कुछ यादगार लम्हें

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यादें भी क्या चीज़ हैं। यादों के झरोखों से जब मैं अतीत की उभरी तस्वीर देखता हूँ तो उनमें बेइन्तहा खो सा जाता हूँ । उनमें मुझे कभी खुशी कभी गम का एहसास होता हैं सब कुछ होते हुये भी मैं अपने अतीत के अनुभवों को बांटने के लिए बेकरार हो रहा हूँ। इसलिए नहीं कि मैं अपने मुँह मियां मिट्ठू बनना चाहता हूँ या कोई शेखी बघारना चाहता हूँ कि लोग मेरे व्यक्तित्व की प्रशंसा करें। उन यादगार लम्हों की दास्ताँ सुनाने के लिए इसलिए आतुर हूँ कि शायद उनसे कुछ ऐसा निष्कर्ष निकले जिससे मेरे मित्रों को जीने कि नई राह मिले।
      विश्वा नहीं होगा मुझे बचपन से ही रेडियो सुनने का बड़ा शौक था क्योंकि उस ज़माने में बुद्धू-बक्सा (टी.वी.) तो था नहीं। रेडियो सुनता था वह भी सिर्फ समाचार या हर बुधवार कि शाम कोअमीन सयानी की लहरदार आवाज़ मेंबिनाका गीतमाला। सुनते हुए सोचता था कि काश मेरी भी आवाज़ में ऐसा जादू होता। विशेष कर समाचार वाचक की एक-एक पंक्ति और शब्दों के उच्चारण पर खूब ध्यान देता था। हालाँकि मुझे देखकर लोग हँसा करते थे लेकिन मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ की शायद मेरे शिक्षकगण भी मेरा उच्चारण और बोलने के ढंग को उस प्रकार शुद्ध नहीं करा सकते थे जैसा कि रेडियो सुन कर मैंने सीखा। मैं आज भी उस जमाने के रेडियो कार्यक्रमों का बहुत एहसान मन्द हूँ कि मुझे बोलने का सलीका आया। तभी से मेरी अभिरूचि रंगमंच की ओर बढ़ी और मैं बड़ी बोल तो नहीं बोलता किन्तु कॉलेज लाइफ में जब सबसे पहले मैं एक नाटक में उतरा तो मेरे क्टिंग की उतनी तारीफ नहीं हुई मगर मेरी डायलॉग डिलीवरी की प्रशंसा जरूर की गयी। यहाँ मुझे एक शिक्षा जरूर मिली इन्सान को यदि सीखने की सच्ची लगन हो तो वह उचित माध्यम से सीख सकता हैं।
      इस तरह क्लासरूम से बाहर की शिक्षा और स्टेजफ्री होने का लाभ मुझे अपनी रेलसेवा के साक्षात्कार में मिला। वह भी एक यादगार लम्हा कभी भूलने लायक नहीं हैं। कोलकाता स्थित रेलवे मुख्यालय में शिक्षक पद के लिए मेरा इण्टरव्यू होना था। विषय के अतिरिक्त बोर्ड में बैठे तीनों सदस्यों ने मुझे मेरी अभिरुचि के अनुसार प्रश्न पूछने शुरू किये। एक सीनियर सदस्य ने मेरे संलग्न प्रमाणपत्रों को देखकर मुझसे पूछा कि लगता है आपको नाटक और फिल्मों का बहुत शौक हैं? मेरे हाँ करते ही उन्होने पूछा कि कौन सी फिल्म आप को बहुत अच्छी लगी? मैंने फौरन दिलीपकुमार और सुचित्रासेन अभिनीत फिल्मदेवदासबता दिया। फिर उन्होनेदेवदासफिल्म का कोई डायलॉग सुनाने को कहा। कुछ देर मैं सोचता रहा कि कहीं शिक्षकपद के नाम पर मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रहे हैं। फिर वहाँ सीनियर सदस्य ने कहा कि समझ लीजिये हमलोग दर्शक हैं और आप एक ऐक्टर। मुझे खुद हैरत हुईं कि न जाने कि किस शक्ति की प्रेरणा से मैंने उनके सामने पानी से भरे गिलास उठा कर दिलीपकुमार वाला संवाद- कौन कमबख्त कहता है?... कि मैं बरदाश्त करने के लिए पीता हूँ­...’। डायलॉग खत्म होते ही उनकी तालियाँ बज उठीं। लेकिन उनके प्रश्न ने मुझे कुछ देर के लिए असमंजस मेँ डाल दिया। उन्होने कहा कि तब तो आप गलत जगह आ गए। आप को तो फिल्म लाइन में जाना चाहिए। मैं समझता हूँ उत्तर देने के लिए उस समय मेरे पास स्वयं सरस्वती विराजमान थी। मैंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया कि एक शिक्षक को भी एक एक्टर कि तरह क्लास में पढ़ाना चाहिए जिससे बच्चे सीखने के लिए अधिक रुचि लेगें। इसका एक कारण और था। बी.एड. में सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री आचार्य सीताराम चतुर्वेदी’ के पढ़ाने की कला से मैं काफी प्रभावित हुआ था। इण्टरव्यू देने के बाद जब मैं बाहर निकला तो दूसरे अभ्यर्थियों ने स्वभावतः पूछने लगे की अंदर क्या-क्या हुआ? मैंने सब कुछ बयान कर दिया। आशा और निराशा के बीच झूलता रहा। कुछ-कुछ उम्मीद थी और बहुत कुछ नाउम्मीदी। लगभग एक वर्ष बाद जब नियुक्ति पत्र डाक द्वारा प्राप्त हुआ तो खुशी का ठिकाना न रहा।
      पूरे इंटरव्यू के दृश्य और नियुक्ति की बेनाह खुशी ने मुझे इस नतीजे पर पहुँचाया कि जैसे एक अभिनेता या अभिनेत्री को स्टेजफ्री होने, बॉडी लैंग्वेज और संवाद बोलते समय स्पष्टवादिता एवं शुद्ध-शुद्ध उच्चारण का ध्यान रखना पड़ता है, बिल्कुल एक सफल शिक्षक को छात्र-छात्राओं के बीच भी वही ध्यान रखना होता है। तभी शिक्षणरूपी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट हो सकती है। क्लास मे बैठकर पढ़ाने वाले शिक्षक मेरे विचार से उतना प्रभाव नहीं जमा सकते हैं।
     मेरी यादों का यह एक न भूलने वाला लम्हा है। जिसे मैं आज आप सब से बांटना चाहता हूँ।