गुरुवार, 4 सितंबर 2008

दूल्हे कब तक बिकते रहेंगे

एक बात बरसों से जेहन में काई की तरह जमी बैठी है कि ‘औरत’ औरत है और मर्द हमेशा मर्द है। लोग भले डुगडुगी बजा-बजा कर चिल्लाते रहें कि बेटा जम्बूरे दोनों में कोई फर्क नहीं है। दोनों को समान अधिकार होना चाहिए। दोनों को एक तरह से जीने का हक मिलना चाहिए वगैरह-वगैरह। यह जरूर है कि लोगों को एक दूसरे को खुश करने या तसल्ली देने की फितरत विरासत में मिली है, इसलिए एक कदम आगे बढ़कर ‘महिला सशक्तीकरण’ का नाम देकर ‘घरैतिन’ को कुछ देर के लिए टेन्शन फ्री कर देना चाहता हूं।
चलिए आज जिन्दगी के हर गोशे में जब लड़कों की तरह लड़कियों को भी टॉप गीयर में देखता हूं तो बगली काट कर अलग राह पकड़नी पड़ती है कि न जाने कब कौन सी आफत आ जाए और संजोये गये करेक्टर पर लोग कीचड़ उछालने लगे? यह बात तो मैं भी मानता हूं कि सृष्टिकर्ता की इन अलग-अलग रचनाओं को समान रूप से संपादित करके एक ग्रन्थ का रूप दिया जाए तो सचमुच समाज की विशाल लाइब्रेरी में चार चांद लग उठे।
पर न जाने क्यों जेहन में बैठी वह औरत मर्द वाली अलग-अलग तस्वीरें अलग ही दिखाई देती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि आये दिन चैनलों और अख़बारों में जो न बताने लायक खबरें छपती हैं या दिनभर दिखाई जाती हैं उससे जायका एकदम बिगड़ जाता है। इसके अलावा अपने माननीयों के अंगने में उठापटक और लड़की के लिए लड़कों की खरीद-फरोख्त की बात सुनता हूं तो भी बात पक्की हो जाती है कि “दिल को बहलाने के लिए गालिब ये ख्याल अच्छा है”दोनों को बहलाने के लिए ‘महिला सशक्तीककरण’ तथा ‘नर नारी एक समान’ का ख्वाब दिखाकर तसल्ली की तश्तरी में समानता का लज़ीज पकवान परोसा जाता है। मैं उन सम्मानित नारियों की बात नहीं करता जो नर के बगल में बैठकर देश के नवनिर्माण का खाका खींचती हैं। अपने को गान्धारी, अनुसूइया, सावित्री, रजिया सुल्तान और झांसी की रानी से कम नहीं समझती हैं। पर वास्तव में सर्वसाधारण महिलाओं के सशक्तीकरण का एक छोटा सा बिल शायद आज तक नहीं पास करा सकी क्योंकि जीव वैज्ञानिकों की बात पर वे खामोशी अख्तियार करना बेहतर समझती होंगी कि पुरुष और महिला के जैविक तत्वों के कारण काफी अंतर होना स्वाभाविक है। उधर पुरुष प्रधान समाज भी अपना वर्चस्व कायम रखने से पीछे नहीं हटना चाहता है।
कानूनी शिकनी करना तो देश के कानून का सरासर अपमान है फिर भी ताज्जुब है कि हमारे देश का कानून ऐलाने जंग तो बहुत करता है लेकिन उसकी आंखों पर उस वक्त पट्टी बंध जाती है जब दहेज और अनाचार के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार होता है या पुरुष प्रधान समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है। यह बात नहीं कि पुरुष ही इसका जिम्मेवार है। खुद नारियां ही नारी उत्थान में बाधक बन रही हैं, क्यों कि कहा गया है कि नारियों में ईर्ष्या की भावना ज्यादा होती है। वरना संसद और विधान सभाओं के अतिरिक्त अन्य जगहों पर भी उच्चस्थ पदों पर बैठी महिलाएं अभी तक एक बिल नहीं पास करा सकीं। उन्हें सिर्फ जिले से उठाकर राज्य‍ और राज्य से उठकर केन्द्र तक पहुंचने की फिक्र है, पर समाज में सिसकियां भरती सामान्य महिलाओं के साथ क्या गुजर रही है, देखने वाला कोई नहीं है। कानून रोज बनाये जाते हैं पर वे कारगर कितने साबित होते हैं वे ही जानें।
मामूली सी बात दहेज के नाम पर शोषण करने का है। कितनी रपटें लिखी जाती हैं और कितनी कार्यवाहियां की जाती है? आंकड़े तो सिर्फ उन्हें ही बताते हैं जिन्हें दर्ज किया जाता है। अधिकांश तो बदनामी के डर से रपट लिखाते ही नहीं हैं।
हाल की बात है कि एक कन्या की फोटो पसन्द करने के बाद भी वर पक्ष के लगभग डेढ़ दर्जन लोग वधू पक्ष की टूटी मड़ैया पर आ धमके। लगा जैसे कोई नुमाइश देखने आये हों। अमूमन ज्या दा से ज्या्दा चार-छह खासमखास लोग जैसे वर के मां-बाप, बहन, कोई चाचा, ताऊ और वर स्वयं जाते हैं। बहरहाल इतने लोगों के पहुंचने पर किसी ने रिटन टेस्टं लिया तो किसी ने मौखिक परीक्षा और किसी ने होम-साइंस का इम्तहान लेना शुरू कर दिया। बीच-बीच में लड़के का बड़ा भाई रोना रोकर इशारा भी करता रहा कि अभी उसने चार पांच लाख रुपये लगाकर मकान बनवाया है पर वह भी अधूरा रह गया है। मतलब साफ यानी अनुभवी लोग ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देखकर’।
साथ में यह भी तुर्रा कि हम लोगों को सीधी सादी लड़की चाहिए। आजकल की तेजतर्रार लड़कियां नहीं चाहिए। बहरहाल वर-वधू ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया। आये लोगों ने भी दबी जुबान से पसन्द जाहिर कर दी। लेकिन फाइनल रिजल्ट चार-छः दिनों बाद घोषित करने का आश्वासन दिया गया। लेकिन बीच-बीच में रोना वही कि अभी मकान अधूरा पड़ा है इसलिए कुछ...। ताज्जुब होगा जानकर कि लड़का हाईस्कूल अनुतीर्ण है और किसी नौकरी में भी नहीं है। कन्या के पिता भाग्यवादी और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते अपनी बात पर अटल हैं जबकि उनकी पुत्री इण्टर पास है।
अभी तक फाइनल रिजल्ट‍ का इंतजार किया जा रहा है। एक दिन ‘लड़की वाले गरजमंद होते हैं’ की मशहूर कहावत के तहत उसके पिता ने फोन किया तो उधर से उल्टा चोर कोतवाल को डांटने के लहजे में कहा गया कि आपने तो हम लोगों को विदाई नहीं दी। काबिलेगौर है मानसिकता कि बिना फाइनल रिजल्ट के विदाई देने की रस्म कहा से उठती है? उसके बाद भी फाइनल के लिए पुन: चार दिन का समय मांगा गया। कन्या पक्ष का यही तो मानसिक शोषण है कि उन्हें अधर में लटका कर मनमानी मांग मनवाया। इस सम्बन्ध में बुद्धिजीवी लोगों से बात कीजिए जो लड़की लड़कों को समान समझने का ढिंढोरा पीटते है वे भी जब कहते हैं कि क्या करोगे भाई लड़की वालों को झुकना ही पड़ता है तो धिक्कारने को जी चाहता है ऐसी समानता की बात करने वालों को। प्रतीक्षा कराते-कराते कहीं ‘ना’ हो गया तो उस लड़की को डिप्रेशन में डूब कर आत्महत्या करनी पड़ती है। माना कि आज लड़कियां पायलट बन रही हैं, वैज्ञानिक हो रही हैं, राजनीतिज्ञ होकर नेतृत्व कर रही हैं और अंतरिक्ष में बेखौफ उड़ान भर रही हैं पर कितने प्रतिशत? वे भी सम्पन्न परिवार से ही सम्बन्धित होती होंगी।
क्या इन मुट्ठी भर तरक्कीयाफ्ता कन्याओं से पूरे नारी जागरण का स्वप्न पूरा हो सकता है? क्या सचमुच पुरुष प्रधान समाज अपनी मा‍नसिकता बदलने को तैयार है? यदि ऐसे मामले उजागर भी होते हैं तो जल में रहकर मगर से बैर करने वाली बात होती है। इन्हीं कारणों से लोग लड़की के जन्म को अभिशाप समझने लगते हैं। कानून है लेकिन कानूनी दांव-पेंच अपने देश में ऐसे उलझे हुए हैं कि उनके सुलझते-सुलझते या तो माता-पिता श्मशान के रास्ते पर चल देते हैं या कन्या बिन ब्याही पश्चाताप की आग में खुदकुशी कर लेती है।
सबसे बड़ी बात तो समाज के उन कर्णधारों को देखकर होता है जो चुप्पी‍ साधते हुए खरीद-फरोख्त के बाजार को और गर्म कर देते हैं। रोना पड़ता है किसी 'रामउजागिर' को या किसी रिटायर 'अब्दुल लतीफ' को अथवा उसके पूरे परिवार को जो किस्मत को सब कुछ मानकर जी रहा है। कब बदलेगा यह समाज? कब मिटेगा दहेज के लोभ का दानव और मिटेगी वह दृष्टि जो आज भी लड़कियों या महिलाओं को बंधुवा मजदूर के रूप में अपने घर की बहू बनाना चा‍हते हैं पर बदले में चाहते हैं लड़के पर बचपन से लेकर आजतक होने वाले सारे खर्च को पूरे ब्याज के साथ। महिला सशक्तीकरण के नाम पर जो सिर्फ कागज का पेट भर कर वाहवाही लूट रहे हैं। बस सब किताबी बातें रह गयी है कि ‘नारी से नर होत है ध्रुव प्रह्लाद समान।’

(नोट: (04/09/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)

बुधवार, 3 सितंबर 2008

तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया...

बखुदा जी चाहता है कि ऊपर वाले का मुँह चूम लूं कि उसने इस धरती के आलीशान टुकड़े पर ऐसे-ऐसे नायाब मुज्जसिमें गढ़ कर भेजे हैं कि बस देखते ही रह जाना पड़ता है। लगता है कि किसी समर-वैकेशन में बड़े इत्मिनान के साथ उन्हे गढ़ते वक्त उनकी किस्मत किसी कमाल की कलम से लिख डाली हो। इसी वजह से बरबस ज़ुबॉं पर यह लाइन आ जाती है, "तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया।"

अपने जैसों की बात करना तो भय्या हरियाली छोड़ रेगिस्तान का कठिन रास्ता नापना जैसा है। खेत काटने जैसी जल्दी में हड़बड़ी के वक्त जैसे-तैसे टेढ़ा-मेढ़ा गढ़ डाला होगा और तकदीर लिखते-लिखते कलम में स्याही खतम होगई होगी। रोना यही है कि आखिर हमने क्या बिगाड़ा था। जो बेचते थे दवा--दिल मेरे साथ, वे दुकान अपनी बढ़ा चले। एक चैनल पर देखकर ताज्जुब हुआ कि एक विदेशी ने ऋगवेद में दिये गये विवरण के अनुसार उन ऐतिहासिक स्थलों की खोज में ईरान और इराक की ख़ाक छान डाली। उसे हासिल भी बहुत कुछ हुआ जिससे दुनिया के सामने हकीकत आयी। पर अपने माननीय द्वारिकाधीशों को दूर को मारिये गोली निकट की वस्तु भी निहारने के लिये उनके चश्मे का पावर धोखा दे जाता है। फॉर एक्जाम्पिल जहाँ सहारा है, वहीं बेसहारों का विशाल समूह देखकर सोचने पर मज़बूर होना पड़ता है कि सचमुच यही है सच्चे समाजवादी समाज का बेहतरीन नमूना। जरा हमसफर बनकर मेरे साथ लखनऊ से बाराबंकी तक लाल लंगोटावाले लालू पहलवान की रेलमपेल रेल में सफर करने की ज़हमत गँवारा करें। गोमती के गुस्से को पीते हुए जैसे आगे बढ़ेगे कि द्वारिकापुरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का दिलकश नज़ारा सामने देखते ही बनता है। माया उनकी समझ में नहीं आती है। किन्तु-परन्तु सहारे में बेसहारों की रोती-बिलखती फटेहाल झुग्गी-झोपड़ियों को देखकर दौड़ती पसीन्जर गाड़ी की खटमलयुक्त सीट पर बैठे-बैठे सोचता हूँ कि रेलवे लाइन के किनारे इन अनगिनत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले सुदामाओ पर पास रहने वाले द्वारिकाधीशों को जरा भी तरस नहीं आया कि कम से कम उनके सिर पर एक-एक पक्की छत तो मुहैय्या करा देते। फिर क्यों नहीं उन्हें मरहूम साहिर साहब का वही शेर याद करने को दिल चाहता है— ‘कि इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।’ यह सबको मालुम है कि ये वे बदनसीब मजूर-दरहे हैं जिनका काम द्वारिकापुरी को सजाने-सँवारने के बाद दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जाएगा। फिर भी इन्हें और इनकी बिना छत झुग्गी- झोपड़ियों को देखकर यूँ जान पड़ता है जैसे चाँद में लगे दाग़ य़ा जैसे सूर्य में लगा ग्रहण। यह तो बाइसकोप का ग़ैरमामूली सीन है बाढ़ में बग़ावत का बिगुल बजाती गोमती मैय्या के पार रेलवे लाइन के किनारे का। यहाँ तो तमाम जाने-अनजाने द्वारिकाधीशो के रंगमहलों व पंचसितारों के आस-पास लकुट-कमरिया ओढ़े टपकती छतों के नीचे पड़े अनगिनत सुदामाओ की झुग्गी-झोपड़ियों का सिनेमास्कोपिक बाइसकोप देखना आम बात है। पहले वाला ज़माना अब रहा कहाँ कि गरीब और फटेहाल सुदामा का नाम सुनते ही बिना किसी प्रोटोकाल की परवाह किये खुद नंगे पाँव गले मिलने चल देते थे और उनकी हालत पर तरस खाकर उन्हें एक दो नहीं बल्कि तीनों लोक देने को उतावले हो जाया करते थे। आज तो द्वारिकाधीशों का स्वार्थ इतना सिर पर चढ़ कर बोल रहा है कि लोक का एक छोटा सा टुकड़ा और टुकड़े पर एक परमानेन्ट छत मुहैय्या कराना गँवारा नहीं किया। यह तो सब जानते हैं कि उन फटीचर सुदामाओं के यह अरमान कभी नही रहे कि उनका एक बँगला बने न्यारा। उस वक्त भी तो फटीचर ‘सुदामा’ की दिली ख्वाहिश बस सिर छुपाने के लिये एक छोटी सी छत और दो जून की बासी ही सही एक टुकड़ा रोटी ही चाहिये थी। आधुनिक द्वारिकाधीशों द्वारा मनमाने ढंग से उगाये गये कंकरीट के जंगलों के बीच गोमती की सुनामी लहरों से अनचाहे खेल खेलते हुए अपनी कूड़े-कबाड़ों से पटी झोपड़ियों पर किस्मत की मार समझते हुए फटेहाली का रोना मानवाधिकार के ठेकेदारों से रोना भी तो बेहतर नहीं समझते हैं क्योकि डर है कि कहीं उन्हे आज के द्वारिकाधीशों का कोपभाजन न बनना पड़े और बची-खुची रोटी के लाले न पड़ जांये। मेरे ख्याल में राजधानी के द्वारिका धीशों को खुद कल्याणकारी राज्य के बोधिवृक्ष के नीचे विचार करना चाहिये। इसीलिये जी चाहता है कहने को ‘तारीफ करूँ उसकी जिसने उन्हें बनाया।‘ उन्हे जिन्हें इतने विशाल देश की गाड़ी को विकास की लाइन पर दौड़ाने के लिये ड्राइबरी की नौकरी दी गयी है। सच पूछिए तो भाईजान मेरी नज़र में तो डरेबरी की नौकरी आई..एस. और आई.पी.एस. वगैरह से कहीं बड़ी है। जरा सी सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना हुयी। इसीलिये अंग्रेजों ने शायद रिटायर करने की एक उम्र निर्धारित की थी। पर उस ज़माने में शायद एलक्शनवाली एनर्जी और लम्बी उम्र अता करनेवाली मशीन नहीं इजाद की गयी रही होगी। अब कितने भी इनरजेटिक और देशसेवा करने की तमन्ना संजोये यूथ-फेस्टिवल वाले उस ड्राइविंग लाइसेन्स के लिये हाथ-पैर मारते रहें लेकिन कोई फायदा होते नहीं दिखता। आजके द्वारिकाधीशों को अमरत्व की घुट्टी जो उनके आला सरदारों ने पिला दी है इसलिये उनके नजदीक रिटायरमेन्ट का भूत फटक नहीं सकता है। किसी ने ठीक ही कहा है,— न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन जब प्यार करे कोई देखे केवल मन।’ भाई, उन्हें इस मुल्क से बेपनाह प्यार जो है। इसलिए उनके रिटायरमेन्ट का सवाल ही नहीं उठता है।

असली-नकली का खेला...

अमां, मुझे अपने अपने बचपन की वह बात खूब अभी तक याद है। जब मैं किसी इम्‍तहान में बगल वाले की कापी को उचक उचक कर देख कर अपनी कापी पर लिख रहा था। उस वक्‍त मूंछे तो नहीं हल्‍की हल्‍की रेख जमी थी। मारे जोश के जब इम्तहान देकर बाहर निकला तो उन रेखों पर ही ताव से हाथ फेरते हुए साथियों को बताता रहा कि मेरे सारे सवाल सेन्‍ट परसेन्‍ट सही होंगे, क्‍योंकि मैंने बगल वाले से अक्षरश: नकल कर डाली है। उधर बगल वाला परीक्षार्थी मुंह लटकाए हुए लोगों से बता रहा था कि उसके सभी सवाल गलत हो गए। मेरी झूठी खुशी पर तंज कसते हुए किसी पतली कमर मौलवी साहब ने फरमाया, ‘हजरत नकल में भी अकल की जरूरत होती है।’ तब मुझे भी होश आया लेकिन तब होता क्‍या है ‘जब चिडि़यां चुग गयी खेत।’

इन दिनों अपने मुल्‍क में भी नकल की सुनामी लहर उठ रही है। रोज अखबारनवीसों को इस नकल के मुद्दे पर कलम तोड़ कर स्‍याही पी लेनी पड़ती है। सुनते हैं आज कल कोई जगह नहीं बची है जहां जाली नोटों की बौछारे न पड़ रही हों। चाहे डुमरियागंज हो या डूंगरगढ़। सब जगह जाली नोटों की बरसात हो रही है। यह सब देखकर पेशोपेश में पड़ गया हूं कि हाल में संसद के स्‍वर्णपटल पर नोटों की गड्डियां जो दिखाई गयीं, खुदा जाने वे असली थी या नकली? क्‍योकि पहले हम लोग जब मुहल्‍ले में ड्रामा खेलते थे और उसमें नोटों की गड्डियां दिखाने का सीन आता था तो हमारे डायरेक्‍टर साहब नीचे ऊपर असली दो चार नोट रखकर बीच में उसी साइज के कटे सादे कागज रख दिया करते थे। देखने वाले समझते थे कि सब असली नोटों की गड्डियां हैं। अब बहरहाल देस में नोटों की कमी है नहीं पर हैरत इस बात पर जरूर होती है कि बैंक जो नोटों के माहिर समझे जाते हैं और ‘विश्‍वास’ जिनका मूलमंत्र होता है वे इन जाली नोटों के जाल में उपभोक्‍ता को कहां और कैसे फंसाने पर उतारू हो गये?

अब अपने दिलो दिमाग के दरवाजे खोलकर झांकने की झकझोर कोशिश करता हूं कि नकली की नकेल नोटों की ही क्‍यों पकड़ी जा रही है? असली नकली का किस्‍सा तो बहुत पुराना है। नकली शिखण्‍डी को ही सामने करके बेचारे बाल ब्रह्मचारी भीष्‍म पितामह का बन्‍टाधार कर दिया गया। तारीख के पन्‍ने पलटने पर मालुम हुआ कि ‘झांसी की रानी’ के किसी गोलन्‍दाज ने गोले के नाम पर नकली गोलों से फिरंगी फौज पर प्रहार किया था। भय्या, क्‍या नकली है और क्‍या असली है? इस चक्‍कर में घनचक्‍कर बनकर माथा खपाना बेकार है। कुछ दिन लोग बोफोर्स और फौजी शहीदों के कैफीन को नकली बताकर आपस में चोंचें लड़ाते रहे। अब यह बात अलग है कि आज शनि की साढ़े साती कागजी नोटों और सरकार से सरोकार रखने वाले बैंकों पर चढ़ बैठी है।

लेकिन मेरी समझ में किसी एक को दोष देना ठीक नहीं है। बड़े-बुजुर्गों ने खूब मन्‍थन करने के बाद कहा था कि जब अपना ही माल खोटा तो परखैया का क्‍या दोष? पहले अपने गिरेबान में मुंह डालकर झांकना चाहिए। सीने पर जरा आइसक्रीम रखकर सोचिए कि नकली नोटों के पीछे ही हाथ धोकर लोग क्‍यों पड़े हैं? कोई सस्‍ती सीबीआई और कोई मद्दी सीआईडी से जांच कराने के लिए गुटुरगूं कर रहा है। सोचने वाली बात है कि जब माननीयों के बीच असली-नकली का खेल चल रहा है तो कहां तक जांच की आंच गर्मी पहुंचाएगी?

अब तो मुझे लगता है कि खुद दुनिया बनाने वाला सोचता होगा कि कहीं उसके द्वारा रचे और धरती पर उतारे गये लोग असली रह भी गये हैं या नहीं? हो सकता है ‘ग्‍लोबल वार्मिंग’ की बदलती फिजां में किसी नकली रचनाकार ने नकली रचना भेजने का पोस्‍टआफिस खोल दिया हो। इन दिनों तो अपने कवि या लेखकों को कुछ ऐसी लाइलाज बीमारी ने धर-दबोचा है कि वे ग़ालिब, शेक्सपीयर और नीरज की पंक्तियों को अपने नाम से पढ़कर अच्‍छा खासा ईनाम, इकराम हासिल कर लेते हैं। अब तो भाईजान ऐसा जमाना आ गया है कि किसी पार्टी में रहते हुए और पार्टी के लिए समर्पित होने का दावा करने वालों के दावे को असली कहना मुश्किल है। भई कहना पड़ता है कि ‘अच्‍छों को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है।’ कौन अपने असली रूप में सरकार के भीतर फुफकार रहा है और कौन बाहर फुफकारने की एक्टिंग कर रहा है, बताना बहुत मुश्किल है। कौन सच्‍चे दिल से रामनाम जप रहा है और कौन नाम के लिए राम का नाम ले रहा, कहना नामुमकिन है। जब पुलिस की वर्दी में डकैत डकैती करके चले जाते हैं और रिपोर्ट लिखने में आनाकानी की जाती है तो भाई असलियत से रूबरू होना नामुमकिन है। सुनने में आता है कि आजकल इंजेक्‍शन लगा कर सब्जियों को खूब डेवलप कर दिया जा रहा है। दूध को असली कहकर सेहत बनाने की चाहत रखना निहायत मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। लेकिन जानते समझते हुए किसी के पेट पर लात क्‍यों मारी जाए? हम कहां कहां सीबीआई और एन्‍टीकरप्‍शन को भिड़ाते रहेंगे? जब पुलिसिया फोर्स होते हुए भी आराम से गाड़ी या बसों में लोग छीन झपट कर चलते बनते हैं तो और कहने को रहा ही क्‍या है? और तो और जब नकली वायदे करके लोगों से विकास के नाम पर वोट बटोर लेते हैं तो इससे बढ़कर नकलीपन क्‍या हो सकता है?

असल में नकलीपन की ऐसी हवा चली है कि जड़ से नेस्‍तानाबूद करना खुद अल्‍लाह मियां के वश में नहीं रहा है। खुदा न खास्‍ता अगर वह दोनों जहां का महान ठेकेदार हमारी गली में आ टपके तो कुछ क्‍या परसेन्‍टेज लोग नकली कहकर सीबीआई के हवाले कर बैठेंगे। लेकिन बमुताबिक दादा हुजूर के सब वक्‍त वक्‍त की बात है। नकलीपन का लेवल कभी रिफाइन्‍ड और सरसों के तेल पर लगाया जाता है, कभी पार्टी के निहायत वफादार पर चस्‍पा करके बाहर का रास्‍ता दिखा दिया जाता है। आज कल मेडिकल स्‍टोर वाले नकली दवाओं के लिए अलग बदनाम हो रहे हैं। कभी कभी लोगों को भी शक होने लगता है कि वे असली माता-पिता की असली संतान हैं भी या नहीं?

बहरहाल मौजूदा हालात में तो नकली नोटों को देखना है कि वे आर्यो की तरह कहीं मध्‍य एशिया से तो नहीं आए? खैर जहां से जैसे भी और जिसके जरिए से भी इस स्‍वर्ग स्‍वरूपा धरती पर आये हों उनसे हमें या हमारे जैसे फटीचरों को क्‍या लेना देना। यहां तो नोट देखा नहीं कि लार टपक पड़ी। लार तो बड़े-बड़े दिग्‍गजों के टपक पड़ती है क्‍योंकि उनकी लोभी नजरों के सामने तो सब से बड़ा रुपय्या है। वे कहां हैं कहां हैं जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वे कहां हैं? क्‍या उनका शगल सिर्फ ‘डील’ की झील में डुबकी लगा कर पाउडर मलना है या कभी श्राइन बोर्ड, कभी रामसेतु और कभी राममंदिर की बाल की खाल निकालना है? उनका इस मामले में क्‍या विचार है जो फर्श पर रहकर अर्श पर पहुंचने का ख्‍वाब देख रहे हैं। इन सबके बावजूद उन्‍हें कहने को जी चाहता है कि पलट तेरा ध्‍यान किधर है? क्‍या हादसे हद से गुजर जाने के बाद उन्‍हें चन्‍द दिनों के लिए ख्‍याल आता है? ऐसे उदारवादी देश के उदारवादी कानून को बारम्‍बार नमन करने को जी चाहता है। क्‍यों नहीं ये बीमारियां दूसरे मुल्‍कों में फैल रही हैं। गुस्‍ताखी माफ की जाए, वही कहावत बार-बार कहकर दिल को तसल्‍ली देना चाहता हूं कि ‘हर शाख पे उल्‍लू बैठे हैं अन्‍जामें गुलिस्‍तां क्‍या होगा?’

इसलिए सिर्फ नकली नोटों को ही नहीं, नकली वोटों के सहारे सुनहरी कुर्सी पर टंगड़ी पसार कर बैठे लोगों की तरफ भी ध्‍यान देना चाहिए।