संक्षिप्त परिचय


छात्र जीवन में सर्वप्रथम भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ एंव कहानी मालिक की राह पर प्रकाशित हुई। पहली बार दो कलाकार नाटक में अभिनय किया। रंगमंच की ओर रुझान होने के कारण संगीत नाटक अकादमी से ‘स्व॰ पृथ्वीराज कपूर एंव ‘ख़्वाजा अहमद अब्बास के संरक्षकत्व में नाट्य लेखन एंव अभिनय का प्रशिक्षण (डिप्लोमा) प्राप्त किया। सन् 1964 में दो लघु नाटिका जवानों की सिस्टर और भूत का चक्कर आकाशवाणी से प्रसारित किया गया। रंगमंच के प्रति अभिरुचि बढ़ने पर कई नाटक मीर मुंशी, आदमी और आदमी, चंबल का पागल, चीख परछाइयाँ और एक बेनाम नाटक लिखा और मंचित किया गया। किरन मित्रा द्वारा लिखित बांग्ला नाटक नाम नेई का नाम नहीं के नाम से अनूदित किया एंव अभिनय के साथ मंचन किया। इसके बाद पत्रकारिता में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद समाचार पत्रों में व्यंग स्तभ लिखने लगा। कलकत्ता से प्रकाशित दैनिक विश्वामित्र, वाराणसी से प्रकाशित दैनिक जनवार्ता एंव गाण्डीव में मस्तकलम के नाम से लिखता रहा। सेवानिवृत के बाद लखनऊ व फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित दैनिक जागरण में 'सरयूतीरे' स्तम्भ में रामबोला के नाम से लिखता रहा। फिलहाल फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा में दायरा और अपना शहर अपनी नज़र के साथ डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट लखनऊ संस्करण में बतरस लिखता रहा  और आकाशवाणी फ़ैज़ाबाद से जुड़ा हूँ। प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण गुमनामी के अंधेरे में रहना अच्छा लगता है। किसी रचना का प्रकाशन नहीं हो सका। सब कुछ स्वांतः सुखाय लिख कर साहित्य सेवा करना अपना मकसद है। लोग पढ़ कर मेरे ब्लॉग पार अपनी टिप्पणी लिख कर आलोचना या समालोचना कर देते हैं, बस मेरे लिए इतना ही बहुत है। मेरे हितैषी अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आप एक पुस्तक में संग्रहित करके प्रकाशित क्यों नहीं करा देते ? अपनी आर्थिक दशा पार स्व्यम हँसते हुए बस एक लाइन में जवाब दे देता हूँ कि जीना तेरी गली में, मरना तेरी गली में, मरने के बाद चर्चा होगा तेरी गली में'। ख्वाबों-ख्यालों को आज के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक माहोल में उतार कर कुछ यूँ ही लिखने का प्रयास करता रहता हूँ। हो सकता है कभी किसी प्रकाशक की नजरे-इनाएत हो जाए। संघर्ष ही जीवन है भाई। यही क्या कम है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने में अपनी रुचि रखते हैं और मेरी हिम्मतअफजाई करते हैं। बस संतोष है तो अपने जैसे फटीचर लेखको को देख कर कि वे वक्त के पहले भुला दिये जाते हैं क्योंकि वक्त आर्थिक-संपन्नता को महत्व दे रहा है। अब वही आधार रह गया है पुरस्कार, प्रकाशन और शोहरत पाने का। मुझे तो हमेशा आमिल कि वे पंक्तियाँ याद रहती हैं हकीरों में, फ़कीरों में मिल-बैठ कर देखो, पता लग जाएगा आमिल तुम्हें कुछ भी नहीं आता। इसलिए मैं अपने को हर नज़रिये से अपने को आधा-अधूरा समझता हूँ। यह भी ठीक है क्योंकि इससे कम से कम मैं अहमसे तो दूर रहूँगा। अब भविष्य के बारे में कौन जानता है?

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