रविवार, 2 अक्तूबर 2011

गांधी बहुत याद आए...


आज दो अक्टूबर है यानी गाँधी और पूर्व प्रधान-मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती। अपने बरामदे में बैठा देख रहा हूँ कि छोटे गरीब स्कूलों के नाक सुड़कते बच्चे प्रभात-फेरी कर रहें ‘महात्मा गाँधी की जयभारत माता की जय का नारा’ लगाते हुए लाइन से चले जा रहें हैं। जहां आवाज़ कुछ मद्धम पड़ती, दो लाइनों के बीच में पतली छड़ी लिए मास्टर साहब किसी सर्कस के रिंगमास्टर की तरह छड़ी दिखा कर उन मासूमों को तेज़ बोलने का इशारा कर रहे हैं। ताज्जुब हो रहा है कि उस प्रभात-फेरी में न तो शहर के बड़े नाम वाले छात्र शामिल हैं और न उनके बड़ी डिग्री वाले टीचर। शायद मेरी सोच गलत हो सकती है क्योंकि मरहूम गांधी बाबा लंगोटी वाले सिर्फ गरीबों के मसीहा थे। उसी मोटिया खादी की अधलंगी धोती में उघरे बदन भारत की सच्ची तस्वीर दिखाने वह लन्दन की किटकिटाती सर्दी में पहुंचे थे सिर्फ अपने आत्मबल के बल पर। उसी आत्मबल ने फिरंगियों तक को उन्हे महात्मा कहने और भारत को आज़ाद करने पर मज़बूर कर दिया था।

पर आज उस आत्मबल के बल पर मिली आज़ादी के अँगने में हम खूब मौज तो उड़ा रहें हैं पर गांधी और खादी का नाम लेने में सिर्फ खाना पूरी कर रहे हैं। आज के दिन जब मैं गरीब स्कूलों के इन गरीब बच्चों को सिर्फ ऊपर से आए हुक्मनामे के मुताबिक़ प्रभातफेरी करते देख रहा हूँ तो एक बात अपने छोटे से दिमाग के दायरे में चकरघिन्नी की तरह चक्कर काट रही है कि ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में दौड़ने वाले नामी-गिरामी स्कूल-कालेजों के हाई-फ़ाई बच्चे अपने टाई-सूट पहने मास्टर साहबान के साथ इस प्रभात-फेरी की लाइन में क्यों नहीं शामिल हो रहें हैं?  शहर के सभी छुटभैया और बड़-भैया नेतागण पार्टी-वार्टी का भेद-भाव छोड़ कर गांधीजी को याद करने के लिए मोहल्ले-मोहल्ले क्यों नहीं घूमते हैं क्योंकि उस महात्मा ने सब के लिए, सब के द्वारा और सब की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी।

पर आज के सर्वप्रमुख दिवस पर ऊपर से नीचे तक केवल दिखावा मात्र से बापू के जन्मदिन पर कुछ किया जा रहा है। मुझे तो लग रहा है कि एकदिन भी आ सकता है जब आने वाली पीढ़ी इक्के-तांगों की तरह गांधी को भूल कर सिर्फ अपने और अपने भाई-भतीजों के लिए शानदार पार्टी मे बेमिसाल गिफ्ट लेना जिससे उनके लिए संसद और विधान-सभा के गलियारों में दाखिल होने का रास्ता साफ हो सके। ऐसे में भला कौन याद रखेगा गुज़रे हुए ज़माने के गांधीनेहरू और शास्त्री को? काम निकल गयादुख बिसर गया। क्या अच्छा होता जब उस महात्मा के लिए श्र्द्धा-स्वरूप शहर के तमाम अफ़सरान उन भोले-भाले बच्चों की अगुवानी करते हुए प्रभात-फेरी करते हुए गली-कूचों में घूमने के लिए शामिल होते। इससे दो बातें होतीं। एक तो उन बच्चों का उत्साह बढ़ता और दूसरे उनको गली-कूचों की जानकारी भी हो जाती कि वहाँ उनके आदेशों का कितना पालन किया जा रहा है जो शायद दो अक्टूबर की रौनक़ में चार चाँद लग जाता। पर यहाँ तो अपने आदेशों का खुद पालन करने की आदत नहीं है। मिल गए खुदा के फज़ल से छोटे स्कूल, उनके फटीचर बच्चे और प्रबन्धक के रहमोकरम पर नौकरी बजाने वाले मस्टरवा लोग। 

जब गांधी और शास्त्री को लोग भूलते जा रहें हैं तो खादी की दादी को याद रखना तो बहुत मुश्किल है। भूल गए की कभी दादी खादी ने आज़ादी की लड़ाई में पेट भरने के लिए गरीबों को रोजगार मुहय्या कराने का जतन किया था। उस कारगर जतन को जन्नत की राह बनाने के बजाय खादी की दादी को बरबादी तक पहुचाने का इंतज़ाम किया जा रहा है। बात है न बड़े अफसोस की। सबसे ज़्यादा अफसोस तो उन माननीयों को देख कर हो रहा है जिनको इतना सा इल्म नहीं है कि आज वे जो रुतबा हासिल कर रहें हैं उन सब के पीछे खादी और गांधी का ही हाथ है। मैं उनकी बेशकीमती पोशाक पर जल नहीं रहा हूँ बल्कि उन्हे एक सच्चे साथी के नाते सलाह दे रहा हूँ कि कम से कम उस परम-पवित्र गलियारे में खादी पहन कर दाखिल होना अपना कर्तव्य समझें।

सबसे ज़्यादा दुख तो यह देखकर हो रहा है कि पहले तो गांधी से ले कर नेहरू तक ऊंची कुर्सी वाले खादी की दादी को ज़्यादा स्वस्थ और उम्रदराज बनाने के लिए छूट की टानिक पिलाई जाती थी पर अब पत्थरों के शहर मे सबके सब पत्थरों के संगदिल बुत बन गए हैं। उनके दिलों में प्यार कहाँ,आदर-भाव कहाँ?

बुधवार, 21 सितंबर 2011

थोड़ा संभल कर बोले

आज के समाचारपत्र में अपने माननीय गृहमन्त्रीजी के बेबाक बयान को पढ़ कर दिल बाग-बाग हो उठा। वैसे अन्ना के अनशन के समय भी उनका बयान काबिलेतारीफ रहा मगर मेरा अपना निजी ख्याल है कि वह थोड़ा संभाल कर बोले तो सोने पर सुहागा हो सकता है। इसलिए लिख रहा हूँ कि उनके बयान को सारी दुनिया सुन रही है। मैं न तो नक्सलियों का हिमायती रहा हूँ और न ही आतंकवादियों का। हिंसा किसी प्रकार की हो उसका विरोध करता रहा हूँ। किन्तु हमारे माननीय गृहमंत्री ने आतंकवादियों से ज़्यादा खतरनाक नक्सलियों को बता कर अपने घर की पोल खोल दुनिया को हंसने का मौका दे दिया। लोग यही कहेंगे कि जो मुल्क अपने घर मे छुपे दुश्मन से नहीं निपट सकता वह बाहर के इशारे पर खूंरेजी करते आतंकवादियों से कैसे निपटेगा ?अपने दिल पर हाथ रख कर चिंता करें कि उन्होने उतना प्रयास किया या उतना धन खर्च किया जितना पड़ोसी मुल्क से आए किराए के टट्टू आतंकवादियों के दमन पर खर्च कर रहें हैं? शांति और सदभावना का राग अलापते हुए उन इन्सानियत के खुख्वार आतंकवादियों से न जाने कितनी बार शांतिवार्ता करते चले आ रहें हैं जबकि यह जानते हैं कि कुत्ते की दुम सौ बरस तक पाइप में रखने के बाद भी सीधी नहीं हो सकती है। उनके लाडले कपूतों पर सलाखों के पीछे कितना खर्च किया जा रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं है। अफसोस तो यह है कि अपने ही देश में जन्मे पले-बढ़े दबे कुचले लोगों के गुमराह होने का कारण न तो गृहमंत्री ने समझा और न किसी मनोचिकित्सक ने। इलाज समझ में भी आया तो सिर्फ संगीनों के साये में उन्हे मार गिराना। हमारे आला जनाब गृहमंत्री और उनके दूरदर्शी मुसाहिबों ने कभी समझने कि ज़हमत नहीं उठाई कि आखिर वह कौन सा कारण था जो एक छोटे से ग्राम में जन्मी नक्सली हिंसा ने आधे से ज़्यादा देश को अपने चपेट मे ले लिया है और जिसमें समाज के निचले तपके के लोग ही हैं। माननीय गृहमंत्री और उनके काबिल सलाहकारों को थोड़ा मंथन करने की ज़रूरत है कि अपने ही देश में बसने वालों के सामने किस बात ने मजबूर कर दिया जो उन्हे हथियारों से मुहब्बत हो गई है। स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास गवाह है कि हमेशा समाज दो हिस्सों मे बंटा रहा , एक गरमदल और दूसरा नरमदल। लोग बताते हैं कि उन्हे गरमदल के अंतर्गत मौजूदा व्यवस्था से संतोष नहीं है और उनके नज़रिये से समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए हथियार ही एकमात्र साधन हो सकता है। जिसे कम से कम उनसे मनोवैज्ञानिक तरीके से वार्ता करने का प्रयास किया जाना आवश्यक है क्योंकि आखिर उन्हे अपनी माटी से लगाव है और अपनी जन्मभूमि से बेपनाह प्यार है। पंजाब मे पनपा उग्रवाद इसका जीता-जागता उदाहरण है। लेकिन इस मौके पर आतंकवाद को कम और देश में देश की व्यवस्था से असन्तुष्ट लोगों को ज़्यादा गुनहगार ठहराना एक गृहमंत्री के लिए उचित नहीं है । ऐसे वक्तव्य से उन खुख्वार विदेशी आतंकवादियों का मनोबल ऊंचा हो सकता है और देश में किसी वजह से जन्मे मनोरोग की सही रूप से चिकित्सा नहीं हो सकेगी, उल्टे देश की छवि धूमिल हो सकती है। इसलिए जो कुछ मुल्क के अलंबरदारों द्वारा बोला जाय उसे बहुत सोच-समझ कर बोला जाय ,उन्हे सही रास्ते पर लाना आसान है क्योंकि वे अपने हैं। उन्हे इस देश से नहीं बल्कि व्यवस्था से विरोध है। उन्हे विकास चाहिए, भ्रष्टाचार के रूप में विनाश नहीं।

सोमवार, 8 अगस्त 2011

हजारों अन्ना या अन्ना हज़ारे

मुझे अच्छी तरह याद आ रहा है कि महात्मा गांधी के अचानक स्वर्गधाम रुखसत हो जाने के मौके पर मुल्क के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बड़ी रूआंसी आवाज़ में कहा थाकि आज हमारे जीवन से एक प्रकाश-पुंज चला गया। चारों तरफ अंधेरा छा गया है। मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कहूँ! और कैसे कहूँ? अब इतने दिनों के बाद वाकई मे एहसास हो रहा है कि मुल्क अंधेरे में जी रहा है। यही नही अब मुल्क के अलंबरदारों को वही रास आ रहा है (अंधेरा, गहन अंधकार)। उसी अंधकार का फायदा गांधीजी की अर्थी पर घड़ियाली आँसू बहाने वालों ने खूब उठाया हैंपहले भाई लोगों ने खादी की दादी को एक गंदी सी कोठरी में क़ैद कर दिया फिर उन्ही विदेशियों की टार्च की रोशनी में अपना चोला बदल कर चुपके से अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, इटली और फ्रांस का चक्कर लगाने निकल पड़े। वहाँ की अर्धनग्न महफिल मे भूल गये वह गाना-भारत का रहने वाला हूँ, भारत का गीत सुनाता हूँ। या मै उस देश का वासी हूँ जिस देश में गंगा बहती है देश को आज़ादी मिली, बेशक मिली मगर अंधेरे में हम भूल बैठे कि वह केवल हमारा दिल बहलाने वाली आज़ादी थी। बिना ज़ाहिर और गैर-ज़ाहिर का फर्क किए हम झूमते हुए ढोल बजा-बजा कर गाने लगे- कि आज नीच गुलामी छूट गई है, लौह हथकड़ी टूट गई है। पर उस गहन अंधकार में हमारी मानसिकता आज भी बरकिंघम-पैलेस और व्हाइट-हाउस के किसी खूबसूरत कमरे में क़ैद कर के रखी गई है। जिसमें बजती हल्की-हल्की अँग्रेजी आर्केस्ट्रा की धुनों में हम ईमानदारी और उस लोकतन्त्र को भूल बैठे जो सामंतवादी युग में भी उनका मधुर आभास दिलाते थे।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

साकेत का संकेत

सुना है कि कुछ ही दिन पहले अपने शहर के साकेत की सुनहरी बगिया में किसी बरखा-बहार का जश्न मनाने वाली राजनैतिक पार्टी के नामी-गिरामी लोगों का मजमा लगा था जिसने तरह-तरह के तराने सुनाये गए और दूसरों के तरानों की हंसी उड़ाई गई। खैर यह तो आम बात है की हम पंछी एक डाल के होते हुए भी तराने अलग-अलग होते हैं और अपने तराने की खूब तारीफ करते हैं। उस दिन  सरयू तीरे से आते हुए महाऋषि विश्वामित्र मिल गए तो मैंने परंपरानुसार उनके चरण स्पर्श किया। मेरे कुछ बोलने के पहले ही उन्होने पूछ लिया  वत्स, माता सरस्वती के इस भव्य मंदिर के सामने मार्ग पर असंख्य चार चक्रीय वाहनों का तांता क्यों लगाया गया है?

चला चलीं स्कुलवा की ओर…

सावन का महीना पवन करे सोर। महीना तो जरूर सावन का है मगर सोर के बदले शोर सुनाई दे रहा है डग्गामार वाहनो, नेताओं के निन्यानबे परसेंट झूठे वायदों और पुलिसिया झूठी हनक का। उधर अपना लख्तेजिगर रमफेरवा काले-कजरारे बादलों को देखकर गाता है कारे बदरा तू न जा न जा,’ इधर हाकिम लोग बेहाल मसटरवन के साथ फटीचर बच्चों के दुबले-पतले हाथों में झंडी-झंडे थमा कर नारेबाजी कराते हैं स्कूल चलो, स्कूल चलो, वहाँ दोपहरिया मे भोजन मुफ्त मिलेगा’ यानी एक टिकट में दो शो’ या दो के साथ एक फ्री। पर मैंने बड़े ध्यान से देखा कि उस भीड़ में ज़्यादातर बच्चे रिक्शावालों, खोंचेवालों या दूसरे गरीब-गुरबों के होते हैं जो लापरवाही के दामन में रोते हुए सरकारी या अर्ध-सरकारी प्राइमरी मिडिल स्कूलों में पढ़ते हैं। क्योंकि उन्हे सरकारी चाबुक चलने का डर बना रहता है।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

उपभोक्ता रोता है, बिजली हँसती है


यही हाल तो है अपने खुशनुमा शहर का कि उपभोक्ता बेचारे रोते हैं और कमबख्त बिजली हँसती रहती है। हँसते हैं बिजली के हर ठुमके पर उसके साज़िंदे जो फेसू के खंडरहरनुमा हाल मे बैठ कर बे-वक़्त की शहनाई बजाने और मुफ्त चाय की चुस्की लेने में मस्त रहते हैं। एक दिन फेसू के अँगने मे लगे विशाल पीपल के पेड़ के नीचे बने टुटहे चबूतरे पर शाम के झुरमुटे में बनी-ठनी बिजली से मुलाक़ात हो गई। थोड़ा सन्नाटा था थोड़ी चहल-पहल। मौका-महल देख कर पूछ लिया कभी तुम्हें अपने रोते बिलखते उपभोक्ताओं पर तरस नहीं आता जो दिन भर यहाँ बिलों की मरम्मत कराने में तुम्हारी कमाई खाने वालों के तलुए सहलाने मे लगे रहते हैं? तरस भी आता है और रहम भी, पर क्या करें? फेसू के फ़साने में जो फँसी तो फँसती चली गई

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

सरकार तुम्हारी आंखों में...

सचमुच सरकार की आंखें बड़ी खूबसूरत है। बिल्लौरी जैसी आंखें-कंचे जैसी बड़ी-बड़ी आंखें-चमक ऐसी की हर किसी का दिल धड़क उठे। यही वजह है कि हम जैसे आशिक उसके दीवाने बने घूमते हैं। बात-बात में सरकार की आंखों में झांक कर देखने की हसरत बनी रहती है।
खासतौर से इस हाड़ कंपाने वाली ठंडक में उसकी आंखों में अंगारे दहकते हुए दिखाई देते हैं जिसे मैं फटी कथरी पर लेट और किसी मेहरबान द्वारा बाटें गए कम्बल में से एक अदद अपने ठंडे शरीर पर डाले आंखों के उन अंगारो को देख-देख कर बहुत तो नहीं थोड़ी गर्मी जरूर महसूस कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ, अपने दायरे में कि सरकार तुम्हारी आँखों में दहकते हुए अंगारे काश सीधे मुझ पर पड़ते तो मेरे जैसे फटेहाल आशिक क्यों जगह-जगह अलाव जलाने के लिए चीखते-चिल्लाते?