गुरुवार, 10 जुलाई 2008

यहाँ भी ‘ब्लैकहोल’ हैं।

बताने वाले ब्रह्माण्ड के ठेकेदार बताते हैं कि हजारों की तादाद में वहॉं ब्लैकहोल घूम रहे हैं जो पास आने वाले सितारों को निगलकर अपनी धधकती आग में खाक कर देते हैं यानी उन सितारों का वजूद खत्‍म। शायद इसी को कुछ ने कयामत का नाम दिया और कुछ ने प्रलय कहा होगा। खैर ब्रह्माण्‍ड की बात ब्रह्माण्‍ड वाले जाने। हमने तो अपनी धरती को भी ठीक ने नहीं देखा है। धरती को कौन कहे अपने शहर का भी अच्‍छी तरह दीदार नहीं किया है। अलबत्‍ता बेजुबानी अखबारनवीसों और खबरियां चैनल वालों के इतनी तो जानकारी मिलती है कि ब्रह्माण्‍ड में ही नहीं बल्कि अपने कस्‍बे और शहरों में भी ऐसे ब्‍लैकहोल खुलेआम नंगी आंखों से देखने को मिलते हैं। नासा के काबिल वैज्ञानिक तो कोशिश में लगे हैं कि किसी तरह अपनी पृथ्‍वी को ब्‍लैकहोल से बचा लिया जाए। मगर अपनी आला काबिल पुलिस दूरबीन से भी नहीं देख पाती है शहर, देहात में घूमते ब्‍लैकहोलों को। आये दिन कोई न कोई ग्रह सरेआम इनका शिकार बन जाता है। इन आसपास के ब्‍लैकहोलों को पता तब चलता है जब किसी चमकते सितारे का काम तमाम हो जाता है। दूर के ब्‍लैकहोलों की खोज में वै‍ज्ञानिकों की टीम माथा खपा रही है, लेकिन पास के ब्‍लैकहोलों से बचने बचाने की सिर्फ योजना बनती है। ब्‍लैकहोल के शिकार कभी भोपाल, कभी निठारी तो कभी आरुषि और शशि जैसे सितारे हुआ करते हैं। खैर जो हुआ सो हुआ, आगे क्‍या होगा अभी देखना बाकी है। जबसे सुना है कि सन् 2012 तक अपनी धरती किसी ब्‍लैकहोल का ग्रास बन जाएगी, तब से बड़ी राहत महसूस कर रहा हूं कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इधर राजधानी के टांग पसारने की बात सुनकर फि‍र एक खौफ समा रहा है कि एक और ब्‍लैकहोल लहलहाते खेतों के साथ लोक संस्‍कृति के विशाल ग्रह को लीलने के लिए बढ़ रहा है, जिसके लिए कभी हिन्‍द को नाज था। दिल बार-बार पूछता है, जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वो कहां हैं, कहां हैं? जो बड़ी अदा के साथ गांधी, लोहिया और विनोबा के ताल से ताल मिलाकर गाया करते थे ‘अमुवा की डारी पे बोले रे कोयलिया कोई आ रहा है़।’ आता था आता है मेड़ों पर से अपनी लहलहाती फसल को देखते हुए मस्‍ती में गाते, ‘कान्‍धे पे कुदरिया रखले माथे पे पगड़िया धइले, आगे आगे हरा चले पीछे से किसनवा खेतवा जोते रे किसनवा।’ चकाचक के नाम पर पहले ही कंकरीट के ‘ब्‍लैकहोलों’ ने गांव देहात के साथ अन्‍न के भण्‍डार खेतों को लील लिया है। अब जो बचे खुचे लोकगीत लोक संस्‍कृति और धरतीपुत्र हैं उन्‍हें भी राजधानी का ब्‍लैकहोल लीलना चाहता है। शायद यही विकास है। राजधानी बढ़े। गांव खेत छोटे हों और फिर घडि़याली आंसू के साथ रोना कि देश में अन्‍न का संतोषजनक उत्‍पादन नहीं हो रहा है।
ऐसा मत ख्‍वाब में मत सोचिए कि मैं चकाचक चौकन्‍ना करने वाली राजधानी का फैलाव नहीं देखना चाहता हूं। दिन पर दिन खेत की मेड़ों पर संगेमरमरी दीवारे तामीर होती जा रही हैं। खुशी होती है कि चलो सूने दरवाजे पर कुमकुमें तो लटकाए जा रहे हैं। हमारे गांव की गलियों में भले अंधेरा छाया हो मगर राजधानी की जगमगाहट देखकर जरूर खुशी हो रही है कि राजधानी के दरबारियों और आम लोगों में कुछ तो फर्क होना चाहिए। मगर अर्श कहीं ब्‍लैकहोल बनकर फर्श को निगल न ले। फिर कहां मिलेगा प्रेमचन्‍द को होरी? कहां पगुराते दिखाई पड़ेंगे हीरा-मोती? कहां सुनने को मिलेगी ‘झीनी झीनी रे बीनी चदरिया’ और मिर्जापुरी कजरी का आनन्‍द कहां मिलेगा? क्‍योंकि उन्‍हें लील रहे हैं ऊंची हवेलियों में आबाद शानोशौकत वाले सीरियलों के ‘ब्‍लैकहोल।’ हमें तो विशुद्ध आबोहवा वाले गांवों से सौ साल पहले भी प्‍यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। चौपालों में बैठ कर रात के बारह बारह बजे तक बतकही करना बहुत भाता था, इसलिए कि वही इस देश प्रदेश की सच्‍ची पहचान है। जमीनी जिन्‍दगी उसी में पलकर उसने राजधानी की चौड़ी सड़कों और संगेमरमरी बारादरी तक पहुंचाया है। वहां पहुंच कर खुद तो ‘ब्‍लैकहोल’ की तरफ खिचे जा रहे हैं। और अब राजधानी का ज्ञानी बनकर गंवई पाती की छाती पर मूंग दल रहे हैं और मक्‍खन का लेप लगा कर जब शहरी ब्‍लैकहोल को गांवों की ओर बढ़ते देखते हैं तो हां में हां मिलाते हुए भूल जाते हैं कि एक दिन उनका भी वजूद मिट सकता है क्‍योंकि ब्‍लैकहोल का खिंचाव होता ही ऐसा है। गांधी, विनोवा, अम्‍बेडकर और लोहिया सबके सब उस ब्‍लैकहोल की भेंट चढ़ जायेंगे। ‘आ बैल मुझे मार वाली’ कहावत चरितार्थ होगी। अभी भी वक्‍त है अपनी लोक संस्‍कृति को बचाने के लिए वरना फिर ब्‍लैकहोल से बचने के लिए कहीं सारे गंवई गाने न लगें ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ क्‍योंकि जनता के वजूद से ही देहात, कस्‍बे, शहर, प्रदेश और देश का वजूद होता है।

आपबीती, जगबीती

पहले नानी से कहानी सुनाने की जिद करते थे तो वह हमेशा कहती थीं कि आप बीती सुनाये या जग बीती। बचपन के दिन भी क्‍या दिन थे। आप बीती या जग बीती का मतलब माने कुछ समझ में नहीं आता था। बस धुन तो एक ही कि नानी की जुबानी कहानी सुनते सुनाते मैं भी नानी की गोद में लुढ़क जाता था और नानी भी खर्राटे भरने लगती थी।
बचपन बीता जवानी आयी तो नानी मृत्‍यु की सुहानी चिरनिद्रा में विलीन हो गयीं। तब आपबीती और जगबीती की सीटी अपने आप मेरे कान में बजना शुरू हो गयी। जगबीती में पता चला कि इस पार हमारा भारत है उस पार चीन, जापान देश मध्‍यस्‍थ खड़ा है। दोनों में एशिया का यह प्रदेश। यानी दुनिया के अलग-अलग भाषाओं, धर्मों और जातियों में बंटे हुए लोग जिनमें होड़ लगी है अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलापने की। सुनाते हुए सबको देखा कि हम सब एक ही पिता की संतान हैं। प्रश्‍न उठता है कि जब एक ही पिता की हम सब संतान हैं और धरती माता की कोख से जनम लिया है तो बीच में फि‍र भेदभाव की खाई कहां से आ टपकी? शायद इसी को कहते हैं जगबीती।
अब नानी की कहानी में आपबीती की बात भी धीरे-धीरे समझ में आने लगी। एक घर एक परिवार लेकिन उनमें भी कोई मेल मिलाप नहीं। कोई न कोई बुजुर्ग रहा होगा जिसका कुनबा बढ़ते-बढ़ते परिवार बना, राज बना और देश बना। हां यह बात अलग है कोई काला हुआ तो कोई गोरा। कोई विकलांग रहा तो कोई सरपट भागने वाला। किसी ने परिवार के लोगों की सेवा करना अपना कर्त्‍तव्‍य समझा तो दलित कहलाया। जिसने परिवार की सुरक्षा की जिम्‍मा उठाया तो वह शस्‍त्रधारी क्षत्रिय कहलाने पर फूले नहीं समाया। शस्‍त्रों के अध्‍ययन अध्‍यापन में जिन्‍हें इन्‍टरेस्‍ट हुआ उन्‍हें ब्राह्मण की कटेगरी में रखा गया। चलिए आपबीती वाली नानी की कहानी समझ में आयी। बड़े ध्‍यान से समझने के बाद नतीजा निकला कि यह आपबीती वाली कहानी जगबीती की एकदम कार्बन कापी रही। जगबीती में नानी तो नहीं बता सकीं लेकिन जब गुरू जी से शिक्षा लायक हुआ तो पता चला कि चंगेज, हलाकू और सिकन्‍दर अपनी हुकूमत के वित्‍तांत को तानने के लिए उन्‍हीं के खून से होली खेली जो उन्‍हीं के भाई बंधु रहे होंगे। नानी की आपबीती कहानी सुनकर उतनी समझ तो नहीं थी लेकिन यहां भी घर परिवारों की चहारदीवारियों के पीछे सिकन्‍दर कलंदर की कहानी कहते-कहते नानी बेचारी कभी-कभी रूंआसी हो जाया करती थीं। नानी तो नदारद हो गयीं और आपबीती का यह पात्र अपने छोटे से घर परिवार के दायरे में सिमटा हुआ गृहस्‍थी की दहलीज पर खिसकता-खिसकता पहुंच गया, लेकिन वहां सिकन्‍दर और पोरस का घमासान देखने को मिला तो यकीन नहीं होता कि हमें जन्‍म देने वाले एक ही माता पिता रहे होंगे। यहां भी अपना साम्राज्‍य बढ़ाने के लिए इनडायरेक्‍ट संघर्ष। जबकि सबकी जुबानी एक ही बात निकलती है कि सिकन्‍दर भी आया कलंदर भी आया, कोई रहा है न कोई रहेगा। हैरतअंगेज बात तो तब लगती है कि जिस बुजुर्ग ने कुनबे भर को पालने पोसने के लिए न जाने किस मशक्‍कत से जिन्‍दगी दांव पर लगा दी, उसी को पूरा कुनबा सठियाया समझ कर आंखों से ओझल करने की कोशिश करता है। कोर्ट कचेहरी का चक्‍कर लगाते हैं। इस संघर्ष में सब अपने-अपने तवे अलग कर लेते हैं। मगर वो दो तीन बहुओं के रहते हुए बेचारे वृद्ध-वृद्धा को अपना पेट भरने के लिए खुद रसोई की आग में झुलसना पड़ता है। अपना रोना रोवे तो किससे? कोई तो आंसू पोछने वाला होना चाहिए। बहुत पुराना घिसा-पिटा शब्‍द ‘सठिया गया बुड्ढा’ बस सुनकर आपबीती कहानी सुनाने की हिम्‍मत नहीं होती। सरकार ने इंतजाम तो बहुत किए हैं लेकिन वहां पहुंचने के पहले ‘जल में रहकर मगर से डर’ बना रहता है। इसलिए ज्‍यादातर ऐसी कहानियां दुखान्‍त ही होती हैं।
मुझे तो नानी की कहानी जगबीती ही अच्‍छी लगती है क्‍योंकि वहां जो कुछ हुआ है वह डायरेक्‍ट रहा है। ‘आपबीती’ कहानी में जो होता है इनडायरेक्‍ट होता है जिससे औरों को सुनाना भी मुश्किल होता है। इसलिए यहां घुटन ज्‍यादा होती है और जी यही चाहता है कि नानी अपने साथ ही क्‍यों नहीं ले गयीं। आखिर में वहीं पुराना गाना याद आता है ‘चल उड़ जा रे पंछी यह देश हुआ बेगाना’। जिसे यकीनन सबको एक दिन गाते-गाते रोना पड़ेगा। बात निराशावादी जरूर है लेकिन सच्‍चाई यही है और यह घर-घर की कहानी कहकर लोग संतोष कर लेते हैं।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

सियासत के साज़ पर बुतों का संगीत

बेज़ान पत्थर से तराशे गए बुतों का जमाना फिर लौट आया है। इस बार बोलते बुतों के दिन बहुरे हैं लेकिन अलग-अलग आन-बान-शान के साथ। अजन्ता, एलोरा और खजुराहों के बुत तो संततराशों की लाख कोशिशों के बावजूद आज तक नहीं बोल सके। मुमकीन है कि गुज़रे जमाने के संततराश बुत को बुत ही रहने देना चाहते हों। वे उन्हे आज के रोबोट नहीं बनाना चाहते हों, जो राजनीति की रागिनी पर थिरक उठें। आँखों ही आँखों में इशारा समझ बैठें।

रविवार, 6 जुलाई 2008

ऊँचा देखो, ऊँचा सुनो

न जाने कब से तमन्ना रही है कि एक घर बनाऊँगा तेरे घर के सामने। अपने लख्ते जिगर रमफेरवा की पुरानी बोतल में नई शराब नुमा माई का सपना रहा है कि एक बंगला बने न्यारा। मगर अपना रमफेरवा जब पड़ोसी से लाया अख़बार जोर-जोर से बाँचते हुए सीमेन्ट, मौरंग, बालू और ईंटो के आसमान छूते भाव बताता है तो पैर के नीचे से बाप दादों के जम़ाने से चली आ रही ज़मीन खिसकती महसूस होती है।
अब देखिए न मैं भी अच्छी खासी चपरासी की नौकरी करता हूँ। जिगर का टुकड़ा रमफेरवा चाट का ठेला लगा कर सौ-पचास रूपये रोज कमा ही लाता है और रही उसके माई की बात तो वह भी घरों का चौका-बरतन कर के कुछ न कुछ ले ही आती है। यानी ‘साथी हाथ बढ़ाना एक अकेला थक जाएगा बढ़ के बोझ उठाना’ वाली बात पर बाकायदा अमल किया जा रहा है। फिर भी ‘ढाक के तीन पात’ वाली बात है। याद है पहले कुछ निम्न तबके वालों को सुना जाता था कि घर भर कमाते हैं तो लोग हँसी उड़ाया करते थे। आज वही बात आम होकर शान समझी जा रही है। सब वक्त की बलिहारी है मगर चारों ओर एक ही शोर सुनाई देता है कि ‘भय्या मँहगाई बहुत बढ़ गयी है।’ अब समझ से परे है कि इतने पर भी सरकारी गैर-सरकारी बँगलो पे बँगले न्यारे बनते चले जा रहे हैं। आखिर कैसे और क्यों? मोटे तौर से बात हँसी के साथ समझ में आती है कि पॉकेट हमारी ओर जगन्नाथ रूपी हाथ उनके। पहले कहावत थी कि ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ पर अब मामला उल्टा हो रहा है।.चलिए, ‘जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समाना’ उनके घर के सामने अपना घर नहीं बनाया रमफेरवा की माई का सपना ‘इक बँगला बने न्यारा’ सच नहीं हुआ तो क्या हुआ? जिन्हें हमने वोट के ओवरकोट पहना कर भेजा उनकी ख्वाहिशें तो पूरी हो रही है और हमारे लिए है कि हर ख्वाहिश पर हमारा दम निकले। दम तो एक दिन निकलना ही है। आखिर शहर सजेगा तो हमारा भी नाम होगा कि हम फलाँ शहर के वासी हैं। मन की वीणा पर ताल से ताल मिला कर गाने वाले मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आदमी की सोच सकारात्मक होनी चाहिए। उसे हमेशा आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए।
अब बेमौसम की बरसात में सकारात्मक सोच के फटे शामियाने के नीचे बैठे कर सोचते हैं तो बात समझ में आती है। आदमी भी खूब है। कहीं एक चीज़ उसे नीलगगन में उड़ने का आनन्द देती है। कहीं वहीं उड़ान उसे दर्द देती है। मैं ही जब अपने देश या शहर की बाहें फैलाए सड़को, उस पर दौड़ते वाहनों की कतार और आकाश से बातें करती इमारतों को देखता हूँ तो गजब का गर्व होता है और उसी गर्व में कहता हूँ कि यहीं वजह हो सकती है कि खुदा को प्यारे हुए लोग उनसे गिड़गिड़ा कर अरदास करते होगें कि हमें फिर से उसी तरक्की पसन्द मुल्क में वापस भेज दो। ऐसे में कुछ खलनायक टाइप लोग मँहगाई का हवाला देकर उन्हें भड़काते होंगें तो उन खुदा के प्यारे लोगों के ट्रान्सफर और पोस्टिंग की फाइलें दबा कर रख दी जाती होंगी।
उस वक्त के लिए मैं सोचता हूँ कि अगर बतौर मुझे वकील मुकर्रर किया जाता तो मै उनका केस यूँ लड़ता कि मीलार्ड — ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ में सर्वांगीण विकास किया जा रहा है। फिर आदमी का आदमी के लिए और आदमी के द्वारा चीज़ों की कीमतों में तरक्की होने से शिकवा शिकायत क्यों? हर कोई तरक्की पसन्द होता है। हर कोई बढ़त चाहता हैं। चाँद-सितारों की तमन्ना करता है। एक मँजिल से दो मँजिल और दो से तीन मँजिलों वाली बिल्डिंगों पर फील्डिंग करने का मज़ा कुछ और ही होता है। यहाँ के लोगो की तारीफ करना चाहिए के वे निरन्तर ऊपर की ओर देखना पसन्द करते हैं। सबूत है— योर ऑनर कि रावण ने स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनाने की योजना बनाई थी। आज का भी सबूत हुजूर हाजिर है कि हमारे बीच के लोग खेत खलिहानों से आगे बढ़ कर राजधानियों की गगनचुम्बी इमारतों को स्पर्श करने के अरमान सजाये हुए हैं। गोया कि इसी का दूसरा नाम तरक्की है। ऐसे में अगर तरक्की को छूने के लिए कीमतें आगे बढ़ रही हैं तो गुनाह कहना मेरी समझ से दुरूस्त नहीं है? उसे भी बढ़ते रहने का पूरा हक़ है। इन बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगा कर उसे पीछे ढकेलना कहाँ तक इन्साफ हैं? बल्कि उसका नाम गिनीज बुक जैसे ग्रन्थों में नोट किया जाना चाहिए। यह उसके साथ मीलार्ड बहुत गैर इन्साफी होगी कि कुछ मुठ्ठी भर गरीब लोगो के लिए उस पर रोक लगाने की कवायद में समय बरबाद किया जाए। दैट्स ऑल मीलार्ड। इस लिए अगर कीमतें आसमान छू रही हैं तो उन्हें छूने देना चाहिए। बल्कि उनकी हिम्मत अफ़जाई की जानी चाहिए।

चैनलिया चम्पाकली की करामात

बेचारा अपना भज्जी भाई। किरकिट की दुनिया में गिरगिट की तरह रंग क्या बदला कि चैनलों की चम्पाकली को भज्जी की धज्जी उड़ाते देर नहीं लगी। तमाचे को तमंचा बना कर बेचारे को विकेट के पीछे खड़े होकर गाने पर मजबूर कर दिया कि आँधियाँ ग़म की यूँ चली कि बाग़ ही उजड़ कर रह गए भाई वही हाल हुआ कि जो कभी चौके छक्के मार कर लोगों को चौकांता रहा, मिनटों सेकेण्डों में बेचारे के छक्के छूट गए। वाह री दुनिया, वाह रे ज़माने। चैनलों की चम्पाकली ऐसी बदली कि बेचारे को भरी जवानी में वनवासी हो जाना पड़ा। चम्पाकलिया ने ऐसा त्रिया-चरित्तर दिखाया कि अपने हुए पराये, दुश्मन हुआ जमाना। कोई कुछ कहे पर मुझे तो भज्जी की धज्जी उड़ते देख और तमाचे को तमंचा सुनकर जरा भी रास नहीं आ रहा है। जैसे अपने लख्ते जिगर रमफेरवा की माई के जहाँ ऐसी-वैसी बात कान में पड़ी कि मुहल्ले भर में बांट आती है बस वही आदत चैनलिया चम्पाकली की देखने में आई। यहाँ तो अपने रमफेरवा की दुल्हनियां कभी कोपभवन में जा बैठती है तो उसके मायके वालो तक से कोई बात नहीं बताता हूँ क्योंकि भाई जग हंसाई मुझे बिल्कुल नहीं आती है।

अब चम्पाकली के तेज चैनल और किरकिट पर धिरकिट धिन्ना बजाने वालो की बड़ी बात है। उनके मुँह कौन लगे? लेकिन इतना कहने के लिए आत्मा जरूर कहती है कि सबसे पहले चपत, चाँटा, लप्पड़, थप्पड़ और झापड़ में फरक करके कोई कदम उठाना चाहिए। यूँ ही तमाचे को तमँचा नहीं समझ लेना चाहिए। खेल-खेल में तो सब चलता है। बचपन में अपने स्कूल के खेलौड़िया मास्टर ने किसी से मारपीट होने पर डेढ घंटा बैठा कर समझाया था कि बेटा खेल में सब चलता है। हुआ वही कि हाथ मिलाने के बाद दो बार जब मैच खेला तो वही प्यार मोहब्बत से। भूल गये झगड़ा-लड़ाई और लप्पड़-थप्पड़। मास्टर साहब ने गुड़ैहिया जलेबी खिलाते हुये कहा कि इसी को कहते हैं स्पोर्टमैन स्प्रिट।

ताज्जुब तो भाई यह है कि इससे भी बड़े-बड़े काण्ड रोज मुल्क में होते रहते हैं लेकिन न अपनी चैनलिया चम्पाकली को उसे बार-बार दिखाने की फुरसत होती है और न तो किरकिट के दीवान-ए-खास में इन्साफ की इस मुकद्दस तराजू की कसम खाने का वक्त होता है।

अपनी चैनलिया चम्पाकली रोज किसी गरीब की झोपड़ी को उजाड़ कर किसी दबंग द्वारा पंच सितारा होटल तामीर कराने को देखती सुनती है। रोज परीक्षा हाल के बाहर किसी आधुनिक एकलव्य के तमाचे को तंमचा बनाकर किसी मार्डन द्रोणाचार्य के सीने से सटाते देखती है या किसी माननीय को मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर भ्रष्ट से भ्रष्ट आचरण करते पाया जाता है। चम्पाकली जोर का झटका धीरे से देकर चुप्पी साध लेती है। बार-बार चैनलिया चम्पाकली वो सब दिखाने के बजाए राखी सांवत और मल्लिका शेरावत का बाइसकोप दिखाना ज्यादा पसन्द आता है। बात धरी की धरी रह जाती है क्योंकि वहाँ ग्लैमर तो होता नहीं। ज्यादा से ज्यादा शस्स्स्स... कोई हैया क्राइम टाइम से लेकर भोंडी कॉमेडी दिखा कर बड़े लोगों द्वारा किए गये क्राइम पर चुपके से पर्दा डालने की कोशिश होती है। रही बात भज्जी की धज्जी उड़ाने की खबर तो उसमें ग्लैमरस रस टपकता है। बात देश-विदेश तक पहुँचती है। चैनलिया चम्पाकली खबरों के खैबर दर्रे में पहुँचने वाली नम्बर वन बन जाती है।

फैसला इतनी जल्दी। फैसला करने के पहले बिना चपत, चाँटा, तमाचा, लप्पड़ और झापड़ में भेद किये या बारीकी समझे संतू के आँसू को अंगारे बना दिया। भज्जी भाई के तमाचे को तमंचा घोषित कर दिया। काश फैसले की यही जल्दबाजी किसी सिपहिया के रिक्शेवाले को लप्पड़ थप्पड़ मारने पर किया जाता। सरकारी सम्पति पर किसी दबंग द्वारा चूना लगाने पर किया जाता तो किसी को काहे का रोना होता। खेल न हुआ रेल के डिब्बे में पड़ी डकैती हो गयी। वहाँ भी मुआवजे का सब्जबाग देख कर फैसले का इन्तज़ार करना होता है।

अपनी तो दिली तमन्ना है कि भज्जी और संतू भय्या अपने बचपन के दिन भुला न दें। समझ बैठे कि रैगिंगजो सरकारी कन्ट्रोल से बाहर है के अन्तर्गत एक सीनियर ने अपने जूनियर को धीरे से एक चपत जड़ दी। अब बड़ों को चैनलिया चम्पाकली की बात में न आकर दोनों को स्पोर्टस मैनस्प्रिट का पाठ पढ़ावे जिससे दुनिया में दोनों ढोल-बाजे ढम-ढम गाते रहें और अपनी कामयाबी का परचम लहराते रहें। किरकिट मैय्या के सामने धा धिरकिट धिन्ना धाकी थाप पर नाचते कूदते रहें।