रविवार, 2 नवंबर 2008

क्या हम क़बीले-युग की तरफ लौट रहे है...?

चलिये देश का विभाजन तो सब की सहमति से हुआ। भारत और पाकिस्तान। बीच में कश्मीर और बंगाल ने विभाजन की मार झेली। बोडोलैण्ड और नक्सलवाद ने भी पैर पसारते हुये देश को बाँटने की पहल कर दी है। अब महाराष्ट्र ने राज ठाकरे की रहनुमाई में अखण्ड भारत को खण्डित करने का अभियान शुरू करके इतिहास की खिड़की से वही पुराने कबीलाई-युग की झलक दिखा दी है। लगता है कि जयचन्द और मीरज़ाफ़र की आत्माओ ने फिर से नये शरीर धारण करके सिद्ध कर दिया है कि आत्मा सचमुच अजर-अमर है। बात सही है कि इतिहास हमेशा अपने को दोहराता है। हमने जि़न्दगी का कारवाँ जहाँ से शुरू किया था वहीं लौट रहे हैं। आज महाराष्ट्र, असोम, कश्मीर और हो सकता है कि कल बंगाल, बिहार व खलिस्तान खुदमुख्तारी का ऐलान करके तवारीख के पहले पन्ने को पढ़ाना फिर से प्रारम्भ कर दे। आज वे कहाँ हैं जिन्हे हिन्द पर नाज़ था, जो अखण्ड-भारत के सुहाने-सपने बुना करते थे। सर्वसत्तासम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की परिभाषा में भारत जैसे अज़ीमुश्शान मुल्क को बाँधे रहने के नेक इरादे का क्या हुआ। कवियों लेखकों ने अनेक भाषा, जाति, धर्म और सम्प्रदाय वाले ऐसे देश के लिए लिखा था हम पंछी एक डाल के। मगर अफसोस हमारे बीच के अत्यन्त प्रिय लोग उसी डाल को काट कर रंग-बिरंगी पंछियों के बसेरे उजाड़ने पर उतारू हो रहे हैं। सोचना पड़ता है कि जब अपना ही माल खोटा तो परखैय्या का क्या दोष। अगर यही रहा तो वह दिन दूर नही जब यह विशाल देश अनेक छोटे-छोटे क़बीलों में बँटा और खून-खराबा करता दिखेगा। आज भी कई महमूद ग़जनवी और ग़ौरी फायदा उठाने को तैयार बैठे हैं। क्या होगा इस देश का, जहाँ कहा जाता है कि देवता भी जन्म लेने के लिये तरसा करते हैं। यह भी किसी इतिहासकार फिरदौस ने कहा था कि अगर धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।