मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

आखिर क्यों?

मेरा ‘दायरा। मैं ‘दायरे’ में सिमट रहा हूँ या ‘दायरा’ मुझमें सिमट रहा हैकुछ कह नहीं सकता हूँ। बस इतना जानता हूँ कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बगैर कोई एक पल नहीं जी सकता है। जैसे दो जिस्म एक ज़ान। मेरे ‘दायरे’ के भीतर हालिया अखबारों की कुछ कतरनें बिखरी पड़ीं हैं। बाहर खुली सड़क पर हवा में महँगाईभ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ लोग गुम्में उछाल रहें हैं। लग रहा है कि सचमुच लोकतंत्र का मौसम अपने शबाब पर है। मौसम की फुहार है। सुहानी भी संभव है और जानलेवा भी। सुहाना मौसम उनके लिए जो अपने बरामदे मे बैठे-बैठे जाम लड़ाते हुए फुहार का मज़ा लेते हैं। जानलेवा रमफेरवा जैसे फ़टीचर लोगों के लिए जिनके मिट्टी के घरों में पानी समकते हुए ढहने का डर बना रहता है। मुझे भी रह-रह कर डर बना है कि कहीं इन फुहारों से मेरे ‘दायरे’ की दरो-दीवार न दरक जाए। इसमें कोई दर्शन नहींकोई फिलासफ़ी नहीं। एक हकीकत जिसे मैं अपने दायरे में बैठा झेल रहा हूँ।

कुछ महसूस हुए पल को लिखना चाहता हूँ। अपने अजीज़ों में बाँटना चाहता हूँ पर लिखने के नाम से डर लग रहा है। क्योंआखिर क्योंइसलिए कि कहीं देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल के सींखचों के पीछे न डाल दिया जाये। क्योंकि सुना है कि किसी ने उल्टी-सीधी आड़ी-तिरछी रेखाओं के सहारे दिल की बात कोरे कागज़ पर उकेरी तो उसे देशद्रोही करार कर के जेल मे डाल दिया गया। किसी ने दकियानूसी बातों के खिलाफ कुछ नया लिखने का प्रयास किया तो कुछ सिरफिरे लोगों ने उस पर फतवा जारी करके मौत के घाट उतारने की धमकी दे डाली।

लोकतंत्र के सुहाने मौसम में विदेशी कंपनियों को सड़क किनारे गोलगप्पे का ठेला लगाने और आलू प्याज़ बेचने की बे-मौसम बारिश कुछ गले नहीं उतर रही है। मेरे दायरे के बाहर-भीतर ऐसी अजीबो-गरीब आकृतियाँ ऐसी गंदी हरकतें करतीं दिखाई दे रहीं हैं की इंसानियत शर्मसार हो रही है। कभी-कभी महसूस होता है कि दूसरे नापाक ग्रहों के नामुराद बाशिंदे मेरे दायरे पर आधिपत्य जमाने के लिए इकट्ठे हो गए हैं जो पानी की जगह डीजल और पेट्रोल से अपनी प्यास बुझा रहें हैं। हमदर्दी का दिलकश मुखौटा पहन कर मेरे दायरे मे मेरे पास बैठकर मेरे अनगिनत घावों पर मलहम लगाने का स्वांग रचते हैं पर बाहर निकल कर अपने भाई-भतीजों के साथ घाव से बहते पीप को पी कर अपनी सेहत सुधारने के चक्कर में रहते हैं। आखिर क्यों?

क्योंवही एक यक्षप्रश्न हमेशा सालता रहता है। सुना है कि अपने मीरसाहब का चूल्हा कई दिनों से ठंडा पड़ा है। रमफेरवा गाँव भर में कहता फिर रहा है कि बिन पानी सब सून। एक आदमजात मेहरबान कुर्सी-नशीं नगाड़े की चोट पर ऐलान करता है कि किसान भाइयों को पानी मुफ्त दिया जाएगा। मगर जब सूखे तालाबप्रदूषित नदियाँ और सूखी नहरों का नज़ारा सामने दिखाई देता है तो कुदरत के भरोसे अपने दायरे की टपकती छत को एक टक निहारता रह जाता हूँ। कहीं सामने ज़मीन पर बिखरी पड़ी अख़बार कि कतरनें गल न जाएँ इसलिए बाप-दादा के ज़माने की पुरानी पतीली लगा देता हूँ। छत से पानी टपटप करके गिरते हुए जब पतीली भर जाती है तो कुछ पीकर गले की ख़राश मिटा लेता हूँ। और बाकी को बाहर बज़बज़ाती नाली में फेंक देता हूँ। सहारा कुदरत द्वारा टपकाती जल की बूँदों का और भरोसा अपने भाग्य का। खुशी विरासत में मिली इस दायरे की जिसने इस छोटी सी ज़िंदगी के सैकड़ों उतार-चढ़ाव देखे हैं। जिसने सामंतवादी शामियाने में आतिशबाजियों का मज़ा भी लिया है। वहीं सफ़ेद चमड़ी वाले एलियन की धमाचौकड़ी भी देख-देख कर मन ही मन कुढ़ता भी रहा हूँ। मंदिरों की घंटियाँ भी सुनी है और मस्जिदों से आने वाली सदायें भी।

सब के बीच हमेशा अपने इकलौते ‘दायरे’ ने अपना वजूद बनाए रखने में खूब जद्दोजहद करके इस मुकाम तक पहुंचने में कामयाबी हासिल की पर अफसोस हमने जहाँ से सफर शुरू किया था वहीं फिर पंहुच गए। अब तो अपने हुए पराएदुश्मन हुआ ज़मानाजो पहले नहीं था। न कभी देखा सुना था। जब लोकतंत्र रूपी मलयगिरि से चलने वाली शीतल हवाएँ आकाश से बातें करती ऊँची हवेलियाँ अपनी तरफ मोड़ लें तो कोई कर ही क्या सकता हैसावन की ठंडी फुहार भी उन्ही की संगमरमरी छतों पर गिरती है और सूरज की पहली किरण भी सबसे पहले उन्ही हवेलियों पर अपनी आभा बिखेरती हैं। रही अपने दायरे की बात तो उसके बारे में कुछ भी कहने से अच्छा चुप रहना ही ठीक है क्योंकि आजकल भाग्यविधाता भगवान भी उन्ही के वश में है। जिसके पास जितनी काली सफ़ेद लक्ष्मी-गणेश की जोड़ी है उसका उतना ही बड़ा पावर मेरे जैसे दायरों पर हावी होता दिखाई देता है। ऐसे में मेरे ‘दायरे’ के बाहर लोग किराये के भोंपू पर ‘भारत-बंद’ कराने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती करते सुनाई दे रहें हैं। एक तरफ हम अखंड-भारत के हिमायती बने घूम रहें हैं और दूसरी तरफ भारत-बंद का हो-हल्ला। अज़ब हैरत की बात है। कभी गरीब-गुरबों के नाम से पहचाने जाने वाले भारत बंद कराने वाले शायद भूल गए हैं कि उनका क्या होगा जो अगर रोज़ कमाएँ नहीं तो उनके बच्चे भूखे एक ही कथड़ी में सिमट कर सो जायेंगे।  समस्या जस की तस रहेगी। मैं अपने तंग ‘दायरे’ के एक कोने में सिमटा हुआ सोंच रहा हूँ कि एक ज़ुबान से मंहगाईभ्रष्टाचार और दूसरे घोटालों से घिरी सरकार के ख़िलाफ पहले न-न और उसी ज़ुबान से बाद में हाँ-हाँ। आखिर क्योंइसी देश में कभी कहा गया था ‘प्राण जाय पर वचन न जाए। साधुवाद की पात्रा है वह एक मात्र नारी जिसने दिल्ली के तख्ते-ताऊस की लालच छोड़ कर भूखी-नंगी जनता की शक्ति का प्रदर्शन कर के आवाज़ बुलंद कर डाली सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

मेरे आजतक समझ में नहीं आ रहा है कि अपने भीनी-भीनी खुशबूवाले लोकतंत्र में जनता बड़ी है या सुनहरा तख्ते-ताऊस। मेरी समझ से मानव निर्मित तख्ते-ताऊस अस्थाई है और मानव-मानव एक समाज स्थायी जिसे कुदरत ने अपने हाथों से गढ़ा है। फिर उसके लिए इतनी मारा-मारी क्योंजनता ही जिसकी ज़िंदगी हो फिर उस ज़िंदगी से इतनी रुसवाई क्योंअपने कस्मेंवादों से मुकरना कैसाक्या सचमुच आज की राजनीति का यही तागाज़ा हैइसका मतलब हमने अतीत की गलतियों से कोई सबक नहीं लियावक्त आ गया है कि हमारे रहनुमा समझें जनता कोई भेंड़ नहीं जिन्हे हम अपने मनमाने ढंग से हाँकते रहें