शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

हकीकत को हिकारत से देखिए

मेरे सामने अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक समारोह का निमंत्रण पत्र रखा है। सोचता हूं जब बुलाया गया है तो कुछ न कुछ बोलना ही पड़ेगा। किसी को जिस तरह छपास रोग लग जाता है तो छूटने का नाम नहीं लेता है उसी तरह मुझे सभा समारोहों में माइक से चिपके रहने की आदत सी हो गयी है। क्या बोलता हूँ कैसे बोलता हूँ या सुनने वाले कितना बोर हो रहे है, उस वक्त मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं होता है। माइक छोड़ने को जी नहीं चाहता है जब तक कि दो-चार बार संचालक की चिट न सामने रख दी जाए।

हाँ, तो मैं महिला दिवस के उस समारोह की बात कर रहा था। दो चार मित्रों से पाई उल्टी-सीधी पत्रिकाओं और अखबारो के ताजे-बासी विशेषांकों के पन्ने पलटते हुए मैटर कलेक्ट करने के चक्कर में जूझा जा रहा हूं। तभी याद आता है कि इस बार तो महान चमत्कार हो गया है। महाशिवरात्रि और अर्न्तराष्ट्रीय महिला दिवस एक ही दिन पड़ रहे हैं। शिव शक्ति और महिला सशक्तिकरण का दिन। अभी कुछ देर पहले आधा दर्जन बच्चों की सशक्त मां ने छोटू से कहलाया है कि अपने पापा से कह देना कि मम्मी कल के शिवरात्रि के व्रत के लिए सामान खरीदने शुक्लाइन आण्टी के साथ बाजार गयी हैं। तभी मुझे याद आया कि कल तो शक्ति स्वरूपा धर्मपत्नी जी पाक शाला मे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से रहीं। मुझे ही भोजन बनाने से लेकर बर्तन मांजने तक की कसरत करनी पडेगी साथ ही भाषण देने की तैयारी भी। सोचता हूं हे शिवभवानी कुछ ऐसा जादू कर दे कि श्रोता मंत्र-मुग्ध हो उठे और मुझे कल का सर्वोच्च वक्ता ठहराते हुए एक बढ़िया सा स्मृति-चिन्ह भेंट कर दें। अभी अखबारों को उलटते पलटते एक समाचार पर नज़र रूक जाती है। एक कोने में छोटा सा छपा समाचार यूं है कि मध्यप्रदेश के किसी गांव में एक दलित महिला को नग्न करके पूरे गांव में घुमाया गया। उस पर आरोप था कि उसने किसी बच्चें पर टोना-टोटका करके मार डाला। अभी मैं उस खबर के बारे में कुछ मनन चिन्तन करने बैठा ही हूं कि हाथ में कोलाज लिए पत्रकारिता का एक छात्र दाखिल होता है। कोलाज दिखाते हुए पूछता है ‘अंकल आज विश्व महिला दिवस पर आयोजित प्रदर्शनी के लिए यह कोलाज ठीक है न?’ कोलाज पर कल्पना चावला, किरन बेदी, उमा भारती, लता मंगेशकर, मदर टेरेसा, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज और ऐसी कई दिग्गज महिला हस्तियों के चित्र बड़े करीने से किसी न किसी आकर्षक टाईटल के साथ चस्पां किये गये थे। मैनें उससे पूछा कि जब महिलाओं ने इतनी तरक्की कर ही डाली है तो फिर आयोजन का औचित्य क्या है? तुम्हें और मुझे आज के महिला दिवस के लिए हाथ पैर मारने की जरूरत क्या है? आखिर महिला दिवस किन महिलाओं के लिए मनाया जा रहा है? अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे कोलाज में उन सांसदों विधायको, अफसरों और मठाधीशों के चित्रांकन क्यों नहीं हैं जो ‘नारी तुम केवल श्रध्दा हो’ के बजाये नारी को दिल बहलाने का सामान समझते हैं? उस नग्न नारी के चित्र को क्यों नहीं स्थान दिया गया जिसे इक्कीसवीं सदी के सभ्य भारत में टोने-टोटके के नाम पर पूरे गांव में बड़ी शान से नग्न घुमाया जाता है? वह छात्र मायूस सा कहता है ऐसे चित्रों को लगाने से मना कर दिया गया है।

‘मना......’ कुछ सोचते-सोचते मैं रूक जाता हूं और उन आयोजकों की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए कहता हूं ‘हाँ-हाँ मना किया गया होगा, ठीक किया गया।’ छात्र कोलाज लिए हुए कमरे से बाहर चला जाता है। मैं सोचता हूं कि अखबार के कोने में छपी खबर अगर कोलाज पर लगाई गयी तो वर्ल्ड में भारत के बारे में क्या मैसेज जाएगा? शायद इसीलिए ‘दी­पा मेहता’ को ‘वाटर’ की शूटिंग करने से मना कर दिया गया था। हकीकत बड़ी कडुवी होती है। हज़म करना बड़ा मुश्किल होता है। आधी दुनिया को बुलन्दी पर पहुँचता दिखाकर हिन्दुस्तान में नारी सशक्तिकरण से विश्व को परिचित भी तो कराना है। उसके लिए सच्चाई को छुपाना बहुत जरूरी है। यही होता रहा है। होता रहेगा। यूं ही विश्व महिला दिवस के आयोजन को दो बूंद जिन्दगी की तरह चलने देना चाहिए। कुछ सीरियलों की तरह लम्बा खिंचना जरूरी है। व्याख्यान मालाओं से भारत माता का मस्तक ऊँचा रखना है। सोचता हूँ मैं महामूर्ख हूं। निगेटिव क्यों सोचता हूँ? हमेशा सच्चाई पर पर्द डालते हुए पॉजटिव सोच बनाना चाहिए। इसी लाइन पर भाषण तैयार करने में लग जाता हूं। मान कर चल रहा हूं कि यद्धपि महिला विधेयक अभी कोसों दूर है फिर भी हमारे यहां महिलाओं की स्थिति एकदम चकाचक है।

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