गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

भारत में फिरंगी महल

इन दिनों अपने को निखालिस भारतवंशी की तख्ती लटकाए लोगों ने कहा है कि भारत को भारत रहने दो। इसे इण्डिया मत कहो। माना कि सबका दिमाग अपने-अपने ढंग से सोचता है इसलिए उनकी बात पर अपुन को कोई आब्जेक्शन नहीं है। मगर यही बात अगर गांधी, विनोबा, लोहिया, और हेगड़ेवार के दौर में कही जाती तो यह दिल तहेदिल से स्वीकार कर लेता। अब तो यह सब कुछ उलट-पलट गया है। जबसे यूरिया वगैरह खादों से फसलें उगाई जा रही हैं तब से जायका ही बदल गया है। अब इसी तरह भारत कहने में वह मज़ा नहीं रहा जो इण्डिया कहने में।

प्रश्न उठता है कि ज़ुबान आपकी है कुछ भी बकते रहिए। सोचने वाली किधर से भारतीयता नज़र आ रही है? गुड़-पानी कि जगह बोतल में भरे नीले-पीले पेय पदार्थों ने ले लिया है। खेत-खलिहानों की जगह मेट्रो सिटी कि नुमाइश चल रही है। जहां मुल्क के रहनुमा यानि माननीयों खादी की बादी में चहलकदमी करने के बजाए पैंट-सूट में पार्कों और फाइव स्टार होटलों के कमरा नंबर-840 में ताश के पत्ते फेंटते दिखाई देते हैं, उसे भारत कहने में मुझे तो शर्म आती है भाई। मैं ही नहीं, संसद और विधान मण्डलों की वे परम पवित्र दीवारें अपनी मूक भाषा में बोलती हैं जो कभी खादी के खाद्यान्न खाकर अपनी तंदुरुस्ती पर इतराया करती थी। अब वे भी बेचारी क्या करें? आज के दस्तूर के सामने उन्हें दण्डवत् होने पर मजबूर होना पड़ रहा है। हमने भी वह मशहूर गाना सुना है ‘मेरा जूता है जापानी, पैंट इंग्लिशतानी, सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’। फिर ऐसे ही लोग कन्फ्यूज़ कर देते हैं कि बोली-बानी और वेषभूषा का बड़ा असर पड़ता है।

अब किसी को अच्छा लगे या खराब। अपने मीर साहब बड़ी बेबाकी से कहते हैं भई, ‘मैं तो भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनता हूँ। लेकिन मैंने भी मीर साहब की तान को उतान करते हुए सुना दिया, ‘अमां क़िबला मीर साहब यह गाना अगर अपना लख्ते जिगर रमफेरवा और उसकी फसल काटती माई या ईंट-गारा ढोकर अपना पेट पालने वाले जुम्मन चचा गाते तो अच्छा लगता। उन्हें इस देश को भारत कहने का पूरा हक़ है पर उन्हें कतई नहीं जो फिरंगियों के चले जाने के बावजूद उनके फिरंगी महल में उन्हीं के बेड पर आराम फरमा रहे हैं।

हालांकि इस बात को अपने मीर साहब ने तहेदिल से तस्दीक कर लिया। बात आई गयी हो गयी। मीर साहब को मेरी बातों से कोई ठेस न पहुंची हो इसलिए बात साफ करते हुए मैंने ही अर्ज़ किया कि मीर साहब मैं किसी खास शहर में आबादी किसी फिरंगी महल मुहल्ले की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि आप भी देखते होंगे कि तरक्की के नाम पर पूरे का पूरा मुल्क फिरंगी महल बन गया है। सोचिए ज़रा कि लंदन के गोलमेज़ कॉन्फ्रेंस में गांधी जी भी सूट-बूट में जा सकते थे। स्वामी विवेकानंद से लेकर डॉ॰ लोहिया तक विदेशों में अंग्रेज़ी ठाट-बाट से जा सकते थे पर उन्हें पूरा ख्याल ज़ेहनी तौर से था कि “हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है। भारत का रहने वाला हूँ भारत का गीत सुनता हूँ”।

ताज्जुब तो यह है कि स्वदेशी के सोन चिरैया को पालन करने वाले भी अपनी संस्कृति कि हंसी उड़ाते हुए सिर्फ साल में एक दिन 14 सितम्बर को हिन्दी कि बिंदी चमकाने के लिए ऊपर वालों के आदेश का पालन करके खानापूरी करने का जुगाड़ लगाते हैं। नाम राजभाषा और राष्ट्रभाषा देकर नौलक्खा हार पहना कर अपने हिन्दी प्रेम का प्रदर्शन करते नहीं अघाते हैं। भाई मीर साहब “खुशबू आ नहीं सकती है कागज़ के फूलों से”। कागज़ का ज़माना है अप्रिश्येट करना चाहिए कि एक विदेशी होकर भारतीय संस्कृति और भाषा में अपने वजूद को मिटा दिया मगर एक हम हैं कि सिर्फ कागज़ की नाव चलाने में एहसान लाद रहें हैं।

बात तो बहस कि है मगर बहस उनसे करना चाहिए जो किसी निर्णय को माने। अब यही नमूना देखने लायक है कि मुम्बई जहां बाल ठाकरे और राज ठाकरे की तरह लोग अपने ही देश की आन के लिए पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की खिलाफत और हिन्दी भाषी लोगों के खिलाफ बगावत के लिए आग उगल रहे हैं पर उधर उन्होने कभी झांक कर नहीं देखा जिसे मुम्बई के गले का हार यानि बॉलीवुड कहा जाता है। अपुन ने उसे फिरंगी महल का नाम दिया है जहां सिर्फ फिरंगियों कि भाषा का बोलबाला है। हॉलीवुड के नाम बॉलीवुड कहा जाता है। एक वह भी ज़माना के॰एल॰सहगल, देविका रानी और दिलीप कुमार का था जब हिन्दी में बातें होती थीं। कहा भी गया था कि यह भारतीय फिल्म उद्योग है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए जाना जाता था किन्तु बॉलीवुड के बाद अंग्रेज़ तो चले गए लेकिन फिरंगी महल छोड़ गए। उसी फिरंगी महल में तरह-तरह के खेल दिखाने वाले किसी मंच पर फिरंगियों की भाषा बोलने में अपनी शान समझते हैं। कुछ को छोड़ कर बाकी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों को क्या कहें? इस ओर क्यों नहीं मराठी आलम्बरदारों का ध्यान जाता। यह नहीं सुना है कि कुछ अंग्रेज़दॉ लोगों के डायलॉग रोमन भाषा में लिखे जाते हैं और फिल्मों के नाम भी अब अंग्रेज़ी में रखे जा रहे हैं। बनाई जाती हैं फिल्में हिन्दी में मगर लोकेशन होता है ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्रांस और मरीशस का।

वैसे मुझे किसी भाषा से कोई बैर नहीं है पर अपनापन कहाँ गया? अपनी संस्कृति और भाषा कहाँ है? क्या वे किसी फिरंगी महल को आज भी अपना आशियाना बनाए हुए हैं। जब वे भी इस अजीमुश्शान मुल्क के एक हिस्से हैं तो क्यों भूल रहे अपनी भाषा और संस्कार। इस मामले में आशुतोष राणा, नाना पाटेकर जैसे कुछ लोग साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने हिन्दी को वास्तव में अपनी ज़िंदगी का एक अहम् हिस्सा बना कर रखे हुए हैं।

आश्चर्य तो यह है की अपनी सरकार भी सब कुछ जान समझ कर चुप बैठकर उन्हें पुरस्कृत कर रही है।

(नोट: (01/04/2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)