शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

आली जनाबों की बल्ले-बल्ले

अपनी अधखुली पलके, मायाजाल को चीरते हुए जब अपने सूबे के आली जनाबों को बल्ले-बल्ले करते देखती हैं तो भूल गया अपने पड़ोसी रमफेरवा, जुम्मन चाचा और फुलमतिया की झाड़ू-बहारू करती माई को। बेचारों ने कितनी बार अपने खाते-पीते मालिकों से दरमाहा बढ़ाने के लिए हाथ-पैर जोड़े लेकिन उनके दिल नहीं पसीजे। फिर भैया पसीजे भी कैसे? ठंडक जो पड़ रही है। इसी ठंडक के सुहाने मौसम में दो पैग गले से नीचे लुढ़काते हुए किसी ने तो फुलमतिया बेसहारा माई से डपट कर कहा ‘अब अगर दरमाहा बढ़ाने का फिर नाम लिया तो समझ लो तुम्हीं को लुढ़का देंगें। काम करना है तो कर वरना अपना रास्ता पकड़ मगर फुलमतिया पर तो तरस खा।‘


अपने दायरे में रहने की तो मैं हमेशा कोशिश करता हूँ लेकिन कमबख्त इस नश्वर शरीर के भीतर धड़कता एक अदद दिल है,जो मानता नहीं। आली जनाबों की बल्ले-बल्ले और वेतन-भत्तों की बढ़ोत्तरी के नाम पर सत्ताधारी और विपक्ष वाले अबीर गुलाल उड़ाते हुए गले मिल रहे हैं। उधर एक विश्वविद्यालय वाले काबिल गुरूजी लोग ठूंठे पेड़ो के नीचे हफ़्तों से भूखों रहकर कफन का जुगाड़ कर रहे हैं क्योंकि राशन वाले की झिड़की दूध वाले की पैंतरे बाज़ी और दूसरे लोगों की फ़ज़ियत से कोई दूसरा चारा भी बाकी नहीं रह गया है इनडाइरेक्ट में वहाँ से हुक्मराम अपनी चरमराती चेयर पर उसी तरह झिड़क रहे हैं जैसे की रमफेरवा, जुम्मन चाचा और फुलमतिया की माई को झिड़का जाता रहा है।

पुराने घिसे-पिचके पनडब्बे से दो सूखी गिलोरयां मुँह में रखते हुए मीर साहब ने ताज़े अख़बार की पुरानी खबर पढ़ते हुए बताया ‘अमां सुना नहीं? अपने सूबे के आली जनाबों (माननीयों) के दरमाहों और भत्तो में ऐसी गोट फिट कर दी गयी है की अब कोई महंगाई की महारानी को कोसने की हिम्मत नहीं कर सकता है। देखो न सब मिलकर जश्न मना रहे हैं। अमां आज डॉ॰ राजेंदर प्रसाद और डॉ॰ राधा कृष्णनन बहुत याद आ रहे हैं जो मुल्क के गरीब गुरबों की भूख महसूस करते हुए बस उतना ही दरमाहा लेना कबूल करते थे जिसमें आम आदमी की तरह दाल रोटी चल सके। मीर साहब की बात पर मैं तिलमिला उठा। कहने लगा भाई मीर साहब आप किस ज़माने का पुराना रिकॉर्ड बजा रहे हैं। वह जनसेवा का ज़माना था और आज अपनी और अपने भाई-भतीजों की सेवा का ज़माना है। मैं कहता हूँ की उनके लिए भी तो महंगाई है। यह अलग बात है की महंगाई उन्होने ही बढ़ाने के लिए शतरंजी बिसात बिछाई और उन्होने ही उस पर ऐसी चाल चली कि दूसरे मात खा गए।

इस गुफ्तगूं के बाद अपने दायरे में सिमट कर सोचने लगता हूँ कि उनको तो पहले से ही मिलता रहा है कि महंगी के बहंगी में हो के सवार गाते रहे, ‘चलो दिलदार चलें... मगर रमफेरवा, फुलमतिया और जुम्मन चाचा से सुपर समझने वाले के लिए तो स्टैण्डर्ड ऊँचा करने आवश्यकता आवश्यक हो जाना जरूरी है भाड़ में जाये रिक्शेवाले,ईंट-गारे ढोने वाले वगैरह-वगैरह। एक बात और मजेदार है कि छठे वेतन पाने के लिए लोगों ने नाक रगड़ डाली, लाठी-डंडे कि मार सही पर कुछ किलियर नहीं हो सका। केंद्र कर्मियों के बहुत हो-हल्ला मचाने के बाद एक आयोग बनाया गया। दो तीन साल लग गए नतीजा आने में,तब से जितना मिला नहीं उससे चौगुना मंहगाई ने पाँव पसार दिए लेकिन सुनने वाला कोई अगर बढ़ने कि कोशिश भी करता तो उसे चुप कराने के लिए रातों-रात अल्लादीन का चिराग का ऐसा घिसा गया कि चिराग का देव हाज़िर होकर पूछ बैठा 'हुक्म दो मेरे आका।’ आका ने आली जनाबों के लिए कारून के खज़ाने का मुँह खोलने का हुक्म दे दिया। उनके लिए हमारा ही पेट काटकर कारुन का खज़ाना बनाया गया। आलीशान पार्क और खूबसूरत मुजिस्समें गढ़े गए मगर हुक्म की तामील करते हुए उनकी झोली में दोनों हाथों से उड़ेल दिया गया और रट लगाई जाती रही कि हम तो पब्लिक के पैरोकार हैं। उनका पेट भरना हमारा पहला फर्ज़ है।

अब न तो कोई चमन उजड़ेगा और न किसी का जहाँ बरबाद होगा। यानी सब ज़ुबानी जमा ख़र्च। ख़र्च तो उन्हें अपना देखना है जबकि बस से लेकर उड़नखटोला तक से यात्रा मुफ्त। टेलीफोन मुफ्त। नाश्ता-खाना मुफ्त। इन सबके बावजूद चिंता किसी आयोग द्वारा विचार किए वेतन भत्तों में गज़ब का इज़ाफ़ा। शान-शौकत का सबूत उनके पीछे बजते हूटर। आली जनाबों की यह है गरीबी तो फिर रमफेरवा जैसों को क्या कहा जाएगा? आज ऐसे ही जनसेवा की छाँव में जम्हूरियत हाई जम्प करते हुए मुस्कुराहट बिखेर रही है और कह रही है कि पहले खुद खा कर डकार लो फिर दूसरों का पिचका हुआ पेट निहारो। गांधी, विनोबा, धीरेंद्र भाई और लोहिया के देश में ऐसे जनसेवियों के क्या कहने? लेकिन भाई सोचना पड़ता है कि...‘जीना यहाँ, मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ?’ सबसे अच्छी बात तो यह है की सब दुगुनी बनाने के चक्कर में हैं क्योंकि आखिर आली जनाबों का मुल्क है। वे किसी से पीछे क्यों रहे?

(नोट: 13/02/2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)
'आली जनाबों की बल्ले-बल्ले' - यहाँ से pdf फ़ाइल में डाउनलोड करिए।