गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

उनके अँगने में तुम्हारा क्या काम?

दो सितारों का मिलन शायद आज की रात हुआ है तभी तो अपना लख्ते जिगर रमफेरवा धूनी रमाए किसी मंदिर के खंडहर में खंजड़ी बजा-बजा कर गा रहा है ‘तू राम भजन कर प्राणी, तेरी दो दिन की ज़िन्दगानी’। उधर किसी मस्जिद से अज़ान की सदा सुनते ही पास बैठे लोगों से कहता है। खुदा के वास्ते इनकी-उनकी बातें बंद करके यकीन करो ‘सबका मालिक एक है’। अल्लाह वालों ईमान लाओ। कहीं उसने किसी प्रवचन में सुना था राम-रहीम सब एक हैं बशर्ते दिल से आस्था के समन्दर में बेखौफ होकर डुबकी लगाओ।

मगर ताज्जुब हुआ सुनकर की अपने रमफेरवा की मीराबाई बनी माई आजकल सबकुछ भूल कर सियासती गलियारे का इरादा बना रहीं है। यही हालत अपना लंगोटिया यार मीर साहब के उस्ताद आला दर्जे के मौलाना जो अपनी तकरीरों से दुनिया भर की नसीहतें देते थे, वह भी उन संगमरमरी दीवारों के बीच चलते-फिरते फितरत बाजों के बीच कोई टुटही कुर्सी हथियाने के चक्कर में पड़े नज़र आ रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि हमारी ज़िन्दगी कि गाड़ी लाइन बदलते हुए किस नंबर के प्लेटफॉर्म पर रुकने वाली है?

अक्सर बड़े लोग जिन्होने मनोविज्ञान का थोड़ा सा भी घोल पीया है बच्चों को बताया करते हैं कि कोई एक क्षेत्र चुन कर उसमें पिल पड़ो। फिर ज़रूर एक दिन सफलता कदम चूमेगी। देखा भी यही गया है। शायद ऐसी ही रुचियों को देखकर अपने यहाँ चार वर्णों की अवधारणा को मूर्त रूप दिया गया था। यह तो बाद में लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उसमें घालमेल कर डाला और किरकिट खेलने वालों को हॉकी थमा दी, हॉकी में हँगामा करने वालों को बेसबॉल थमा दिया। फुटबाल के शौकीन लोगों को जबरन गिटार के तारों में उलझा दिया। बात ठीक हो सकती है कि ऐसे भी लोग हो सकते हैं मगर सौ में कहीं दो-चार। लीजिए, मैं भी कितना अहमक़ हूँ कि निकला था खूबसूरत बगीचे में सैर-सपाटे के लिए लेकिन पहुँच गया बीहड़ों में। आदत से मजबूर हूँ क्योंकि पढ़ने-लिखने की बुरी लत जो लग गयी है।

आज शायद भरत जी होते तो रामजी के वनवास चले जाने पर फौरन अपने को ख़ुद मुख़्तार बनाने के लिए किसी दीवानी न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने में जुट जाते। अब देखिए न अपने यहाँ साधू-संतों को ही देख लीजिए। कहने को तो उन्होने धर्मध्वजा फहराने का संकल्प लिया है मगर नज़र उनकी किसी संगमरमरी अहाते में इस भीषण गर्मी में ठंडी हवा पर रहती है। उन्हें भी चाहत होती है ढेर सारे अंगरक्षक उनके आगे-पीछे चलें और कोई न कोई पार्टी उनके नाम का टिकट छाप दे।

इस कलयुग में दोहरा फायदा किसे नहीं रास आएगा? भक्त जनों की भीड़ से चढ़ावे का फ़ायदा अलग मिलेगा और उधर सत्ता के गलियारे में बर्फ के ग्लेशियर अलग मज़ा देंगे। एक जगह की बात नहीं है भाई। सब जगह यही हाल देखने को मिलता है। अपने मीर साहब के उस्ताद मोहतरम कई-कई बार हज करने की खुशनसीबी हासिल कर चुके हैं। उनकी तकरीर सुनने वाले ‘सुभान अल्लाह’ कहते हुए अल्लाह वाले बन गए मगर हाजी मियाँ के एक हाथ में पाक तस्वीर होती है तो दूसरे हाथ में किसी सियासती पार्टी का मेनीफेस्टो। इसी तरह इधर भी एक मोहतरमा गेरुआ वस्त्र में बहुत अच्छी लगती हैं पर हमेशा उनकी हसरत सियासतदानों के काफिले के आगे चलने की रहती है। कमज़ोरी यह है की धार्मिक होने का रोल अदा करने में बेचारी फ़ेल हुई जा रहीं हैं। इन सब मंज़र से से दो-चार होने पर वशिष्ठ, विश्वामित्र और नानक पर कभी-कभी बड़ा ग़ुस्सा आता है कि नाहक किसी ‘रब’ की चौखट पर माथा रगड़ते रहे। उन्हें तो बिना कहे राजभवन में बढ़ियाँ सा बंगला मिल जाता। ताज्जुब तो यही है कि वही लोग माया-मोह का चक्कर छोड़कर आम लोगों को पूजा-नमाज़ में रम जाने का सबक देते हैं पर ख़ुद...। समझ ही गए होंगे मेरा मतलब। साफ सुनना चाहते हैं तो सुनिए स्वामी जी, साध्वी लोगों और आला काबिल मौलानाओं को सियासत में इतना मज़ा क्यों आ रहा है? उनको तो सबका ‘रब’ एक है में दिलोजान से फिट रहना चाहिए। न कि एयर कंडीशन्ड गाड़ी और बंगले के पीछे भागना चाहिए। गुस्ताखी माफ यहाँ तो वही मुँह में राम बगल में छुरी वाली बात हो रही है।

अब पूछने वाले ज़रूर पुछेंगे कि माफ़ियाओं को क्यों सियासत में लाकर आवभगत कि जा रही है? वहाँ तक तो बात किसी हद तक समझ में आती है की हो सकता है उनके हृदय परिवर्तन हो जाएँ जैसे बीहड़ों में बसे खूंखार लोगों का दिल विनोबा जी के संपर्क में आने से बदल गए थे। लेकिन सवाल यह भी है कि विनोबा जी अब रहे कहाँ?

कोई माने या न माने राम के नाम कि धूनी जमाने वाले और अल्लाह के सदके में सज़दा करने वाले वहीं अपने दिलों-दिमाग को लगाए रक्खेँ। उससे बढ़कर कुछ नहीं है। सियासत में मिलेंगी माया और मोहन या कोई सोन चिरैया जो आज हैं कल नहीं रह सकते हैं। बाबा और बड़े मियाँ ‘उनके अँगने में तुम्हारा क्या काम’? आप लोगों को तो बस उसी‘रब’ की चौखट का आशिक रहने में ही मज़ा आना चाहिए।

नोट: (22 अप्रैल 2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)
'उनके अँगने में तुम्हारा क्या काम?' - यहाँ से pdf फ़ाइल में डाउनलोड करिए।