गुरुवार, 13 मार्च 2008

भैया, काहे का बिलखना...

अपने लख्ते जिगर रमफेरवा की माई को इन दिनों किरकिट का भूत सवार है। जब देखो तब पड़ोसिन बुलाकन बुआ के घर में चिपकी रहती है। अबकी मायके से क्या लौटी एक बल्ला लेकर साथ आयी है। जब सुनिए तब बस धोनी, सचिन की माला जपा करती है। अपने को तो गुल्ली-डण्डा भी ठीक से खेलना नहीं आता पर अपने रमफेरवा की माई का हाल देखकर खुशी जरूर होती है कि सचमुच महिला सशक्तीकरण का युग सिर पर चढ़कर बोल रहा है। माई का यह हाल है। बेटवा यानि रमफेरवा बहिन और भाई जी के पीछे दीवाना बना दारुलशफ़ा में डेरा जमा कर बैठा है। भूख-प्यास को मारिए गोली। अगर मौके दर मौके कुछ कहता भी हूँ तो छक्का मार स्टाइल में जवाब देता है कि बापू अपने नेता लोग महान हैं। अभिनेताओं से कई किलोमीटर आगे हैं। यकीन करना बापू, जो काम ससुरे अंग्रेज़ नहीं कर सके, अपने नेताओं ने कर दिखाया है। वे तो फूट का बीज दो धर्मों के बीच उपजाऊ भूमि पर बोते रह गए, पर अपने पैदाइशी गरीब नेताओं ने जाति, धर्म और सम्प्रदायों के बीच छोटी-छोटी पड़ी जगहों में भी फूट और बेर के पेड़ उगाकर दिखा दिये। यही नहीं बापू, जमाने को फिर से उसी इतिहास की अंधेरी गुफा की तरफ ले जाने की कवायद में जुटे दिखाई दे रहे हैं जहां से कभी हम चले थे। है न आलाकमाल की बात? अब तो उत्तर-दक्षिण के बीच सोते विंध्याचल पर्वत को और ऊंचा करने में जुट गए हैं जो बेचारा कभी किसी मुनि जी से शापित होकर बैठ गया था। अपने जिगर के टुकड़े रमफेरवा की यह बात सुनकर मेरे माथे पर भी बल पड़ गया। सोचने लगा की अगर खुदा न खास्ता विंध्यपर्वत श्रेणियां यूं ही नेताओं की शह पर ऊंची उठती गयीं तो न समन्दर से उठने वाले मानसून उत्तर की तरफ बढ़ सकेगा और न गंगा-जमुनी तहज़ीब की सोंधी बयार दक्खिन के लोगों को खुशहाल बना सकेगीं। यह भी कहावत है कि सबै भूमि गोपाल कीसिर्फ किताबों के पन्नों तक सिमट कर रह जायेंगी।

अफसोस तो जरूर हो रहा है कि जो शिवजी और शिवा जी के वक़्त नहीं हुआ था आज हो रहा है। रमफेरवा ठीकै कहता है कि अपने नेताओं का करिश्मा महान है। मौका पड़ने पर अखण्ड भारत का नक्शा खींचने वाले भी वही हैं और खण्ड-खण्ड में बने स्टेज पर नुक्कड़ नाटक करने वाले भी वही हैं। सब सोचकर अपने लख्ते जिगर से इस महंगाई और बेरोजगारी के जमाने में उसकी पीठ ठोकते हुए कहता हूँ लगे रहो मुन्ना भाई। राम जी कुछ तो भला करेंगे।

अब अपने लख्तेजिगर की किरकिट प्रेमी माई को कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है क्योंकि वहाँ सोनिया जी चैनल पकड़े बैठी हैं और यहाँ माया जी की महामाया का चैनल अलग हड़कम्प मचाए हुए है। कुछ कहिए तो रमफेरवा की माई टका सा जवाब दे बैठती है। अब भी पड़े हो दाल-रोटी के चक्कर में? बस घिसा-पिटा कैसेट बजाया करते हो कि तेल, घी, गेहूं व दाल की महंगाई ने कमर तोड़ डाली है। अजी वह सब बीते ज़माने की बात हो गई है अब तो आने वाली लखटकिया कार, टीवी, फ्रीज को देखते रहे अपने आप पेट भर जाएगा। भला बताओ अपने आला काबिल वित्तमंत्री जी का क्या कहना है? रमफेरवा की माई की बात में दम दिखाई पड़ता है कि जब सब विकास की बुलंदी पर बढ़ रहे हैं तो महँगाई बढ़ने पर हो-हल्ला क्यों हैं रमफेरवा के बापू? फिर हम चाँद पर उतरने का जुगाड़ कर रहे हैं। वहाँ कहाँ तेल, साबुन और दाल-रोटी की ज़रूरत पड़ेगी? अपने लख्तेजिगर रमफेरवा की माई की दलील के आगे चुप रहना बेहतर समझा। किस्मत को कोसते हुए एक बड़े सेठ को गोदाम मे ठूंस-ठूंस कर बोरों को भरते हुए देख रहा हूँ और मेरी भूख के मारे आतें कुलबुला कर रोने पर मजबूर कर रही हैं लेकिन ये आँसू मोती बनने वाले भी तो नहीं है जो लोग लूट लें। यही सब सोचकर नहीं छेड़ता हूँ किसी को कि, चाहे वह टी॰वी देखकर भूख-प्यास भूल जाए या नेताओ की खुशियाँबरदारी में ज़िन्दगी गुज़ार दे। अलबत्ता अपने वित्तमंत्री जी की महानता पर साधुवाद देने को जी चाहता है लेकिन कोई उनकी प्लानिंग दाल-रोटी के आगे समझने को तैयार भी नहीं हो रहा है। आज अगर लोहिया, गांधी और विनोबा होते तो उन्हें भी आज वित्तमंत्री जी के बनियौटी स्कूल मे एडमीशन लेकर दाल-रोटी को आउट ऑफ डेटकहना पड़ता। कुछ दौर ही ऐसा चल रहा है भाई। समझौते की तश्तरी में जो परोसा जा रहा है उसे ही खुदा का शुक्र समझना चाहिए। अपने जिगर के टुकड़े रमफेरवा और उसकी गाँव से उछाल मार कर शहरी सड़क पर कुलांचे भरती माई को देखता हूँ तो सोचता हूँ सचमुच अपना भारत महान है। महान है तब न भोजन सामग्री महँगी और कारे मंदी हो रही है। लेकिन अब तो ससुरे जंगल भी कट चुके है जो पेट की धधकती आग को बुझाने के लिए रामजी की तरह कन्दमूल खा लेते। जय-जय शिवशंकर कि आप विषपान करके नीलकंठ कहलाए। एक हम हैं की दाल-रोटी के लिए बिलख रहें हैं।

नोट: (12/03/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चामें प्रकाशित)