बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

जम्बूरे का तमाशा

उस्ताद।" "अबे, अभी तो तू कालीदास मार्ग तक भला चंगा था। यहां तेरी तबीयत को अचानक क्या हो गया?" "जम्बूरे।" "उस्ताद, तबियत बिल्कुल चकाचक है। असल में विधान सभा की तरफ से आती हुई ठण्डी हवा ने तबियत मस्त कर दिया है। उस्ताद कसम से यह चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त।" "अबे वो सब तो ठीक है मगर इत्ता पुराना...? "उस्ताद, मुझे पुराने गाने, पुरानी चीज़े जैसे पुरानी चढ्ठी पुरानी बनियाइने, पुरानी चप्पलें वगैरह बहुत पसंद हैं।" "अबे फिर कबाड़ी क्यों नहीं बन जाता?" "उस्ताद, कई बार सोचा तो मगर वहाँ भी बड़े-बड़े लोगों ने अड्डे जमा लिए हैं। फिर उस्ताद वहाँ भी वे सब पुरानी  चीजें कहाँ बिकती हैं। अब तो वहाँ कट्टा, बंदूके, गोले-बारूद खरीदे-बेचे जाते हैं। ‘जम्बूरे।’ ‘हाँ उस्ताद।’ ‘जो मांग होगी वही तो बिकेगा? अब तू गांधी छाप पुरानी ऐनक, चप्पल और खद्दर वगैरह ढूंढगा तो कहां मिलेगा? नक्खास भी अब वह नक्खास नहीं रहा बेटा।’ ‘उस्ताद कसम हाट शॉट डॉट कॉम की मुझे इस कैपिटल से बहुत लगाव है।’ ‘अबे इसी पुराने सिनेमा कैपिटल से?’ ‘हाँ उस्ताद बित्तीभर का था। दादा मरहूम कांधे पर बैठा कर यहां अंग्रेजी फिलिम दिखाने लाते थे। कसम से क्या जलवा था इसका?’ ‘बेटा जम्बूरे अब तो इसमें गरमागरम ख़ुदा के वास्ते फ्री का नाम मत लो। इसी सड़क पर कभी फ्री साड़ियां बांटी गई थी। मेरी अम्मी भी आई थीं। साड़ी के चक्कर में उस्ताद अम्मी जान पसलियां तुड़वा बैठी। अभी तक बिस्तर पर पड़ी है। इसी तरह एक बार रैली के बहाने लखनऊ घूमने के चक्कर में बरेली से आए अपने खालूजान प्लेटफारम पर भगदड़ में ऐसे गिरे कि उठने को कौन कहे सीधे अल्लाह को प्यारे हो गए। अब तो फ्री नाम से रूह कांप उठती हैं उस्ताद।’ ‘बेटा जम्बूरे अपना मुलुक भी तो फ्री है।’ बेशक है उस्ताद। मगर हालात क्या हैं यह तो देख ही रहे हो। उस्ताद एक बात कहूँ।बोल बेटा जम्बूरे़।फ्री के नाम पर अब तो गाने को जी चाहता है कि मैने चॉद-सितारों की तमन्ना की थी पर मुझे रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला। बेटा जम्बूरे, यार मुझे  माफ करदे। मैनें नाहक तेरे जख्मों को हरा कर दिया। उस्ताद कित्ती माफी माँगेगा। अरे एक माफी के कम से कम पाँच साल तो पूरे हो जाने दो। यहाँ तो समझ बैठे हैं कि रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा, कभी डगमगाई कश्ती कभी खो गया किनारा। वाह जम्बूरे,जवाब नहीं तेरा। अच्छा ग़म भुलाने के लिये चलो विधानसभा के सामने तमाशा दिखाते हैं। वहाँ देखनेवालों का अच्छा-खासा मजमा लगेगा।

एक बात बोलू उस्ताद। अबे एक कम सौ बात बोल जम्बूरे। यही तो सबसे फसकिलास बात है अपने मुलुक में बेटा कि बोलने की दिल खोलकर आजा़दी है। बेटा निकाल डाल तू भी अपने दिल की भड़ास। बोल बेटा जम्बूरे ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा। उस्ताद, मुझे लगता है कि तेरी पैदाइश कहीं जरूर किसी ए.सी. रूम में हुई होगी। क्यों आखिर ऐसी कौन सी खास बात देखी तूने मुझमें। बात तो कोई खास है नहीं लेकिन इस वक्त तूने बिल्कुल फैसला लिया है ए.सी. में रहने वालों की तरह। अरे अपनी प्यारी धरती से जुड़.कर कोई फैसला लेना सीखो।

अबे आखिर बात क्या हो गयी। कुछ नहीं। बात दरहअस्ल मे यह है कि वहाँ तो उस्ताद भीतर बाहर हमेशा एक से बढ़कर एक तमाशा हुआ करते हैं, अपने  पुराने घिसे-पिटे तमाशे में भला किसे मज़ा आयेगा उस्ताद। यक़ीन मानो मालिक अपना झोला-झंखड़ देखते ही फौरन पुलिसवाले मुँह में बीड़ी और हांथ में पुरानी टुटही साइकिल थमा कर आतंकवाद के नाम पर रैट टैम भीतर कर देंगे। कसम खुदा की उस्ताद  छः महीने तक ज़मानत नहीं होगी।  न बाबा न अपुन तो उधर कतई नहीं जाने का उस्ताद। बेटा जम्बूरे, अबे खुदाकसम मैंने तो इतनी दूर की सोचा तक नहीं था। तूने क्या तेलियामसान की खोपड़ी पायी है।

अच्छा जम्बूरे मेरी एक बात मानेगा। कहेगा भी सही। चल बेटा यहीं अपने कैपिटल के सामने मजमा लगाते है। शाम का वक्त है। बाबू लोग घर वापस जाने वाले होंगे। इत्मीनान के साथ हमलोगों के तमाशे का मज़ा लेंगे। कसम से जम्बूरे अबतो दिल खोलकर गाने को जी चाह रहा है  नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा। अमाँ सबसे मज़े की बात तो यह है कि इस वक्त चैनलवाले घूम रहे होंगे। कौन जाने अपने लोगो का तमाशा देखकर अपनी फटेहाल ज़िन्दगी पर कोई स्टोरी गढ़ कर अपने कैमरे में क़ैद कर डालें।

"एक बात पूछूँ उस्ताद। अबे एक सौ एक बात पूछ। आज मैं बहुत खुश हूँ।"

उस्ताद जब अल्लाहमियाँ के काउन्टर से अक्ल  बाँटी जा रही थी तो तू शायद लैन में काफी पीछे रह गया होगा इसीलिये तेरे काउण्टर तक पहुँचते-पहुँचते अक्ल की बुकिंग खत्म होगई रही होगी। शायद यही वजह है कि उस्ताद तू हमेशा बेअक्ल की बात बोलता है।

"अबे जम्बूरे वह कैसे। हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ।"

"मेरे आला काबिल उस्ताद बुरा मान गये। अरे मेरे बाप समझता क्यों नही कि आजकल अपने बाबू लोग दफ्तर भले देर से पँहुचे क्योंकि वहाँ देर से पँहुचने के हज़ार बहाने बनाये जा सकते हैं जिन्हे हाकिम-हुक्काम को भी मानना पड़ता है इसलिये कि वे बेचारे खुद ही देर से अपने आफिस पहुँचते हैं। मगर बाबू लोगों को देर से घर पहुँचने पर अपनी तेज-तर्रार बीवियों को एक हज़ार एक कैफियत देनी पड़ती है।

"अबे बात कुछ समझ में नहीं आई, जम्बूरे।"

"इसलिये कि उन्हे ब्युटीपार्लर और बिगबाजार जाने की जल्दी होती है उस्ताद। अब रही बात चैनलवालों की बात तो वे अपना ढँढ-कमन्डल लिये हम जैसे फटीचरों को लिफ्ट क्यों देने लगे। "बेटा जम्बूरे,यार तेरी बात अपनी तो एकदम समझ में नहीं आती है। जो कहना है साफ-साफ कह।" "उस्ताद सीधी सी बात है कि चैनलवाले सबसे पहले भैंसाकुण्ड यानी बैकुण्ठधाम पर पँहुचकर कैमरा फिट करके देखेंगे कि कौन सा मुर्दा चिता पर लिटाते ही उठ कर बैठ जाता है और लगता है बताने कि अबकी इलेक्शन में कौनसी पार्टी का बहुमत होगा। बस दिनभर वही स्टोरी चलती रहेगी। समझे उस्ताद, कुछ नहीं समझे होगे क्योंकि जब हम नही समझे तो तुम क्या समझोगे।

 बेटा जम्बूरे बातें तू ऐसी कर रहा है जैसे बहुत दिनों  तक दूर के दर्शन को बहुत नजदीक से देखता रहा है। उस्ताद बारात किया तो नहीं है लेकिन देखा जरूर है। आज वही तर्जुबा काम आ रहा है। इसके बाद उनका कैमरा किसी खँडहर में किसी अधनंगी लाश या किरकिट-मैच में धिरकिट-धा बजाने वालों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। अब समझने वाली बात यह है कि उन सब स्टोरियो के आगे अपने खबीस से चेहरों की  स्टोरी लोगो को क्या पसन्द आयेगी, जो पापी पेट के लिए तमाशा दिखाते भी हैं और तमाशा बनते भी हैं। उस्ताद, वह सब ख्वाब देखना भूल जाओ। अपनी औकात यही समझ लो कि  पार्टीवालों को लोग इलेक्शन के लिये खूब खुशी-खुशी हज़ारो का चन्दा दे देते हैं मगर हमारा तमाशा देखकर रूपये दो रूपये देने से कन्नी कटा कर किसी पतली गली से फूट लेते हैं। उस्ताद जरा समझने की कोशिश करो कि न तो हमलोग नेता हैं और न अभिनेता। उन सब के तमाशे के आगे अपना तमाशा कौन देखना चाहेगा।

बेटा जम्बूरे फिर अपनी दो जून की दाल-रोटी का इन्तज़ाम कैसे होगा। दिन पर दिन बढ़ती मँहगाई ने तो अ च्छे-अच्छों की कमर तोड़ दी है।  देख उस्ताद सबकुछ बोल मगर मँहगाई का रोना मत  रोया कर। अपनी सरकार बहुत दुखी हो जाती है। भला कभी तो सोचा होता कि इस वक्त अपनी सरकार बेचारी अमरीका से आतंकवादियों के चक्कर में सांस नीचे ऊपर कर रही है। ऐसे में भला मँहगाई  सुहाती है। उस्ताद तुम्ही बताओ कि कनाटप्लेस में भला झूमरीतिलैया का काजल कोई लगाना पसन्द करेगा।

अबे जम्बूरे जवाब नही। क्या जोड़ मिलाया है। कहाँ कनाटप्लेस और कहाँ झूमरीतिलैया।

उस्ताद हमलोगों को अपनी खुशकिस्मती समझना चाहिये कि हमलोगों को घर बैठे मँहगे लहँगे में मँहगे डान्स देखने को मिल रहे हैं। चुप क्यों हो गये उस्ताद। कोई बेजा बात कह दी क्या।

नहीं जम्बूरे, सोचता हूँ तू कहाँ किस धन्धे में फँस गया। तुझे तो उस्ताद होना चाहिये था या कहीं नेता। उस्ताद तू सोचता क्यों नहीं कि आजकल अफसर से ज्यादा रूतबा अर्दली का होता है। मैं जम्बूरा ही ठीक हूँ। मैं दलबदलू नहीं हूँ। यह नहीं कि आज एक उस्ताद के इशारे पर तमाशा दिखाता फिरूँ और कल दूसरे उस्ताद के पीछे भागता फिरूँ। देख उस्ताद मैं जम्बूरा हूँ, मुझे जम्बूरा ही रहने दे। इसी में मैं खुश हूँ। मैं उनमें से नहीं हूँ कि बड़े-बड़े धन्नासेठ-टाइप उस्तादों की डुगडुगी पर पब्लिक को तमाशा दिखाता रहूँ। कसम ख़ुदा की तू भले ही फटेहाल उस्ताद है मगर है तो मेरा उस्ताद। दिल दिया है जाँ भी देंगे ऐ उस्ताद तेरे लिये। तुम उस्तादों के उस्ताद बन सकते हो मगर मेरी किस्मत में तो जम्बूरा बनकर ही खेल दिखाना बदा है। तू भले मुझ पर मैली चादर डालकर चाकू चमकाते हुये पब्लिक के सामने मुझे मारने के लिये चिल्लाता रहेगा मगर मैं आखिरी साँस तक उस्ताद-उस्ताद पुकारता रहूँगा। तुम शायद हमेशा की तरह मेरी पुकार अनसुनी करके मजमे से कहते रहोगेमेहरबान कदरदान, पापी पेट का सवाल है।