सोमवार, 8 दिसंबर 2008

आखिर क्या चाहते हैं आतंकवादी?

मैं आज तक नहीं समझ सका हूँ कि सरेराह चलते-चलते आतंकवादी चाहते क्या है। वे किस अनजानी मंजिल की तलाश में अल्लाह के बन्दों को बेवक्त मल्कुन मौत को बतौर तोहफा दे रहे हैं। क्या उन्हे नही मालुम कि हश्र के दिन जब उनसे अल्लाह ताला उनके नापाक इरादों के बारे में पूछेगा तो वे क्या जवाब देंगे।
यूँ तो आतंकवाद का खौफ कोई नया नहीं है पर इसके मुखौटे बदलते रहे हैं। पौराणिक युग में आतंकवाद का पर्याय राक्षसवाद माना जाता था। उस धार्मिक-युग में उन ऱाक्षसी प्रवृति वाले आतंकवादियों का काम साधु-सन्तों तथा धार्मिक लोगों के अनुष्ठानों में विघ्न डालकर भयभीत करना हुआ करता था। इस्लाम भी इससे अछूता नहीं रहा। दीने-इस्लाम का प्रचार जब शुरू हुआ आतंकवादियों ने ही पैगम्बरे-इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब को मक्के से मदीना जाने पर मज़बूर किया था। आतंकवाद की एक और मिसाल करबला के मैदान में देखने को मिलती है जहाँ हसन और हुसैन को सपरिवार तड़पा-तड़पा कर मारा गया। ईसामसीह और उनके चाहनेवालों को किसने सूली पर लटकाया। वहाँ भी किसी न किसी रूप में आतंकवादी प्रवृत्ति का आभास मिलता है। उस समय भी आतंकवाद के उन विभिन्न रूपों से आतंकित लोगो ने उसे जड़ से मिटाने की जी तोड़ कोशिश की थी मगर प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हुआ। शायद ऐसी ही राक्षसी प्रवृत्ति वाले आतंकवाद को समूल रूप से नष्ट करने के लिये देवासुर संग्राम हुआ था और दावा किया गया था कि पृथ्वी को आतंकवाद से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया।
आज जब दुनिया सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर उड़ान भर रही है, हर कोई इन्सानियत की माला जपते दिखाई दे रहा है और पिछले विश्वयुद्धों की तबाही-बरबादी से द्रवित होकर विश्व-बन्धुत्व को जीवन से जोड़ने का भगीरथ प्रयास करने में जुटा दिखाई दे रहा है तो फिर सबके बावजूद आतंकवाद की बेहयायी कंटीली झाड़ियाँ क्यों सरसब्ज होरही हैं। कौन इनमें खाद-पानी दे रहा है। आदम की औलादों में इतना अन्तर क्यों। आखिर आतंकवाद की नापाक राहों पर क़दम बढ़ाते लोगों का मक़सद क्या है। मुझे तो ऐसा लगता है कि जरूर इसमें किसी ऐसी महाशक्ति का हाथ हो सकता है जो बैकडोर से भाई को भाई से और पड़ोसी को पड़ोसी से मिलकर रहने नहीं देना चाहता है। शायद वही बात कि चोर से कहे चोरी करो और साह से कहे जागते रहो। इस खतरनाक मुद्दे पर दुनिया भर के इन्सानियत-प्रिय लोगों को खुले मन से बहस करना चाहिये क्योंकि जैसे आज हमे मुम्बई पर आंसू बहाना पड़ रहा है, हो सकता है कि कल कँराची, दुबई, पेचिंग या मारीशस की आबाद सड़कों पर तड़पती लाशों पर मातम न करना पड़े। अन्त में गहन मन्थन के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि मरदूद आतंकवादी अपने आँका शैतान के हाथों मे खेलते हुये इन्सानियत को खत्म करके बीरान-बंजर ज़मीन पर हुकूमत करने का ख्वाब देख रहे हैं। मगर कबीर की उस बानी को हमेशा याद रखना चाहिये कि मुआ खाल की सांस से लौह भस्म होय जाय।