गुरुवार, 21 जुलाई 2011

उपभोक्ता रोता है, बिजली हँसती है


यही हाल तो है अपने खुशनुमा शहर का कि उपभोक्ता बेचारे रोते हैं और कमबख्त बिजली हँसती रहती है। हँसते हैं बिजली के हर ठुमके पर उसके साज़िंदे जो फेसू के खंडरहरनुमा हाल मे बैठ कर बे-वक़्त की शहनाई बजाने और मुफ्त चाय की चुस्की लेने में मस्त रहते हैं। एक दिन फेसू के अँगने मे लगे विशाल पीपल के पेड़ के नीचे बने टुटहे चबूतरे पर शाम के झुरमुटे में बनी-ठनी बिजली से मुलाक़ात हो गई। थोड़ा सन्नाटा था थोड़ी चहल-पहल। मौका-महल देख कर पूछ लिया कभी तुम्हें अपने रोते बिलखते उपभोक्ताओं पर तरस नहीं आता जो दिन भर यहाँ बिलों की मरम्मत कराने में तुम्हारी कमाई खाने वालों के तलुए सहलाने मे लगे रहते हैं? तरस भी आता है और रहम भी, पर क्या करें? फेसू के फ़साने में जो फँसी तो फँसती चली गई