शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

बोलो क्या-क्या खरीदोगे...?

भले अपने गांव वाली फुलमतिया चार-छ: पेबंद लगी पुरन की साड़ी लपेटे अपने शहीद हुए सिपहिया पति के मुवावजे के लिए सड़क-सड़क की ख़ाक छानती दिखे। वही अफसर अब मुँह घुमा लेते हैं जिन्होनें बड़ी-बड़ी बातें की थीं। भले अपनी नुक्कड़ वाली टुटही हवेली से सूखा मुँह लिए मीर साहब नज़र आते हों जिनका मुँह कभी बेगम के हाथ से लगी गिलौरीयों से भरा दिखाई देता था। आज मीर साहब बयान करते-करते रो देते हैं कि भाई जब से बेगम अल्लाह को प्यारी हो गयीं किसी बहू को फुर्सत नहीं है कि गिलौरीयां पनडब्बे में भर दे। उल्टे कहती हैं अब्बा यह कौन सी लत पकड़ रक्खी है आपने? हुक्का खुद भरिए और कोने में बैठे-बैठे गुड़गुड़ाते रहिए।

अपने दायरे में सिमटा हुआ याद करता हूँ वो दिन जब आज की फटेहाल फुलमतिया कल को मिसेज फूलमती वाइफ़ ऑफ सूबेदार मेजर सूरज सिंह कहलाती थी। गज़ब का रुतबा था। सोचता हूँ आज के डिस्पोजल गिलास की तरह चुचके-पुचके मीर साहब बीते हुए कल के मीर साहब का क्या जलवा था? मजाल कि शेरवानी में शिकन तो पड़ जाए। बैठके में राय मशविरे के लिए डी॰एम॰ से एस॰एस॰पी॰ तक डेरा जमाए रहते थे। मुझे याद है चार-चार सेर दूध चचा मौला बख़्श के घर से खरीदा जाता था। अपना रमफेरवा कभी-कभी पूछता था कि चचा मियाँ इतना-इतना दूध क्या होता है? मीर साहब तपाक से जवाब देते, नामाकूल कहीं का। अरे बच्चे खाये-पीयेंगें तब न बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेंगे। फिर यही तो उनकी उम्र है खा पीकर सेहत बनाने की। लेकिन इस उम्र में जब सुना कि बेचारे मीर साहब की बेगम की दोनों आँखें बिना चश्मे के चली गई और खुद मीर साहब एक पुड़िया तम्बाकू के लिए तरस जाते हैं तो बड़ा दुख होता है। उल्टे बड़े-बड़े भाषण सुनने को मिलते हैं कि अब्बा यह सब गंदी आदत है। तमाम बीमारियाँ रख लेती हैं। फालतू खर्च क्यों बढ़ाते हैं? देखते नहीं महँगाई कितनी बढ़ गई है?

दायरे में बैठ कर सारा ध्यान बढ़ती महँगाई की तरफ केन्द्रित हो जाता है। साग-भाजी वगैरह की महँगाई तो समझ में आ रही है पर शराफत एखलाक और सम्बन्धों पर महँगाई की मार समझ से बाहर है। इसमें कौन सी लागत लगती है?

फिर भी एक बात अलबत्ता काबिले गौर है कि इनके अलावा सभी चीज़ें इफ़राद हैं। बोलो क्या-क्या खरीदोगे? हत्या, लूट, बलात्कार और घूसखोरी बाज़ार में भरी पड़ी हैं। जो खरीदना चाहो खुले आम बिना रोक-टोक के खरीद बेच सकते हो। लूट सको तो लूट। बेहद सस्ते हैं तो वायदे और खून-कानून। कितना लिखूँ और कैसे लिखूँ? यही तो समझ में नहीं आ रहा है कि जब खूब लिखना चाहता था तो उस समय इतनी समस्याएँ नहीं थीं लेकिन जब समस्याएँ हीं समस्याएँ हैं तो लिखने को जी नहीं चाहता है। क्योंकि न पढ़ने वाले रहे, न समझने वाले। लेकिन इतना यकीन जरूर है कि राजनैतिक और सामाजिक असन्तोष एक दिन जरूर अपना रंग दिखायेगा।

(नोट: (16 जुलाई 2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)
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