एक बात बरसों से जेहन में काई की तरह जमी बैठी है कि ‘औरत’ औरत है और मर्द हमेशा मर्द है। लोग भले डुगडुगी बजा-बजा कर चिल्लाते रहें कि बेटा जम्बूरे दोनों में कोई फर्क नहीं है। दोनों को समान अधिकार होना चाहिए। दोनों को एक तरह से जीने का हक मिलना चाहिए वगैरह-वगैरह। यह जरूर है कि लोगों को एक दूसरे को खुश करने या तसल्ली देने की फितरत विरासत में मिली है, इसलिए एक कदम आगे बढ़कर ‘महिला सशक्तीकरण’ का नाम देकर ‘घरैतिन’ को कुछ देर के लिए टेन्शन फ्री कर देना चाहता हूं।
चलिए आज जिन्दगी के हर गोशे में जब लड़कों की तरह लड़कियों को भी टॉप गीयर में देखता हूं तो बगली काट कर अलग राह पकड़नी पड़ती है कि न जाने कब कौन सी आफत आ जाए और संजोये गये करेक्टर पर लोग कीचड़ उछालने लगे? यह बात तो मैं भी मानता हूं कि सृष्टिकर्ता की इन अलग-अलग रचनाओं को समान रूप से संपादित करके एक ग्रन्थ का रूप दिया जाए तो सचमुच समाज की विशाल लाइब्रेरी में चार चांद लग उठे।
पर न जाने क्यों जेहन में बैठी वह औरत मर्द वाली अलग-अलग तस्वीरें अलग ही दिखाई देती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि आये दिन चैनलों और अख़बारों में जो न बताने लायक खबरें छपती हैं या दिनभर दिखाई जाती हैं उससे जायका एकदम बिगड़ जाता है। इसके अलावा अपने माननीयों के अंगने में उठापटक और लड़की के लिए लड़कों की खरीद-फरोख्त की बात सुनता हूं तो भी बात पक्की हो जाती है कि “दिल को बहलाने के लिए गालिब ये ख्याल अच्छा है”। दोनों को बहलाने के लिए ‘महिला सशक्तीककरण’ तथा ‘नर नारी एक समान’ का ख्वाब दिखाकर तसल्ली की तश्तरी में समानता का लज़ीज पकवान परोसा जाता है। मैं उन सम्मानित नारियों की बात नहीं करता जो नर के बगल में बैठकर देश के नवनिर्माण का खाका खींचती हैं। अपने को गान्धारी, अनुसूइया, सावित्री, रजिया सुल्तान और झांसी की रानी से कम नहीं समझती हैं। पर वास्तव में सर्वसाधारण महिलाओं के सशक्तीकरण का एक छोटा सा बिल शायद आज तक नहीं पास करा सकी क्योंकि जीव वैज्ञानिकों की बात पर वे खामोशी अख्तियार करना बेहतर समझती होंगी कि पुरुष और महिला के जैविक तत्वों के कारण काफी अंतर होना स्वाभाविक है। उधर पुरुष प्रधान समाज भी अपना वर्चस्व कायम रखने से पीछे नहीं हटना चाहता है।
कानूनी शिकनी करना तो देश के कानून का सरासर अपमान है फिर भी ताज्जुब है कि हमारे देश का कानून ऐलाने जंग तो बहुत करता है लेकिन उसकी आंखों पर उस वक्त पट्टी बंध जाती है जब दहेज और अनाचार के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार होता है या पुरुष प्रधान समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है। यह बात नहीं कि पुरुष ही इसका जिम्मेवार है। खुद नारियां ही नारी उत्थान में बाधक बन रही हैं, क्यों कि कहा गया है कि नारियों में ईर्ष्या की भावना ज्यादा होती है। वरना संसद और विधान सभाओं के अतिरिक्त अन्य जगहों पर भी उच्चस्थ पदों पर बैठी महिलाएं अभी तक एक बिल नहीं पास करा सकीं। उन्हें सिर्फ जिले से उठाकर राज्य और राज्य से उठकर केन्द्र तक पहुंचने की फिक्र है, पर समाज में सिसकियां भरती सामान्य महिलाओं के साथ क्या गुजर रही है, देखने वाला कोई नहीं है। कानून रोज बनाये जाते हैं पर वे कारगर कितने साबित होते हैं वे ही जानें।
मामूली सी बात दहेज के नाम पर शोषण करने का है। कितनी रपटें लिखी जाती हैं और कितनी कार्यवाहियां की जाती है? आंकड़े तो सिर्फ उन्हें ही बताते हैं जिन्हें दर्ज किया जाता है। अधिकांश तो बदनामी के डर से रपट लिखाते ही नहीं हैं।
हाल की बात है कि एक कन्या की फोटो पसन्द करने के बाद भी वर पक्ष के लगभग डेढ़ दर्जन लोग वधू पक्ष की टूटी मड़ैया पर आ धमके। लगा जैसे कोई नुमाइश देखने आये हों। अमूमन ज्या दा से ज्या्दा चार-छह खासमखास लोग जैसे वर के मां-बाप, बहन, कोई चाचा, ताऊ और वर स्वयं जाते हैं। बहरहाल इतने लोगों के पहुंचने पर किसी ने रिटन टेस्टं लिया तो किसी ने मौखिक परीक्षा और किसी ने होम-साइंस का इम्तहान लेना शुरू कर दिया। बीच-बीच में लड़के का बड़ा भाई रोना रोकर इशारा भी करता रहा कि अभी उसने चार पांच लाख रुपये लगाकर मकान बनवाया है पर वह भी अधूरा रह गया है। मतलब साफ यानी अनुभवी लोग ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देखकर’।
साथ में यह भी तुर्रा कि हम लोगों को सीधी सादी लड़की चाहिए। आजकल की तेजतर्रार लड़कियां नहीं चाहिए। बहरहाल वर-वधू ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया। आये लोगों ने भी दबी जुबान से पसन्द जाहिर कर दी। लेकिन फाइनल रिजल्ट चार-छः दिनों बाद घोषित करने का आश्वासन दिया गया। लेकिन बीच-बीच में रोना वही कि अभी मकान अधूरा पड़ा है इसलिए कुछ...। ताज्जुब होगा जानकर कि लड़का हाईस्कूल अनुतीर्ण है और किसी नौकरी में भी नहीं है। कन्या के पिता भाग्यवादी और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते अपनी बात पर अटल हैं जबकि उनकी पुत्री इण्टर पास है।
अभी तक फाइनल रिजल्ट का इंतजार किया जा रहा है। एक दिन ‘लड़की वाले गरजमंद होते हैं’ की मशहूर कहावत के तहत उसके पिता ने फोन किया तो उधर से उल्टा चोर कोतवाल को डांटने के लहजे में कहा गया कि आपने तो हम लोगों को विदाई नहीं दी। काबिलेगौर है मानसिकता कि बिना फाइनल रिजल्ट के विदाई देने की रस्म कहा से उठती है? उसके बाद भी फाइनल के लिए पुन: चार दिन का समय मांगा गया। कन्या पक्ष का यही तो मानसिक शोषण है कि उन्हें अधर में लटका कर मनमानी मांग मनवाया। इस सम्बन्ध में बुद्धिजीवी लोगों से बात कीजिए जो लड़की लड़कों को समान समझने का ढिंढोरा पीटते है वे भी जब कहते हैं कि क्या करोगे भाई लड़की वालों को झुकना ही पड़ता है तो धिक्कारने को जी चाहता है ऐसी समानता की बात करने वालों को। प्रतीक्षा कराते-कराते कहीं ‘ना’ हो गया तो उस लड़की को डिप्रेशन में डूब कर आत्महत्या करनी पड़ती है। माना कि आज लड़कियां पायलट बन रही हैं, वैज्ञानिक हो रही हैं, राजनीतिज्ञ होकर नेतृत्व कर रही हैं और अंतरिक्ष में बेखौफ उड़ान भर रही हैं पर कितने प्रतिशत? वे भी सम्पन्न परिवार से ही सम्बन्धित होती होंगी।
क्या इन मुट्ठी भर तरक्कीयाफ्ता कन्याओं से पूरे नारी जागरण का स्वप्न पूरा हो सकता है? क्या सचमुच पुरुष प्रधान समाज अपनी मानसिकता बदलने को तैयार है? यदि ऐसे मामले उजागर भी होते हैं तो जल में रहकर मगर से बैर करने वाली बात होती है। इन्हीं कारणों से लोग लड़की के जन्म को अभिशाप समझने लगते हैं। कानून है लेकिन कानूनी दांव-पेंच अपने देश में ऐसे उलझे हुए हैं कि उनके सुलझते-सुलझते या तो माता-पिता श्मशान के रास्ते पर चल देते हैं या कन्या बिन ब्याही पश्चाताप की आग में खुदकुशी कर लेती है।
सबसे बड़ी बात तो समाज के उन कर्णधारों को देखकर होता है जो चुप्पी साधते हुए खरीद-फरोख्त के बाजार को और गर्म कर देते हैं। रोना पड़ता है किसी 'रामउजागिर' को या किसी रिटायर 'अब्दुल लतीफ' को अथवा उसके पूरे परिवार को जो किस्मत को सब कुछ मानकर जी रहा है। कब बदलेगा यह समाज? कब मिटेगा दहेज के लोभ का दानव और मिटेगी वह दृष्टि जो आज भी लड़कियों या महिलाओं को बंधुवा मजदूर के रूप में अपने घर की बहू बनाना चाहते हैं पर बदले में चाहते हैं लड़के पर बचपन से लेकर आजतक होने वाले सारे खर्च को पूरे ब्याज के साथ। महिला सशक्तीकरण के नाम पर जो सिर्फ कागज का पेट भर कर वाहवाही लूट रहे हैं। बस सब किताबी बातें रह गयी है कि ‘नारी से नर होत है ध्रुव प्रह्लाद समान।’
(नोट: (04/09/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)
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