटा होता जा रहा है तो कोई क्या करें? भले वह समय से पहले वजूद खो बैठे। कोई कर ही क्या सकता है?

पूरे मुल्क में ऐसे कितने लोग हैं? इन कुछ एक लोगों के लिए महंगाई की फलती फूलती जिन्दगी में रोक लगा देना बहुत बेइन्साफी होगी- बहुत बेइन्साफी। इसलिए शाहिद, मैकू, कुवँर बहादुर और ढोढ़े महंगाई की बतकही अब किया तो किया मगर आगे मत करना। यह सब पुराने जमाने की बात हो गयी है। देखते हो कहीं कोई तुम लोगों की बातों में हां में हां मिलाने वाला दिख रहा है? समझो, यह तरक्की का जमाना हैं। मंगल और शनि पर पहुँचने की तैयारी है। मंहगाई का रोना लेकर बैठोगे तो तुम्हारे ही देश वाले तुम पर हँसेगे, फब्तियां कसेंगें। कहेंगें कि कैसे मोस्ट बैकवर्ड लोग हैं जो मंहगाई को फैशन के आइने में देखना नहीं जानते।

हकीकत को हिकारत से देखिए

मेरे सामने अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक समारोह का निमंत्रण पत्र रखा है। सोचता हूं जब बुलाया गया है तो कुछ न कुछ बोलना ही पड़ेगा। किसी को जिस तरह छपास रोग लग जाता है तो छूटने का नाम नहीं लेता है उसी तरह मुझे सभा समारोहों में माइक से चिपके रहने की आदत सी हो गयी है। क्या बोलता हूँ कैसे बोलता हूँ या सुनने वाले कितना बोर हो रहे है, उस वक्त मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं होता है। माइक छोड़ने को जी नहीं चाहता है जब तक कि दो-चार बार संचालक की चिट न सामने रख दी जाए।

हाँ, तो मैं महिला दिवस के उस समारोह की बात कर रहा था। दो चार मित्रों से पाई उल्टी-सीधी पत्रिकाओं और अखबारो के ताजे-बासी विशेषांकों के पन्ने पलटते हुए मैटर कलेक्ट करने के चक्कर में जूझा जा रहा हूं। तभी याद आता है कि इस बार तो महान चमत्कार हो गया है। महाशिवरात्रि और अर्न्तराष्ट्रीय महिला दिवस एक ही दिन पड़ रहे हैं। शिव शक्ति और महिला सशक्तिकरण का दिन। अभी कुछ देर पहले आधा दर्जन बच्चों की सशक्त मां ने छोटू से कहलाया है कि अपने पापा से कह देना कि मम्मी कल के शिवरात्रि के व्रत के लिए सामान खरीदने शुक्लाइन आण्टी के साथ बाजार गयी हैं। तभी मुझे याद आया कि कल तो शक्ति स्वरूपा धर्मपत्नी जी पाक शाला मे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से रहीं। मुझे ही भोजन बनाने से लेकर बर्तन मांजने तक की कसरत करनी पडेगी साथ ही भाषण देने की तैयारी भी। सोचता हूं हे शिवभवानी कुछ ऐसा जादू कर दे कि श्रोता मंत्र-मुग्ध हो उठे और मुझे कल का सर्वोच्च वक्ता ठहराते हुए एक बढ़िया सा स्मृति-चिन्ह भेंट कर दें। अभी अखबारों को उलटते पलटते एक समाचार पर नज़र रूक जाती है। एक कोने में छोटा सा छपा समाचार यूं है कि मध्यप्रदेश के किसी गांव में एक दलित महिला को नग्न करके पूरे गांव में घुमाया गया। उस पर आरोप था कि उसने किसी बच्चें पर टोना-टोटका करके मार डाला। अभी मैं उस खबर के बारे में कुछ मनन चिन्तन करने बैठा ही हूं कि हाथ में कोलाज लिए पत्रकारिता का एक छात्र दाखिल होता है। कोलाज दिखाते हुए पूछता है ‘अंकल आज विश्व महिला दिवस पर आयोजित प्रदर्शनी के लिए यह कोलाज ठीक है न?’ कोलाज पर कल्पना चावला, किरन बेदी, उमा भारती, लता मंगेशकर, मदर टेरेसा, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज और ऐसी कई दिग्गज महिला हस्तियों के चित्र बड़े करीने से किसी न किसी आकर्षक टाईटल के साथ चस्पां किये गये थे। मैनें उससे पूछा कि जब महिलाओं ने इतनी तरक्की कर ही डाली है तो फिर आयोजन का औचित्य क्या है? तुम्हें और मुझे आज के महिला दिवस के लिए हाथ पैर मारने की जरूरत क्या है? आखिर महिला दिवस किन महिलाओं के लिए मनाया जा रहा है? अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे कोलाज में उन सांसदों विधायको, अफसरों और मठाधीशों के चित्रांकन क्यों नहीं हैं जो ‘नारी तुम केवल श्रध्दा हो’ के बजाये नारी को दिल बहलाने का सामान समझते हैं? उस नग्न नारी के चित्र को क्यों नहीं स्थान दिया गया जिसे इक्कीसवीं सदी के सभ्य भारत में टोने-टोटके के नाम पर पूरे गांव में बड़ी शान से नग्न घुमाया जाता है? वह छात्र मायूस सा कहता है ऐसे चित्रों को लगाने से मना कर दिया गया है।

‘मना......’ कुछ सोचते-सोचते मैं रूक जाता हूं और उन आयोजकों की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कहता हूं ‘हाँ-हाँ मना किया गया होगा, ठीक किया गया।’ छात्र कोलाज लिए हुए कमरे से बाहर चला जाता है। मैं सोचता हूं कि अखबार के कोने में छपी खबर अगर कोलाज पर लगाई गयी तो वर्ल्ड में भारत के बारे में क्या मैसेज जाएगा? शायद इसीलिए ‘दी­पा मेहता’ को ‘वाटर’ की शूटिंग करने से मना कर दिया गया था। हकीकत बड़ी कडुवी होती है। हज़म करना बड़ा मुश्किल होता है। आधी दुनिया को बुलन्दी पर पहुँचता दिखाकर हिन्दुस्तान में नारी सशक्तिकरण से विश्व को परिचित भी तो कराना है। उसके लिए सच्चाई को छुपाना बहुत जरूरी है। यही होता रहा है। होता रहेगा। यूं ही विश्व महिला दिवस के आयोजन को दो बूंद जिन्दगी की तरह चलने देना चाहिए। कुछ सीरियलों की तरह लम्बा खिंचना जरूरी है। व्याख्यान मालाओं से भारत माता का मस्तक ऊँचा रखना है। सोचता हूँ मैं महामूर्ख हूं। निगेटिव क्यों सोचता हूँ? हमेशा सच्चाई पर पर्द डालते हुए पॉजटिव सोच बनाना चाहिए। इसी लाइन पर भाषण तैयार करने में लग जाता हूं। मान कर चल रहा हूं कि यद्धपि महिला विधेयक अभी कोसों दूर है फिर भी हमारे यहां महिलाओं की स्थिति एकदम चकाचक है।

कहैं कबीर सुनो भाई साधो...

आये भी वह गये भी खत्म फ़साना हो गया। पार्टी वालों की बल्ले-बल्ले रही। उधर नेता जी ने एक काम जरुर शानदार या बेमिसाल किया कि कबीर बाबा को समाजवादी की सदस्यता दे डाली। अब सुना जा रहा है कि बीनी बीनी रे झीनी चदरिया गा गा कर नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे घुमक्कड़ कबीर बाबा अपने राजनीतीकरण पर काफी परेशान दिख रहें हैं। नेता जी के जाने के बाद बिजली बाई की नौटंकी के उजडे़ स्टेज के पास उनसे अचानक मुलाकात हो गयी। बधाई देने के बाद उनसे प्रतिक्रिया जाननी चाही तो कबीर बाबा ने कहा कि यह तो नेता जी की महानता है जो मेरे जैसे अदना से इंसान की झोली में समाजवादी सदस्यता डाल दी। साहेब मेरी तो छीछालेदर हो रही है। अब देखो न अपने तोगड़िया और कटियार है जो मेरे राम भक्ति पर मुग्ध हो कर मुझे अपने दल की सदस्यता प्रदान कर के इस कबीर को अपने ढ़ंग से राजनीति का मुखौटा पहनाना चाहते है। उधर महामाया जी मुझे मनुवादी विचारधारा का घोर-विरोधी समझ कर अपने पालतू गजराज पर बैठाकर नगर भ्रमण का अवसर देने को उत्सुक है। अब आप का कबीर किधर जाए कुछ समझ में नहीं आ रहा है। असल में बात यह है कि कबीर को किसी ने पहचाना ही नहीं। याद है न जब तक मैं जीवित रहा किसी ने घास नहीं डाली। किसी ने पगला कहा किसी ने दीवाना बताया। किसी ने हिन्दू बताया तो किसी ने पहचाना ही नहीं। मैं तो समाजवाद की एबीसी तक नहीं जानता हूँ क्योंकि मेरे जमाने में यह सब लफड़ा था ही नहीं। बस इतना जानता था कि सब एक राम या ख़ुदा के बंदे हैं बहरहाल यह तो दुनिया की दस्तूर है कि मरने के बाद सब की तारीफ में कसीदे पढ़े जाते है। उसी दिन मगर में बैठे-बैठे पढ़ रहा था कुछ खाकी नेकर सफेद कमीज और काली टोपी वाले इंदिरा जी की जम कर तारीफ कर रहे थे। मगर जब वही तारीफ़ आडवाणी भाई ने मरहूम जिन्ना साहब के लिये किया तो यही लोग उन्हे बुरा भला कहने से नही चूके। कबीर बाबा को मै बड़े ध्यान से सुन रहा था। कबीर अचानक हंसे और कहने लगे कि यहां तो ‘एडवान्स बर्थ डे’ मनाने का चलन हो गया है उसी तरह जैसे मरने के पहले लोग बाग अपनी समाधि बनवाने लगे हैं, कब्र खुदवाने लगते है और अपनी मूर्ति लगवा कर एडवान्स में अपनी तमन्नायें पूरी कर लेते हैं।

खैर जो कुछ भी हुआ या हो रहा है सब ठीक है। अपना-अपना स्वास्थ है। कल भी कबीर को मानने वालों ने अपने को दास हैं। नेता जी के आने के पूर्व भी ये बेचारे दास गर्मी में झुलस रहे थे।

अंधेरे में खंजड़ी बजा-बजा कर दिल बहला रहे थे और उनके चले जाने के बाद भी शायद फिर उसी अंधेरे में रामनाम लेते हुए जीने की कोशिश करेंगे। अरे यह भी कोई समाजवाद है कि उनके आने पर बिजुरिया ससुरी खूब लंहगा फटकार-फटकार कर कबीर के निर्गुन पर डांस कर रही थी और उनके जाने के बाद सब टांय-टांय फिस्स। कबीर को खुश किया तो क्या किया अरे सब को खुश करने का जतन किया होता तो कबीर को समाजवाद की बात समझ में आती। अरे कबीर तो पहले भी बुतपरस्ती और दिखावे के खिलाफ़ रहा, आज भी हैं। क्योंकि वह देख चुका है कि लेनिन, सद्दाम, गाँधी, दीनदयाल उपाध्याय और अम्बेडकर की मूर्तियों का क्या अंजाम हो रहा है। उसे तो डर है कि कहीं उसके निर्गुन को लोग कल नकार न दें। अब अगर मौजूदा वक्त में कबीर के नाम से उनके वोंटों की झोली भर जाए तो बेचारा कबीर कर ही क्या सकता है क्योंकि आज उसका वजूद है कहां? वोटों की झोली और मांगी मुराद पूरी हो जाने के बाद कौन किसको पूछता है? रही बिजुरिया की बात तो वह भी बेचारी करे तो क्या करे? दास आखिर दास है।

हमने मीडिया प्रभारी बनना सीख लिया

वैसे जनाब इतना समझ लीजिए कि जो नुस्खा यहां बतलाने के लिए कलम घिसी जा रही है वह मरहूम हकीम लुकमान और भाई लक्ष्मण की चंगा करने वाले सुषेण वैध के पास भी नहीं था। काबिलीयत में उनके दस ग्राम की भी कमी नहीं थी लेकिन उनके जमाने में ऐसी बीमारी थी ही नहीं। इस जमाने के यह बीमारी इतनी सुखद हो गयी है कि हर कोई इसमें मुफ्तिला होने के लिए अथवा सब कुछ कुर्बान करने को तैयार बैठा है।

बीमारी का नाम है मीडिया प्रभारी का ठण्डा-गरम बुखार। आज कल जब से मीडिया की झाड़ झंखार बेतरतीब ढंग से फैलती जा रही है और अपने कैम्पस में खूबसूरत फूलों की क्यारियों पर क्यारियां फैलती जा रही मीडिया प्रभारी का बुखार लोगों को दबोचता जा रहा है। लोग भी खूब हैं कि ऐसे बुखार से जलते हुए बदन के बावजूद वे चिर परिचित आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। गौर तलब है कि मीडिया प्रभारी के बुखार के लिए मीडिया की जानकारी की कोई जरूरत नहीं है। बस जरूरत है कई अदद मीडिया वालों को सुबह शाम गरमा गरम जलेबी का भोग लगाना। जलेबी ही क्यों अगर हो सके तो चाय समोसे को एक अदद मुस्कान के साथ पेश करना। इसके लिए कोई जरूरी नहीं कि भाषा का मौखिक और लिखित ज्ञान का भण्डार हो।

यही सोच लीजिए कि पहले चोबदार हुआ करते थे, भाट और चारण दरबार की शोभा बढ़ाते हुए राजे महराजों की शान में कसीदे पढ़ा करते थे। आज उन्हें मीडिया प्रभारी का अच्छा सा नाम दिया है। वक्त-वक्त की बात है। कल तक जो नौंटकी के फूहड़ जोकर कहलाते थे, आज फिल्मों में कमेडियन का नाम पाकर फख्र महसूस करते हैं। बस चाहे कैम्पस हो या कारखाना मीडिया प्रभारी की अहमियत की नगड़िया बज रही है। सबसे खासियत इस बेवक्त के बुखार में यह हैं कि मीडिया प्रभारी अपने को किसी अकबरे आज़म के राजा मान सिंह से कम नहीं समझता है। आका बाद में पहले मीडिया प्रभारी फिगर में दिखाई देता है।

बेचारा अपने ओरिजिनल काम को भूलकर मीडिया की एक अदद डिबिया में अपने को बंद कर सुखद अनुभव का नजारा करता है। ख्वाब में आए हकीम लुकमान और धन्वन्तरि जी के साथ जब मैंने संयुक्त रूप से चर्चा की तो उन्होंने जोर का झटका धीरे से देते हुए कुछ नुस्खे बताए जिसे सार्वजनिक हितार्थ यहां दिये जा रहे हैं जो शायद कुछ अति उत्साही लोगों के काम आ जाए क्योंकि जमाना मीडिया का है।–

नम्बर एक – अपने बॉस के साथ परछाई की तरह रहना और बॉस की जुब़ान से निकले एक-एक शब्द को रंग रोगन के साथ प्रकाशित करना। हमेशा ब्रेड और बटर साथ रखना निहायत जरूरी है।

नम्बर दो – कैम्पस या कारखाने जिसमें वह तैनात हो उसकी तारीफ में एक वार्षिक या अर्द्धवार्षिक पत्रिका का प्रकाशन कराना, वह भी अंग्रेजी के हाई स्टैण्डर्ड फ्रेम पर। भले वह कैम्पस या कारखाना हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्थित हो। क्योंकि जो बात अंग्रेजी में है वह हिन्दी में कहां?

नम्बर तीन – हमेशा ध्यान रहे कि अगर उस कैम्पस या कारखाने में जनसम्पर्क नाम का कोई पालतू जानवर है तो उसे हमेशा बांध कर रखना जिससे वह हावी न होने पाए और बॉस का स्नेह उसे ज्यादा न मिलने पाए। वरना आपका वजूद खतरे में पड़ सकता है।

नम्बर चार – कैम्पस या कारखाने में इत्तिफाक से यदि कोई कलमबाज दिख जाए तो उसे पीटना। फिर खूब पीट कर बाज़ उड़ा देना और कलम को हथिया लेना जिससे बॉस आप के कलम की करामात का कायल हो जाए।

नम्बर पाँच – कोशिश यह करना चाहिए कि एक सफलतम प्रभारी बनने के लिए अपने बाल-बच्चों के नाम से कुछ रचनाएं प्रकाशित कराते रहने का यत्न करना चाहिए जिससे आपके सम्पूर्ण परिवार की रचना धर्मिता का झण्डा लहरा उठे और साबित हो जाए कि आप मीडिया के बहुत खानदानी नीयरेस्ट व डीयरेस्ट हैं।

नम्बर छः – बिना इसका ख्याल किये कि आपका नामचीन कैम्पस या कारखाना किसी पब्लिसिटी का मोहताज है अब भी मौका मिले बिना बॉस की जानकारी के कुछ पोस्टर छपवा कर शहर में बंटवा देना चाहिए। जैसे कि आजकल कुछ कोचिंग वाले बंटवा रहे है।

नम्बर सात – यह ध्यान रखना निहायत जरूरी है कि अगर मीडिया के धुरन्धर लोग घास न डाले तो छुटभैये पत्रकारों को अपने आस-पास मुस्कुराहट की थाली में पकवान परोस कर प्रसन्न रखना सोने में सुहागे का काम करेगा। नुस्खे बड़े कारगर हैं। अनुभव बताते हैं कि जिन लोगों ने इन नुस्खों पर अमल किया उन्हें कोई डिगा सकता है। शहर में चाहे जितना अतिक्रमण हटाने की मुहिम चलाई जाए, उन्हें कोई छू नहीं सकता है। नुस्खे पर ध्यान दें भगवान आपका भला करेगा।

अतिक्रमण करो, मगर सड़क पर नहीं

शहर के हर नुक्कड़ पर इन दिनों बस एक ही चर्चा है-‘अतिक्रमण हटाओ अभियान।’ पैन्ट उतार चड्ढी पहन अभियान। विनाश चैनल पर विकास का बाइस्कोप। बात भी एकदम सौ परसेन्ट सही है कि विनाश के बाद ही सृजन की प्रक्रिया शुरू होती है। वैसे अतिक्रमण हटाओ अभियान से अपने को क्या लेना देना? लेकिन सोचने वाली बात यह है कि जब लोग कहा करते थे कि ‘तेरा मुण्डा बिगड़ा जाये’ तो किसी को फिक्र नहीं रही। जब ‘मुण्डा’ बुरी तरह बिगड़ कर नगर की डगर तक पसर गया तो सुधारने की फिक्र चर्रा रही है। अपने पड़ोसी पंडित जी का भी यही हाल है। पहले तो अपने दुलरूआ नाती को अपने पक्ष में करने के लिए बड़े-बडे़ सब्जबाग दिखाते रहे। अब उनका दुलरूआ नाती उन पर हावी होने लगा तो उन्हें उसे सुधारने की चिन्ता सताने लगी। कई लोगों ने पंडित जी को समझाया भी कि अब सिर से पानी ऊपर हो चुका है। ऐसा न हो पंडित जी कि आप के सुधारवादी सिद्धान्त का दुलरूआ पर उल्टा असर हो और ऐसा कोई हादसा हो जाये जैसा कि कुछ दिन पहले राजधानी की खुली सड़क पर हुआ था?

बहरहाल अतिक्रमण हटाओ अभियान है तो बड़ी बढ़िया चीज। रेगिस्तान में नखलिस्तान का मुलम्मा चढा़ने का तरीका अच्छा है पर यहां तो जिन्दगी के हर मोड़ पर अतिक्रमण होते देखा जा रहा है। कानून की सड़क पर क्राइम को अतिक्रमण करते देखा जा रहा है। रोशनी पर अंधेरे के अतिक्रमण से लोगों की हक्की-बक्की गुम है। परीक्षाओं में पेपर आउट का अतिक्रमण और बची खुची नौकरी में भाई-भतीजा एंव बिरादरीवाद का अतिक्रमण खुलेआम देखा जा रहा है।

भई, जब अतिक्रमण हटाओ अभियान के लिये जिले के अलम्बरदारों ने कमर कस ही ली है तो फिर लगे हाथ उधर वाले अतिक्रमण भी हटाने की मुहिम छेड़ दी जाए। इससे बढ़िया मौका फिर नहीं मिलेगा। तौबा है, मरदूद जीप और टैक्सी वाले किस तरह सवारियों को अतिक्रमण का शिकार बना कर ठूंसते है कि लगता है बकरीद के बाज़ार में दुम्बे और बकरे ले जाये जा रहे हैं। मगर अभी तो जिलों से लेकर राजधानी तक के नम्बरदारों का ध्यान जाता नहीं दिखाई दे रहा है। वजह क्या है? यह तो वही जाने। वैसे भई इंसाफ तो यही कहता है कि जरा एक नज़र उधर भी। अब यह भी मुमकिन है उन अतिक्रमणों की तरफ से ध्यान हटाने के लिये इधर का अतिक्रमण हटाओ अभियान चालू कर दिया गया है। क्योंकि उधर के अभियान के लिए सांसदो, विधायको और मफियाओं से पंगा लेने की अच्छी खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। इधर वाला मामला बिल्कुल हलुआ है। जिसे चाहो गिराओ, जिसे चाहो बचाओ। वैसे मैं अतिक्रमण हटाओ अभियान की बहुत कद्र करता हूँ। है बड़ी अच्छी चीज। जो लोग इस शुभ काम में लगे है भगवान उन्हें उम्रदराज़ करे और ताकत दे कि बड़े से बड़े अतिक्रमण पर अपना बुल्डोजर चलायें। अमीन। लेकिन एक बात दिमाग की टाटपट्टी पर नहीं बैठ पा रही है कि अतिक्रमण के अंगने में मजिस्ट्रेट साहब का क्या काम? जब एकतरफा ही कार्रवाही करना है तो कोई भी कर सकता है। उसके लिए तो अपनी पुलिस को बाकायदा डिग्री हासिल है। अच्छा इसके लिए किसी काले कोट वाले से कन्सल्ट करना पड़ेगा। अरे हां याद आया। शायद कहीं गोली-वोली चलवाने की नौबत आने पर उनका रहना जरूरी हो? भई अतिक्रमण हटाओ अभियान वाले इस नाचीज़ से ज्यादा बुद्धि के अमीर होते होंगें।

एक हवेली सूनी-सूनी सी...

जी, यह है मार्टिन बर्न के जमाने की ऐतिहासिक इमारत। है तो बहुत पुरानी मगर उसकी खीसें काढ़ती एक-एक ईंट शहर को जगमगाने का दावा कर रही हैं। मार्टिन बर्न तो शायद अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं। उनके जमाने को मधुर स्मृति भी खो चुकी है पर उनके वक्त की यह बे पेवन्द बिल्डिंग शहरवालों की जान ले रही है। सुना है आजकल यह ‘पाकीज़ा’ किसी बिगड़ैल ठाकुर साहब की रखैल बनी हुयी है। इसलिए इन दिनों शहर वाले इसे ठाकुर की हवेली कहने लगे हैं। जमींदारी और ताल्लुकेदारी छिन जाने के बाद जैसे उनकी हालत भीतर से खस्ताहाल हो गयी है।

उसी तरह विरासत में मिली किसी जमाने की यह बिल्डिंग धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील होती जा रही है। फाइलों पर चमगादड़ बीट करते हैं। दीमकों का अन्दाज़ ऐसा निराला है किसी नूर मुहम्मद का नाम सिर्फ मुहम्मद रह गया है और कोई शर्मा, वर्मा बन चुका है। मुझे उस दिन हैरत हो गयी जब सरजू पंडित अपना शिजरा ढूंढने के चक्कर में गश खा कर गिर पड़ा। टुट्ही कुर्सी और चरमराती मेज को ढकेल कर इमारत में टांग पसारे बैठे लक्ष्मीभक्त बाबू नुमा परोपकारी जीवों ने उसे उठाने के लिए एक सप्ताह पुराने पानी के छीटें मारना शुरू किया तो अपने आसन पर स्वशासन करते किसी खपरचिट्ठू बाबू ने मुस्कराते हुए कहा कि अमां रिकार्ड तो दीमक चाट गये। कब इन्हें रोशनी से नवाज़ा गया यह तो कब्र से उठकर मार्टिन बर्न साहब आवें तब ही मालूम हो सकता है। भई यहां इसलिए कम्प्यूटर भी नहीं रखा गया है कि यह सब ढूंढने के झमेले में कौन पड़े? उससे कहदो कि दो-चार दिन बाद मुझसे मिले। काम हो जायेगा।

कुछ देर के लिए मैं भी सकते में आ गया। ठाकुर को अपनी फटेहाल इमारत पर जरा भी शर्म नहीं आती है। कुछ तो मरहूम मार्टिन साहब की आत्मा की शांति के लिए इस तवारीखी इमारत की कायापलट के लिए हाथ पैर मारा होता। फर्नीचर और फाइलों के साथ किताबों को करीने से रखाया जाता ताकि आने वाली पीढ़ियां ठाकुर की शौकीन मिज़ाजी के चर्चे करते। कम से कम बाईपास वाले बाबू साहब की हवेली और उसमें रंगबिरगें फूलों से सजी क्यारियों से कुछ तो सबक लिया होता। शहर को जहां विरासत में गुलाबबाड़ी और मकबरे के साथ सरकिट हाउस के लिबास पर गुमान है, वहीं किसी सुनामी लहर के नहर में डुबकी लगाकर पकीज़गी के पर्याय बने ठाकुर दी ग्रेट को अपनी इमारत को नियामत समझकर अपने लिए न सही शहर की शान के लिए कुछ करना चाहिए। फिर सामने चकचक करते पुलिसिया लैन और अशफाकुल्लाह चौराहे का भी तो कुछ ख्याल होना चाहिए। कहने वाले कह गये हैं कि देखा देखी पुण्य़ और देखा देखी पाप। अब यह बात दीगर है कि ठाकुर साहब लेट मार्टिन बर्न साहब की इस हवेली को लखनऊ के बेलीगारद की तरह ज्यों का त्यों रखने की जिद पर अड़े रहने की जिद पर अड़े रहने की कसम खा रखी हो।

अगर यही बात है तो ठाकुर की हवेली के चारों ओर फैले रोशनी के जगंल में बिलबिलाते मलेरियायी मीटर रीड छाप भयानक कीटाणुओ के अण्डे-बच्चे क्यों फैलते जा रहे हैं? सुना है ये अण्डे-बच्चे अब तो घर-घर घुस कर डंक मारने पर उतारू दिखने लगे हैं। जहां किसी सीधे-सीधे को बैठा देखा उसी को डंक मार दिया। भई, मेरी नज़र में उससे तो कहीं अच्छे मलेरिया के ओरिज़नल मच्छर हैं जो कम से कम काटने के पहले भनभना कर अल्टीमेटम तो देते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस तो सरकार की सरपरस्ती पर होती हैं जो दो बूंद जिन्दगी की पिलाकर अपनी रियाया के सेहत को बनाना चाहती है। एड्स और कैंसर के वायरसों से बचाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। मगर गोद लिये इन मीटर रीड छाप कीटाणुओं के अण्डे-बच्चों से निजात दिलाने में बिल्कुल नाकामयाब हैं जबकि सुना है कि यह उन कीटाणुओं के ओरिजनल अण्डे बच्चें नहीं हैं। रोब रंग ऐसा जैसा कि हवेली के ठाकुर खुद पहुंचे हुए हैं।

मुझे और मेरे जैसे भोले-भाले लोगों के घर में एक दिन जब ऐसा कोई खतरनाक वारयस कलम मुंह में दबाये हमारे नंगे बदन पर चढ़ गया और मुंह समोसे की तरह तिकोंना बनाकर बोला कि यार तुम्हारे बदन में इतना कम खून क्यों हैं? तो हमारे पास सिर्फ यही जवाब था कि खून बढ़ाने की दवा कहां मिलती है? यार बता दो।

बस उसने आव देखा न ताव कुच्च से डंक गड़ा दिया। बाद में कुछ जानकारों ने बताया कि इनका कोई अपना वजूद नहीं है। ठाकुर ने जैसे इस हवेली को रखैल बना रखा है उसी तरह हवेली के जंगल में पालतू मीटर रीडर नामक कीटाणुओं ने इन्हीं मीटरों की महक सुघां कर पाल रखा है जो कहते फिरते हैं कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का? गजब की है यह हवेली और गजब का है यहां दिनोंदिन पसरता जंगल। जंगल के जीवों के डंक मारने की दवा ठाकुर के पास भले न हो पर टांग पसारे बैठे बाबू छाप डॉक्टरों के पास जरूर है।

बुजुर्ग बने सीनियर सिटीजन

माना कि जमाना जवानों का है। रानी मुखर्जी और विपाशा बसु का है। आर्केस्ट्रा और पॉप म्यूजिक का हैं। जमाना चाऊमिन और पिज्जा का है, पर मुझे तो अभी भी इतवारिया के मुंहफट घरवालों के हाथ का बाटी-चोखा बहुत पसन्द है। चोपई उस्ताद की नौटंकी आज भी बहुत याद आती है। सुरैया और मल्लिका-ए-तरन्नुम् नूरजहाँ के गाने आज भी कान में बजा करते हैं।
मैं जानता हूँ कि उगते सूरज को सब प्रणाम करने में विश्वास करते हैं। लेकिन डूबते सूरज की लालिमा में थोडी़ देर के लिए भूल जाने का मज़ा कुछ और ही होता हैं। जिसे नाजुक मिजाज़ कला के पारख़ी लोगो ने शामें अवध कहा है।
यह सारी बातें करने का मकसद सिर्फ उन नेग्लेक्टेड लोगों की दीन दशा पर गौर करना है जिन्हें खुश करने के लिए ‘सीनियर सीटिज़न’ यानी वरिष्ठ नागरिकता का तमग़ा पहनाया गया हैं। वैसे ही इस मुल्क में तमग़ो, पुरस्कारों और उपाधियों का अस्तित्व क्षणभंगुर होता हैं। उसके बाद तो बात पुरानी पड़ जाती है और आखिर में ऐसे फटेहाल लोगों को या तो कौड़ियों के भाव कबाड़ी को बेचना पड़ता है या आने वाली पीढ़ियों को उनके बाप-दादों की बहादुरी बख़ान करने के लिए सहेज़ कर रखना पड़ता है।
मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ जो सीनियर सिटीज़नों की सीरीज में शामिल होते हुए भी अच्छी खासी कमाई के रास्ते पर एक्टिव बने हुए हैं। मैं उन बेचारे निरीह सीनियर सीटीजनों की बात कर रहा हूँ जो सीनियर सिटीजन का सम्मान हासिल करने के बाद खुश तो बहुत हैं। पर उनके दिल रो रहे हैं। उनकी इवैलिड जिन्दगी को तब भी धक्‍के खाने को मि‍लते थे। आज भी वही धक्के मिलते हैं और उस पर से शोशा यह कि आप तो देश के सीनियर सिटीजन हैं। जवानों की भीड़ इस देश की घिसीपिटी संस्कृति के अनुसार चरण तो स्पर्श करती है लेकिन कुछ दूर चलकर फब्ती कसती है ‘न जाने कहां से बुढ्ढा कबाब में हड्डी बनने आ जाता है।’ मैं जानता हूँ कि इस बात को हमारे सत्ता और विपक्ष में बैठने वाले नहीं महसूस कर सकेंगें क्योंकि सीनियर सिटीजन की कैटेगरी में रहने के बावजूद भी जिन्हें वही सम्मान और आदर मिल रहा है। मंहगी कारों, अच्छे वेतन और सर्वोच्च ओहदों पर बैठे लोगों को क्या पता कि अभाव में जीने वाला एक सीनियर सिटीजन कैसे जीता है? नमूना हाजिर है एक तो इन्कमटैक्स की मार दूसरे बैंकों का सीनियर सिटीजनों के प्रति मुंह सिकोड़ रवैया। पहले ही न जाने की कुलच्छनी भाषा में मैनेजर साहब सुनाते हैं ‘भई माना कि सरकार ने आप को सीनियर सिटीजन के तमगे से नवाज़ा है मगर आप को मौत के किनारे से नहीं बचाया है। आप को मौत के किनारे से नहीं बचाया है। आप कब अल्लाह को प्यारे हो जायेंगें किसी को पता नहीं हैं। ऐसे में बैंक आप को बड़ा लोन देकर गलती नहीं कर सकता है। चाहे बेटे की शादी करें या बेटी की? ऐसे फटीचर बनने की जरूरत क्या थी? न पैदा करते बेटी-बेटा। हाय-हाय अपने सामन्तो दा जो पैंसठ पार करने के बाद भी काली कोलकाता वाली की कृपा से कम से कम मैनेजर साहब से ज्यादा एक्टिव दिखे। बेचारे प्रदेश से रिटायर हो चुके हैं। गारण्टर के साथ अचल सम्पति के ओरिजनल पेपर्स भी हाजिर करने को तैयार थे मगर नहीं हां में नहीं बदला। देखा आपने सीनियर सिटीजन होने का कमाल? अटल भैय्या या चन्द्रशेखर भैय्या वगैरह की बात ही अलग है। उन्हें लोन-वोन की जरूरत ही क्या होगी? अपने वित्तमत्रीं को शायद इन बुढ्ढे लोगो पर भरोसा नहीं हैं। अब रेल महान की बात ही कुछ जुदा है किराए में कुल तीस परसेन्ट की छूट यानी ऊंट के मुंह में जीरा। पहले लोग बुजर्गों को सिर-माथे चढ़ाते थे। मगर इस अपटूडेट जमाने के रेलवाले उन सीनियर सिटीजनों को सफर करने के लिये सेकेण्ड स्लीपर में धकेल देते है बशर्ते वह बूढा़ सीनियर सिटीजन धक्के खाते हुये रिजर्वेशन ले चुका हो क्योंकि कम से कम अपने शहर की आरक्षण खिड़की ने कोई जगह सीनियर सिटीजन और लेडीज के लिए अलग से व्यवस्था करने की जरूरत नही समझी है। अब देखिए जमाने का हाल कि जवान चले ए॰ सी॰ में और सीनियर सिटीजन का तमगा लटकाए माननीय लोग धक्का खाते हुए सेकेण्ड स्लीपर में। वाह रे देश महान्। जवाब नहीं तेरा। क्या सीनियर सिटीजन यानी वरिष्ठ नागरिकों को झूठी तसल्ली देकर मूर्ख बनाया है? मैं जानता हूँ मेरी बात को लोग मज़ाक समझ कर हसेंगें पर क्या उनका हंसना सही है? क्या इसी भारतीय संस्कृति का ढिंढोरा पीटा जाता है? क्या यही है न्याय और सदाचार हमारे बुजर्गों के प्रति? विशेष रूप से उन सांसद, विधायकों और मंत्रियों को सोचना चाहिए जो साठा के बाद भी पाठा महसूस करते हैं? घर बैठे उनके एक आदेश पर भारत को इण्डिया या हिन्दुस्तान में बदला जा सकता पर बुजुर्गो का ख्याल सिर्फ कागज पर...।

दो गज जमीन भी न मिल सकी...

अख्तरी आज बहुत याद आ रही है। पागल दास की याद में पागल बना जा रहा हूँ। उनकी ग़ज़ल, उनकी पखावज़ उनका साज़, उनकी आवाज़ जैसे मेरे दोनों कानों की संकरी गली में घुसते हुए सुना रहे हो। "मरने के बाद भी चर्चा नहीं हुई तेरी गली में" सोचता हूँ खूब गिले शिकवे करूं। अपने शहर के भारी भरकम अलम्बरदारों और कला के मृदंग की थाप पर अंग-अंग फड़काने वालों पूछूं की उन्होंने बेचारी अख्तरी का नामोंनिशान मिटा देने की कसम क्यों खा रखी हैं? पखावज़ के पागल बाबा पागल दास को किसी अदृश्य पागलखाने का एक मामूली सा पागल समझकर क्यों भूल जाने का फैसला कर लिया? जबकि अवध अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब का रकीब बना उन्हें ढूंढ रहा है, नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे। भदरसा, अयोध्या, और फैजाबाद की गलियों में उनके नाम पर रखे गये किसी मुहल्ले या किसी सड़क को ढूंढता फिर रहा है बेचारा अपना अवध। लेकिन दूरदर्शी डिब्बे पर इस निराली दुनिया के किसी ‘निराला’ की यादगार को खस्ताहालत में पड़ा देखकर फैसला कर रहा हूँ कि अब वह किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं करना चाहता है। उन लोगों की अक्ल मारी थी। जिन्होंनें औऱंगजेब़ को फन का दुश्मन कहा था। क्योंकि उसने फन के ज़नाजे को जाता देखकर कहा था कि उसे खूब गहराई में दफ़नाना जिससे वह कभी मुंह न उठा सके। आज भी तो मैं अख्तरी यानि बेगम अख्तर और बाबा पागलदास के मुंह उठाने का इन्तजार कर रहा हूँ। हाथ में अकीदत के फूल लिए खड़ा हूँ। लेकिन...। आज एक बात और मेरे जेहन में घुमड़ रही है कि अवध के सरबराहो को "गैरों से कब फुरसत, हम अपनों से कब खाली? चलो अच्छा हुआ न वो खाली न हम खाली।" खाली होते तब न गुजरे जमाने की फनकारों की हसीन यादों को सीने से लगाये घूमते। कम्बख्त राजनीति की भूलभूलैया से बाहर जाने का रास्ता ढूंढने में जिन्दगी यूं ही तमाम हुयी जा रही है। फिर कैसे करें कोशिश कबीर, प्रेमचंद, निराला, बेगम अख्तर और पागलदास की यादगारों को हमेशा जवां रखने की।

अभी-अभी खबर सुन रहा हूँ कि अवध की एक अजीम्मुशान शख्सियत पं॰ विधा निवास मिश्र नहीं रहे। दूरदर्शी बक्से पर कई कलमकारों को आँसू बहाते हुए देखकर ऐसा महसूस हुआ कि जैसे चाँद एक बेवा की चूँडी़ की तरह टूटा हुआ और हर सितारा बेसहारा शोक में डूबा हुआ हमसे पूंछ रहा है कि आगे क्या होगा? वही होगा जो पहले हुआ है। सिर्फ विधा निवास मिश्र के साथ यह हादसा तो हुआ नहीं है। माना कि उन्हें पद्मश्री के खिताब से नवाज़ा गया था तो क्या हुआ? इस रहती दुनिया में खिताब, नाम और मश्हूरियत आती-जाती रहती है। उनकी ही यादें संजोकर रखी जाती है और उनकी ही यादगारों को अकीदत के दो फूल चढ़ाने के लिए महफूज रखे जाते हैं जिनसे होकर राजनीति की भूलभूलैया में प्रवेश करने का रास्ता साफ दिखता है। कसूर सिर्फ उन अलम्बरदारों का ही नहीं, हमारा भी है। जब हम अपने पेट की आग बुझाने के लिए जद्दोजहद् नहीं कर सकते तो फन और फनकार, कला और कलम, साहित्य और साहित्यकार बहुत दूर की चीज है। खुदगर्ज़ आदमियों के इस बेतहरीब जंगल में कहां उनकी यादगार स्थापित करें? कुछ समझ में नहीं आता है। सड़के, गली, मुहल्ले, गांव, कस्बे सब तो किसी न किसी के नाम की माला पहले से जपते दिखायी दे रहे हैं। लोगों के दिलों पर तमाम पार्टी वालों ने सियासती और मज़हबी परच़म लहराते दिख रहे हैं। ऐसे में सगींत, साहित्य और कला के लिए थोडी़ भी जगह मिल जाती तो कितना अच्छा होता। अपनी अख्तरी और अपने बाबा पागलदास कितने खुश हो जाते, वरना जफर की तरह- "कितना है बद्ननसीब ज़फर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिल सकी कूए यार में।" याद करते रहना पड़ेगा उन्हें।

संजीवनी को ढूंढ़ने की जरुरत

उस दिन मेरे सामने था एक सभागार की चहार दीवारियों में सिमटा-सिमटा एक ‘जनक्षेत्र’। वही जनक्षेत्र जो शायद इन दीवारों से बाहर निकल कर शहर राज्य और राष्ट्र की भारी भरकम आबादी में तब्दील हो जाता है और मैं उसकी एक इकाई मात्र रह जाता हूं जो कभी विद्रोहावस्था में सुनामी लहरों की तरह कहर बरपा कर सकता है।

मैं कई बार यह अल्फाज़ गुरूओं पीर पैगम्बरों और देश के जाने पहचाने नेताओं से भी सुनता रहता हूं। फिर एक सवाल उठता है ‘दिले नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द क़ी दवा क्या है?’ कभी-कभी यह भी ख्याल आता है कि शायद दर्द का हद से गुजरना ही दवा हो जाए।

उस नीर भरी दुख की बदली में मेरी दृष्टि अचानक उस मंच पर लगे बैनर और उसके दोनों सिरों पर टंगी दीवार घडी़ की सुइयों पर अटक गयी। ‘जनक्षेत्र’ वाली इबारत के ठीक ऊपर की घडी की सुइयां टिकटिक करती हुयी आगे बढ़ती जा रही थी। यानी जनक्षेत्र वक्त के साथ हमेशा फैलता बढ़ता रहा है। आदिम काल से जनक्षेत्र के विस्तार की प्रक्रिया सदैव चलती रही है। दुसरे सिरे पर जहां पीर जग की खिला था उस पर टंगी घड़ी जहां की तहां रुकी पड़ी थी जो शायद इसी तरह ‘पीर जग की’ पर मंथन करते-करते जनक्षेत्र रुक सा गया है। कभी कुदरत के नाम पर तो कभी अपनी किस्मत का रोना रोकर। कवि और कविता ने व्यथा को व्यथित होकर संजोया फिर अपने शब्दों में पिरोकर जनक्षेत्र को सुनाया ‘कल्पना में कसकती वेदना है, अश्रु में जीता सिसकता गान है। शून्य आहों में सुरीले छन्द हैं।’ बात यहां पर आकर जैसे हमें थप्पड़ मारती है कि उन आहों को जो जन की पीर से निकलती है सुनकर भी उस रूकी हुयी घड़ी की तरह शून्य में खोये हुए हैं। कवि पीर जग की में कितनी वेदना के साथ कहता है-

‘अन्तरमन में पीर बहुत है आंखों में छायी नीर बहुत है उर में उठी वेदना कितनी क्या इसकी पहचान न होगी'?

बात सही है कि इस वेदना की पहचान कब होगी? कहां होगी? और कौन करेगा?

समझ में नहीं आता है कि जनक्षेत्र की परिधि में फैले आदमियों के जंगल में कब सच्ची व्यथा सुलगेगी? क्या ‘पीर’ सिर्फ किसी सुसज्जित कमरे में चाय की चुस्कियों के साथ सुनने और वाह-वाह करने के लिए होती है? सामन्ती मानसिकता और अदबी अंहवाद के दरवाजे खिड़कियों को खोलकर जरा बाहर निकल कर उस संजीवनी को ढूंढ़ने की भी जरूरत है जिससे पीर जग की दूर हो सके। उन सुनामी लहरों से उठी पीड़ा और गरीबों मजलूमों के दर्द को दिल से समझे बिना कवि की रचना का क्या फायदा होगा?

आश्चर्य की बात है कि जनक्षेत्र की एक इकाई (पूर्व प्रधानमंत्री) की सामयिक या असमायिक मृत्यु पर राष्ट्र झंडा झुकाकर शोक व्यक्त करता है लेकिन वही जनक्षेत्र जब खुद मौत की चादर ओढ़े होता है तो कफन के लिए सिर्फ इमदाद मांगने के राष्ट्र कहलाने वाला विशाल जनक्षेत्र (जनसमूह) झंडा झुकाकर आखिरी सलाम कहना गंवारा नहीं करता है। क्या यही है सच्चा एहसास जग की पीर के लिये? वास्तव में कवि या कथाकार को सुनकर लोग अपनी पीड़ा से ज्यादा बेचैन देखे जाते हैं लेकिन पर पीड़ा से नहीं। कवि ने कविता के माध्यम से पीर जग की का एक्सरे फोटो दिखाया लेकिन हमने सिर्फ पल भर के लिए रोनी मुद्रा बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर डाली। मैं भी उनमें से एक हूं जो भाग्य का खेल समझ कर स्तब्ध रह जाता हूं। लेकिन अपने अजीज़ कवि की बेबाकी से कुछ जरूर सीखने की ललक रखता हूं। मुझे न जाने क्यों कवि रामचन्द्र कौल ‘अनाम’ की ये पंक्तियां हमेशा सालती रहती हैं -

...और कितने ऐसे भी है
जिनके पैर हैं, बदन हैं
और सर भी है
लेकिन उनके सर में कुछ भी नहीं हैं
यहीं नहीं बहुतेरे ऐसे भी हैं
जिनके सब कुछ है
पर उनके चेहरे नहीं हैं।

और आज इन बिना चेहरे वालों की संख्या सबसे अधिक है। इन बिना चेहरों की भीड़ में जब कोई चेहरे वाला दिखाई पड़ जाता है तो उसे जल्दी से जल्दी इस भीड़ से निकल भागना पड़ता है।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

राहत की चाहत

इन दिनों मीडिया वाले खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया वालों के पास बस तीन ही मुद्दे रह गये हैं। पहला सुनामी लहरों से हुयी क्षति के आंकड़े गिनाना,दूसरा सुनामी लहरों से दुनिया को बचाने के लिए साईंसदानो और ज्योतिषियों में नया जोश भरना और मदद के लिए लोगों से अपील करना। तीसरा मुददा है आज उनके सामने तमिलनाडु सरकार में राजनीति की सुनामी लहरों को नजदीक से पढ़ना। महीने पन्द्रह दिनों तक यही सिलसिला चला करता है। उसके बाद सब टॉय-टॉय फिस्स।
इस वक्त न तो आलू प्याज और न चीनी गुड़ के बढ़ते हुए दामों से देश की जनता को निजात दिलाने की कोई चर्चा हो रही है। हो भी रही है तो बड़ी दबी जुबान से हो रही है। सत्ता के गलियारे में मालपुआ उड़ाने वाले नेता जी से जब मैंनें चीनी की चाशनी पर बात की तो वह हंसते-हंसते लोट-पोट गये। कहने लगे यह तो बखुदा बहुत अच्छा हो रहा है। जोर का झटका धीरे से देते हुए उन्होंने फरमाया कि अब दो बूंद जिन्दगी के लिए हाय तौबा मची हुयी है। उसी के लिए कुछ लोग सन्नाटी रात में अपने बीवी के कान में फुसफुसाते सुने गये हैं कि मेरे दफ्तर चले जाने के बाद कोई आकर मिन्टुआ,चिन्टुआ और सादिया को दो बूंद जिन्दगी के बारे में कुछ कहे तो भीतर से दरवाजे की कुण्डी चढ़ा लेना क्योंकि मुझे तो इसमें भी कोई चाल दिखाई देती है। लोग तो यहां तक कहते हैं ये दो बूंद वाले हमारे बच्चों को नामर्दी का ड्राप पिला रहे हैं। एक मुल्ला जी ने तो कह दिया कि हमारे मजहब में तो बच्चों की पैदाइश को रोकना मना हैं। क्योंकि बच्चें अल्लाह ताला की नियामत हैं। इसी लाइन पर अगर सोचा जाये तो सुनामी लहरों का कहर बरपा करना कुदरत का करिश्मा हैं। जनसंख्या पर चिन्ता जताते हुए कभी माल्थस साहब ने रिसर्च किया था कि जब खाद पदार्थों की अपेक्षा जनसंख्या बहुत आगे बढ़ जाती है तो यूं ही प्राकृतिक आपदाओं से उन पर कहर बरपा करके एडजस्टमेंट किया जाता है। इसी तरह इम्पोर्टेड फ्रेम वाले चश्मे को नाक पर चढ़ाते हुए बोले—‘देखो भाई हमने मलेरिया जड़ से उखाड़ फेंका भले उसकी जगह लवेरिया पनपी हो। हमने दो बूंद जिन्दगी से पोलियो को भी लगभग खत्म कर दिया है। हाथी निकल गया बस दुम बाकी रह गयी है। उसे भी जोर लगाकर निकालने के लिए इस जमाने के बड़े-बड़े लोग लगे हुए हैं। अब आप ही सोचिए कि जब मलेरिया, हैजा जैसी खतरनाक बीमारियां देश में छूमन्तर हो सकती हैं तो साला यह शुगर वाला रोग क्यों नहीं भागेगा? इसलिए उसे भगाने के लिए सबसे अच्छी तरकीब चीनी का दाम बढ़ाना है और बढ़ाते जाना है। सुर्ती मलकर नेता को खिलाते हुए एक और सवाल किया,किरासन तेल और गैस सिलेण्डर की बढ़ती मंहगाई पर आप क्या कहना चाहते हैं?इतना सुनते ही फौरन फर्श पर खैनी थूकते हुए बिगड़कर नेता जी बोले—अमां एकदम्मे से कूढ़मगज हो क्या?मोबाइल का दाम हम जो घटाते जा रहे हैं उसकी तारीफ क्यों नहीं करते जी? किरासन और गैस सिलिण्डर भी कोई मुददा है?पहले नहीं था तो क्या ढिबरियां नही जलाई जाती थी या लकड़ी के बुरादे पर बना खाना नहीं खाते थे?बातचीत चल ही रही थी कि कुछ लड़कियों का झुण्ड डिब्बा लिये दिखाई पड़ा। नेता जी फौरन कूद कर पीछे बैठकर यह कहते हुए नौ दो ग्यारह हो गये कि—कि चलूं नहीं तो अभी ये स्कूली लड़कियां गले पड़कर आपदा राहत कोष के लिए चन्दा मांगेगी। आखिर में झेलना मुझे पड़ा। आगे बढ़ा किसी तरह तो एक साहब जो सिर्फ कभी-कभी समाजसेवा का काम करते हैं और प्रायः बन्दे के धंधे का मौका ढूंढ़ा करते हैं। उन्होनें एक रसीदबुक थमाते हुए कहा ‘भैया यह रसीद है सुनामी लहरों से पीडत लोगों के सहायतार्थ चन्दा इकट्ठा करने के लिए। मैंने लाख समझाया कि मैं अभी-अभी स्कूल की छात्राओं को चन्दा देकर आरहा हूं। मगर वह माने नहीं और बतौर उधार एक सौ एक की रसीद काट दी।
देने को तो मैंने दे दिया लेकिन है कि क्या गारण्टी जो यह रकम पीडि़तो तक पहुंच ही जाए?कई बार ऐसी आपदायें आती रहीं,लोग तबाह और बर्बाद होते रहें और सहायता के नाम पर ठगे जाते रहे लेकिन जनता की जनता के लिए और जनता का प्रोग्राम गतालखाते में ही जाने की खबर लगी रही। मैं छोटी सी जुबान वाला एक अद्द मामूली आदमी कह ही क्या सकता।

कलमकारों की माया होली में

अमां कमाल है। लोगो की कलम कैसे कैसे करवट बदलती है?लिखने वाले कलम तोड़कर स्याही गटक जाते हैं। वह तो कहिए भला हो उनका जिन्होंने स्याही को सालिड बनाकर कलम में भर दिया वरना सभी लेखक मिलकर बरसाने में गाना शुरू कर देते ‘मेरा गोरा रंग लै ले मुझे श्याम रंग दै दे।’फिर समां जब होली का हो तो क्या कहने। भंग की तंरग में बेसुरे भी सुर में रेंकते-रेंकते दुल्लती चलाने से बाज नहीं आते हैं। लत्ती की आग में अगर कोई भला अनभला मानुष आ ही गया तो अंग्रेजी के सॉरी को हिन्दी में और सारगर्भित बनाते हुए कह दिया जाता है,‘यारों बुरा न मानो होली है।’होली के रंग का हुड़दंग तो इस नाचीज ने उस दिन राज्य सरकार की नाक के नीचे बसे गोमती नगर से लेकर नैना देवी के नैनों के पास फैले भीमताल, गाजी मियां के बहराइच और दिल्ली है दिल हिन्दोस्तान में देखा। सी.बी.आई. वाले उछलते कूदते छापे का ठप्पा मारते हुए कहे जा रहे थे कि बुरा न मानो होली है। इस नाचीज को उनके रंग में सने हुए छापों से थोड़ी सी दहशत तो हुई मगर इस चमत्कारी युग के रंग का चमत्कार जब समझ में आया तो समझ कर तसल्ली बख्श हुआ कि इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। यह तो अपने बरसाने वाली लट्ठमार होली जैसी है।

बरसाने की लट्ठमार होली हमारी परम्परा का हिस्सा बनकर सुखद हो गयी है। फिर आज के होली में तो ऐसे-ऐसे चटख रंग देखने को मिलते हैं जो कुछ देर की हाय तौबा और कपड़े खराब हो जाने के डर को रंग उड़ाकर रंग को चमत्कारी बना देते हैं। शायद यहां भी होली के मौके पर ऐसा ही कोई रंग तैयार किया गया हो। तजुर्बे तो यही कहते हैं। होली में छापे नहीं पड़ेंगें,रंग से तरबतर नहीं होंगें और मुंह में कालिख नहीं पुतेगी तो कैसी होली? ऐसे मौके पर तो उन, धवल वस्त्रधारियों को न जाने कब से घोंटी जाने वाली भंग की तंरग में झूम-झूम कर गाना चाहिए ‘जय-जय शिवशंकर कांटा गड़े न कंकड़ प्याला तेरे नाम का पिया।’पियो खूब छक कर के पियो और शान से अगली होली तक जियो। जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां? फिर भाई मेरे, होली के दिन दिल मिल जाते हैं तो फिर उनके छापों रंगों और कालिख का बुरा क्या मानना? शायद ऐसी ही कुछ कभी बरसाने की लट्ठमार होली भी रही होगी।

बाद में धीरे-धीरे चुपके-चुपके उनकी लाठियों और गालियों को अपने हक में दुआ समझकर बरसाने वालों ने अपने अनोखे ढंग से होली मनाने का रिवाज समझ लिया होगा। इसलिए तो कहना पड़ता है कि लिखने वालों का बस नहीं चलता है वरना वह ऊपर वालों की भी वीडियो रिकार्डिंग दिखाकर कहते कि उसके पास दुनिया भर की मिल्कीयत क्यों हैं? कहां से आयी? वह बेचारा होली के दिन दिल मिलाने के लिये खाइके पान बनारस वाला अपनी सोने की पिचकारी से रंग फेंकता और लोग उस पर लट्ठ बरसाते।

बुरा न मानों होली है। होली में बुढ़वा भी जवानी के जोश में कुलांचे भरने लगता है फिर लेखक तो लेखक है। होली में तो वह छुट्टा सांड बन जाता है। तभी तो कभी कलम से गंगा को पतित पावनी लिखता है तो कभी लिखता है ‘राम तेरी गंगा मैली हो गयी।’अब होली की ठिठोली में कौन उनकी कलम को समझाये कि राम जी कहां से गंगा जी के बीच खींच लाए गये। अरे वह तो विष्णु के चरणों से निकली, ब्रह्मा के कमण्डल में रूकी और शंकर की जटा में समा गयी। हां थोड़ा बहुत सबूत दे सकते हैं तो श्रीमान भगीरथ। राम जी बेचारे को इस पचड़े में नाहक घसीटने की कोशिश की जा रही है। मगर होली है। किसको क्या समझाया जाए? यहां तो होली में बुढि़या भी भौजी बन जाती है। सब लट्ठमार होली में कलम के कलमकारों की माया है।

स्वदेशी अंगना, परदेशी बिजली

स्वदेशी अंगने में परदेशी बिजली का क्या काम? यूं तो स्वदेशी बैठक में ‘परदेशी-परदेशी’ गाना खूब जमता है लेकिन कभी किसी परदेशी के आ जाने पर सबके चेहरे का नक्शा बदल जाता है। अब यह तो अपने मिजाज़ की बात है। उनका भी जवाब नहीं जिन्होने ‘नमस्ते सदा वत्सले’ गाते हुए अचानक ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गाना शुरू कर दिया। एक वो लोग भी थे जिन्होनें महाराणा प्रताप की जन्मभूमि को नमन करते हुए दिलफेंक परदेशी क्लिंटन के साथ राजस्थानी बालाओं को नचवा दिया। जो कुछ भी हो। भारतीय संस्कृति का सबक उन्हीं से सीख कर इतना बोलने का साहस कर पा रहा हूँ कि स्वदेशी अंगने में परदेशी बिजली का क्या काम? आज न जाने क्यों लोग बिजली के लिए अपना माथा पटक रहें है। हंगामें कर रहे हैं। हड़ताल पर करताल बजाते हुए परदेशी बिजली को पटाने के लिए गा रहे हैं ‘हम तुम एक कमरे में बन्द हों और चाभी खो जाये। वाकई में अपने देश के लोग इतने सीधे-साधे हैं कि जैसे अल्लाह मियां की गाय। भूल गये उस परदेशी मैकाले को जिसने हमारे दायरे को कब्रिस्तान का रास्ता दिखा कर उनकी जगह ‘अंकल-आंटी’ की घण्टी बजवाना शुरू कर दिया। वैसे मार्टिन बर्न ने बर्निंग ट्रेन क्या चलाई कि हमारे घरों के दिये-बाती बुझ गये। हमारी महफिलों में रोशन होती शमाओं को गुल कर, हमारे हाथ में थमा दिये बिजली तेज पावर वाले गोल-गोल लट्टू। हम गानां भूल गये कि गोरा रंग लै ले हमे श्याम रंग दै दे। बल्कि हम परदेशी बिजली की तेज रोशनी में गुसुल करते-करते सब कुछ भूल बैठे। तारीफ की बात यह रही कि स्वदेशी संस्कृति का दम्भ भरने वाले खुद उस हमाम में ऐसे डूबे कि वे भूल गये कि बाहर लोग उनका इन्तजार भी कर रहें हैं। खोद खोद-खोदकर स्वदेशी संस्कृति के मुर्दो को जिन्दा करने का दावा करने वाले खुद बिजली के बेमिसाल लट्टू थामे बेखुदी से उन्हीं को पुकारते चले गये। कभी तो समय रहते सोचा होता कि स्वदेशी अंगने में परदेशी बिजली का क्या? इसलिए भैया बिजली के लिए हो-हल्ला मचाना बेकार, तोड़-फोड़, मारा-मारी करने से कोई फायदा नहीं हड़ताल पड़ताल करने से कोई नतीजा हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि दिल्ली से दौलताबाद तक वालों की दिली मशां यही है कि हम फिर से दिया बाती वाले युग में गाते हुए ‘आ अब लौट चलें’ की तर्ज पर वापस हो जाए। अगर ऐसा न होता तो रथों पर रथ निकालने से लेकर विदेशों में फिल्म फेस्टीवल मनाने की ऊर्जा इकट्ठा करके अपने देश को न ऊर्जावान बनाया जाता? जो प्योर स्वदेशी होती। उन्हें चिन्ता करने की क्या जरूरत क्योंकि उनके आफिसों से लेकर अट्टालिकाओं तक में सरकारी गैरसरकारी जेनरेटरों से ऊर्जा का छिड़काव किया जा रहा हैं। रही हम जैसों की बात तो हमें तो ‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ हैं? बिजली रहे, उजाला हो न हो। उन्हें तो हमें पुरानी संस्कृति के स्टैण्ड पर रखे टिमटिमाते दिये की रोशनी में जीना सीखना हैं। इसलिए भाई और झनक-पटक करती बहनों भूल ही जाओ परदेशी बिजली का नाम। बस अंधेंरें में लुट-लुटकर जी बहलाने के लिए गाते रहो ‘मैंने चांद और सितारों की तमन्ना की, मगर हमें रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला।’

स्वयंवर होना चाहिए।

भाई सुना है, पढा़ है कि पुराने जमाने में स्वयंवर का आयोजन किया जाता था जिसमें कन्याएं बन-ठन कर आए राजे-महाराजाओं का बड़े ध्यान से जायजा लिया करती थीं और जो पसंद आता था, उसे जयमाल पहना कर अपना जीवन साथी बना लिया करती थीं। जैसे-जैसे दिन बीतते गए और शोरे पुस्ती बढ़ती गई, लोग जबरन अपने गले में जयमाल डलवाने के लिए अपनी शक्ति का साइनबोर्ड टांगे हुए स्वयंवर में तशरीफ ले जाते थे। पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता का स्वयंवर कुछ इसी तरह का हुआ था। फिर आजकल तो अगवा करके धीरे से कोर्ट मैरिज करने की परम्परा बडी़ तेजी से दौड़ रही है। अब मुल्क में देखा जा रहा है कि ‘भारत रत्न’ सम्मान के स्वयंवर में रोज एक न एक अपना पूरा शिज़रा लिए हुए बन-ठनकर हाजिरी लगा रहें हैं। कुछ तो इस तलाश में हैं कि स्वयंवर में घुसकर संयुक्ता रूपी ‘भारत रत्न’ सुंदरी को ले उड़ें। ताज्जुब तो भाई यह हो रहा है कि जुमा-जुमा सात दिनों के लिए बने राजा भी पीछे नहीं रहना चाहते हैं। वैसे अपने को तो उसे हासिल करना नामुमकिन है। क्योंकि न तो अपने पीछे कोई चमचा है, जो अपना नाम आगे बढा़ए और न सपोर्ट करके उस स्वयंवर में भेजने वाला हैं। अब मुश्किल यह कि ‘भारत रत्न’ एक है और उसको चाहने वाले दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में तीर चलाने वाले एक दूसरे से अपने को बढ़ चढ़कर मान रहें हैं। अमां एक दिन वह था जब बड़े-बडे़ दिग्गज समाजसेवक और फांसी के फंदो को खुशी-खुशी अपने गले में डालने वाले कभी ख्वाब़ में ऐसा कुछ नहीं सोचते थे। ‘भारत रत्न’ की ही बात नहीं हैं बल्कि छोटे-मोटे इनाम इकराम से नवाजे जाने की चाहत रखने वाले भी एड़ी से चोटी तक का जोर लगा डालते हैं। उनसे ज्यादा मुंह से मुंह जोड़कर रहने वाले उनके इनाम पाने के लिए रायपुर से लेकर रायसीना रोड तक अपनी सारी ताकत झोंकने के लिए तैयार खड़े है। बस नहीं चल रहा हैं वरना पृथ्वीराज चौहान की तरह ‘भारत रत्न’ को जबरदस्ती अपनी गाड़ी में किडनैप करके भाग निकलते। भाई, जिसकी लाठी उसकी भैंस का जमाना है। कम से कम देश की सर्वोत्तम सुन्दरी ‘भारत रत्न’ की भी मर्जी का ख्याल करना चाहिए। क्या आजकल ऊंची कुर्सी पर बैठकर देशसेवा का नाटक करने वालों का मकसद यही होता है?

हमें तो बताया गया है कि निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वालों सें मुल्क खुश रहता है और उनके लिए सर्वोच्च सम्मान यही होता है कि लोग उन्हें याद करते हुए उनके अधूरे कार्यो को पूरा करें। य़ह तो वही हुआ कि बहती गंगा में जब जिसको मौका मिलता, हाथ धो ले। मेरे ख्याल से वही हाथ धोने के लिए इतिहास में पहली बार इतनी मारामारी हो रही है। जम्हूरियत का जमाना है किसको कौन रोक सकता है? मुझे तो शक हो रहा है कि कही लोग यह न कह बैठें कि वोट पड़ना चाहिए। लोकतंत्र में जनता के बहुमत की सब कद्र करते हैं। यह बहुमत कैसे किस तरकीब से आता है, सब जानते हैं। मेरा अपना ख्याल है कि इन सारे इनामों को कुछ दिनों के लिए मुलतवी कर देना ही बेहतर होगा। न रहे बांस न बजे बांसुरी। इनाम देकर खरीददारी का यह बाजार बंद होना चाहिए क्योंकि आगे चलकर कितनों को अपने गोल्ड मेडल कबाड़ी के हाथों बेचते हुए देखा है। बड़े सम्मान से नवाजे गए उस्ताद बिसमिल्लाह खान के आखरी वक्त को सबने खूब देखा है। इसी प्रकार न जाने ऐसे कितने देश के सपूत हैं जिनको कोई सम्मान नहीं मिला लेकिन वे सम्मानों से ऊपर हैं। इसी प्रकार वे लोग भी सम्मान पा गए जो किसी भी तरह से उसके हकदार नहीं थे। हालांकि लोग सब समझते हैं। अच्छा ही हुआ जो इस बार किसी को भारत रत्न नहीं मिला लेकिन इतने भर से इस सम्मान के लिए भीड़ कम न होगी। अगले साल फिर दावेदार सामने आएंगे। ऐसा ही होता रहा तो इस सर्वोच्च सम्मान की गरिमा का क्या होगा? यह तो मुल्क के मुस्तकबिल के अलम्बरदार ही जाने। दिल करता है कि कोई दिल अजीज़ मिले तो उससे कह दूं कि यार मुझमें क्या कमी है।