शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

दिमाग़ का फितूर

1- हो सकता है कि यह मेरे दिमाग़ का फितूर हो या मेरा भावुक दिल जो समाज के लोगों में आदत बन चुकी बातों में उलझा रहता है। अक्सर क्या आमतौर से जब कोई लड़की शादी के बाद अपने सुसराल जाती है तो कुछ दिनों तक सबकुछ मामूल के मुताबिक चलता है मगर फिर शिकवा-शिकायत का दौर शुरू हो जाता है। सुसराल पक्ष वाले सारा दोष दुल्हन बनी लड़की पर मढ़ना शुरू कर देते है। लेकिन जब उसी सुसराल की कोई कन्या बहू बन कर दूसरे के घर जाती है तो मायके वाले अपनी बेटी के सुसराल वालो को नाकारा साबित करते हैं। यह दोहरा मापदण्ड क्यों।
2- कहा जाता है कि जनतंत्र में सभी समान होते हैं। भारतीय संविधान अपनी भूमिका में तस्दीक करता है। वहां किसी प्रकार की शैक्षणिक या तकनीकी योग्यता निर्धारित नहीं की गयी है। मगर लगता है कि वे सारी बातें संविधान के सफों तक ही सिमट कर रख दी गयी हैं। हर चुनाव में बस वही घिसे-पिटे और हर तरह से साधन-सम्‍पन्न चेहरों को उम्मीदवारी के लिये हरी झंडी दिखायी जाती है बल्कि अगर गुस्ताखी माफ हो तो कहना बेजा नहीं होगा कि टिकटों की खुलेआम नीलाशायमी की जाती है। ऐसे मे स्वाभाविक है कि जिनके पास धन, छल और बल हो। इस तरह के जनतंत्र में किसी रमफेरवा और किसी जुम्मन मियां को कौन पूछने वाला है जो जमीन से जुड़े रहने के बावजूद जनतंत्र की ज़मीन से महरूम समझे जाते हैं। शायद यहां वंश परम्परा का चलन तो है मगर रिटायरमेन्ट का कोई प्रावधान नहीं है।
3- दहेजप्रथा के जड़ से उन्मूलन के लिये रोज कानून की क़वायदे होती देखी जाती हैं। अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा अभिनीत नुक्कड़ नाटकों को प्रचार का माध्यम बनाया जाता है। फिल्मों के बोतल में दहेज-भूत को जलाने का दृश्य प्रस्तुत कर के भुक्तभोगियों को तसल्ली दी जाती है पर ताज्जुब होता है कि यह खून चूसने वाले पिशाच से समाज को निजात क्यों नहीं मिल पा रही है। शायद इसलिये कि क़ानून बनाने वाले सम्भ्रान्त लोग इस आतंकवाद को खतम नहीं करना चाह रहे हैं क्योंकि पुत्र होने पर वह गहरी नींद में खो जाते हैं और पुत्री के समय वे जाग कर देखे हुये नुक्कड़ नाटक के दृश्य अच्छे लगते है। वाह ऐसे समाज का क्या कहना।