गुरुवार, 2 सितंबर 2010

भेड़ियों के बदलते रूप

खुदा की इस मख़लूक़ में जितना धँसने की कोशिश कीजिये उतने ही अजूबी चीजें देखने को मिलती हैं। जलचर, थलचर और नभचर की अजूबी सीन देखकर मियां हैरत होती है कि अमां वहाँ कितना बड़ा वर्कशॉप और साँचों का अम्बार लगा है जहां तरह-तरह के प्रोडक्शन होते रहते हैं। सब एक दूसरे से बिल्कुल मुख्तलिफ़।
खैर उन सब बातों को जितना सोचिएगा उतनी ही दिमाग की नसें उलझती जाएंगी। रहना है हमें अपने तंग दायरे में ही और सुनना है एक से बढ़ कर एक खौफनाक आवाज़ें। अभी कुछ दिन पहले अपने यहाँ बाघों के आतंक से लोगों ने बाहर निकलना छोड़ दिया था। उनके स्पेशलिस्ट भी डांव-डांव तलाशते रहे। उनके साथ भूखे-नंगे गाँव वाले भी हाँका लगाते रहे। खुदा का शुक्र किसी तरह उनसे निजात मिली। ऐसा लगा जैसे किसी अमेरिका को सद्दाम से मुक्ति मिली या भारत को फिरंगी हुकूमत से आज़ादी मिल गई। चलिये बाघों का ज़माना गया। एक-दो जो बचे हैं वे कभी-कभी भटक जाते हैं कुछ को तो सरकस वालों ने अपने फ्लाप-शो के लिए पाल रखा है।