सोमवार, 29 दिसंबर 2008

किस्सा-ए-बैकडोर

एक डाल पर तोता बोले, एक डाल पर मैंना। मैंना ने तोते से कहा, प्रियतम जब तक आतंकवाद में फायर झोंकने के लिये लोग क़वायद कर रहे हैं कोई किस्सा-कहानी सुनाते रहो वरना फिर इलक्शन के भोंपुओं में न मैं तुम्हे सुन सकूंगी और न तुम मुझे। तुम डाल-डाल तो हम पात-पात उड़ते फिरेंगे। तोते ने गरदन घुमाकर कहा, कहानी-किस्सों पर अब कौन ध्यान देता है प्रियतमे। आजकल तो पोस्टरो और बैनरो का ज़माना है। शार्टकट देखकर लोग सब कुछ समझने के आदी बन गये हैं। लेकिन मेरी प्यारी मैना ग़ौरतलब बात यह है कि सिर्फ पोस्टर-बैनरों को देखकर उछलते हुये गाना जब ऐसे चिकने चेहरे, तो कैसे न नज़र फिसले, जिन मेरिए, कोई बुद्धिमानी नहीं है। चाहिये हक़ीक़त की गहराई में डुबकी लगाने की। पर आजकल किसी को फुरसत कहां है। सब चाहते है कि बिना पानी में उतरे ही तह में से कीमती से कीमती शंख सीप मोती झोली में आ जायें। क्योकि मामला बैकडोर का ऐसा है जिससे लाठी टूटने की नौबत भी न आए और सांप भी मर जाये। बस यहीं से किस्सा-ए-बैकडोर चालू होता है।
कई वर्षो पहले की बात है। गया का शर्मा होटल पूरे बिहार में प्रसिद्ध था। खूब टिपटाप। काफी फसकिलास किस्म के लोग अपना मनपसन्द खाना खाने वहां जाया करते थे। चन्दन-तिलक लगा और झकाझक श्वेतवस्त्र धारण करके स्वयं श्रीमान शर्माजी अपनी गद्दी पर विराजमान रहा करते थे। इत्तिफाक से एकदिन किसी यात्री की थाली में छोटी-छोटी मुलायम उँगलिया मसालेदार शोरबे में मिलीं तो हड़कम्प मचगया। रातोंरात गया का शर्मा होटल सुपरस्टार बनकर चर्चा का विषय बन उठा। काफी तहकीकात के बाद होटल के बैकडोर में एक ऐसे कुँये का पता चला जो अत्यन्त मासूम बच्चों की लाशों से पटा पड़ा था। न जाने कब से बैकडोर से यात्रियों की चमचमाती थाली में मासूमों का मांस परोसा जा रहा था। मासूम मैना किस्सा सुनकर चिहुंक उठी। तोतेचश्म तोता बोला, अरे मेरी प्यारी अनारकली एक बिहार के शर्मा होटल के बैकडोर का किस्सा सुनकर तुम दहल उठी। ज़रदारी की तरह कितना कमज़ोर दिल है तुम्हारा। मैना प्रिये, उस दिन राजधानी के आँचल में आबाद नोयडा के निठारी काण्ड को हाईलाइट करने में तो तुम खूब फुदक-फुदककर चैनलवालों को जोश दिला रही थी। क्यों। अरे इसमें चिहुँक उठने की क्या बात है मेरी हीर, मैं हूँ न। हॉ यह जरूर है कि भोपालवालों की तरह निठारीवालो को भी बैकडोर मे पकती खिचड़ी के स्वाद से महरूम रहना पड़ रहाहै।
आजकल चन्द्रकान्ता संतति की तरह किस्सा-ए-बैकडोर को पढ़ना लोग खूब पसन्द कर रहे हैं। है भी रास्ता बैकडोर का बड़ा दिलचस्प। रास्ता वैसे है तो जरा घुमावदार, पर थोड़ी सी कोशिश करने पर मनचाही मंजिल मिलते देर नहीं लगती है। मैना मन ही मन प्रफ्फुलित होकर बैकडोर के और भी दिलचस्प किस्से सुनने के लिये मचल उठी। तोताराम ने ऐसे किस्सो का पुलिन्दा खोलना शुरू कर दिया। मेरी हमदम प्यारी मैना आम लोग तो इलेक्शन हार जाने के बाद ठिसुआ कर बैठ जाते हैं पर जिनमें जरा भी दम-खम और बैकडोर की चक्करदार सुरंग में धंसने की फितरत होती है वह बैकडोर से पहुंच जाते है अपर हाउस की चौखट तक। इम्तहान में फेल होने पर भी प्रथम श्रेणी के कालम में उनका नाम छप जाता है। और भी दिलचस्प किस्सा यह है कि सफेदपोशी के बैकडोर से वे प्रदेश के माफिया होने का तमग़ा हासिल कर रातोंरात सुपरस्टार बन जाते हैं। बड़े अजीब अजीब किस्से हैं। सुनाने लगेंगे तो ज़िन्दगी तमाम हो जायेगी मैना। अब देखो न, मुल्क में तमाम बेरोजगार मुंशीपल्टी की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर रोजगार की तलाश मे भटकते नज़र आते हैं। कर्जा-पानी लेकर आवेदन-पत्र भरते हैं। पर पेपर आउट होने के हंगामे से सिर्फ निराशा हाथ लगती है। लेकिन बैकडोर का करेक्ट पता जिन्हे मिल जाता है वे सरकारी दामाद बनकर मौज मारते दिखायी देते हैं। कभी किसी की नज़र में चढ़ गये और हो-हल्ला मचा तो मुअत्तली के मुहाफिजखाने में जमा करा दिये जाते है। मगर भला हो बैकडोर का कि बैकडोर से उनकी फाइल न जाने कहाँ चोखा-बाटी खाने चली जाती है। इंक्वायरी आफिस खोल दिया जाता है, कमीशन की कबूतरबाज़ी चलती है और मेरी दिलोजान से प्यारी मैना, उधर बैकडोर में चिकन-बिरयानी पकती रहती है बिल्कुल गया के शर्मा होटल की तरह। तोते मियाँ ने एक बार गर्दन घुमाकर उधर जेल की चहारदीवारियों के पार देखा तो बड़े तरून्नुम से अपनी मैना का दिल जीतने के लिये कहा लो बैकडोर का एक और किस्सा याद आ रहा है। मैना फुदक कर उसी डाल पर बैठी जिस पर तोता बैठा था। उसने धीरे से तोते के कान में कहा, प्रियतम यह लोग तो वही नामुराद लोग हैं जो गाँव के गरीब लोगों की बहू-बेटियों की सरेराह इज्ज़त लूटी थी। अरे यही तो मैं भी बता रहा था। गौर से देखो कैसी मस्ती उड़ा रहे है। हम जैसे निरीह प्राणी पिंजड़े के नाम से कांपने लगते है पर इनके लिये तो जेल नहीं किरकिट का खेल है। तोते ने मैना की बात छीन कर कहा य़ह सब कमाल बैकडोर का है मेरी सोनिये। जब कभी जनपद के ज़िल्लेदारों की जमात जागती है तो अखबारनवीसों को इकठ्ठा करके लाइन क्लीयर का गुडफील करा दिया जाता है, काग़ज़ की कश्ती में सबकुछ सुरक्षित बता कर समीक्षा कर दी जाती है लेकिन बैकडोर से गाना बजता रहता है सब गोलमाल है भाई सब गोलमाल है। समझ में आया कुछ मेरी भोली मैना। यही समझ लो कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। कहाँ-कहाँ किस्सा-ए-बैकडोर की हक़ीक़त जानने के लिये माथा खपाती फिरोगी। बैकडोर का किस्सा अगर सुनाया जाये तो सास भी कभी बहू थी के एपीसोडों की तरह खिचता चला जाएगा। बैकडोर के लिये सुना जाता है कि सागर-मन्थन के समय यह भी एक अमूल्य रत्न निकला था जिसे बाद में अलादीन के जादुई चिराग़ की तरह एक हैरतअंगेज़ चिराग़ बनाकर हिन्दुस्तान की जम्हूरियत के पार जाने के लिये हिफाज़त से रख दिया गया था। कल तक शान्ति, न्याय और भाईचारे के नाम पर गले मिलने वालो ने ताबड़तोड़ कई धमाके किये तो उठते जानलेवा धुयें मे न रहा तोता, न रही मैना। रह गया ब्लैकहोलों की तरह बस बैकडोर जिसमें आज भी कुछ लोग तन्दूर में रोटी सेंकते नज़र आ रहे हैं। कौन पूछता है तोता-मैना की कहानी।

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

कहानी की कथावस्तु

कहानी की कथावस्तु मध्यकालीन हिन्दी कवि घनानन्द और नर्तकी सुजानबाई की प्रेम-कहानी पर आधारित है। वह समय था मुग़लसम्राट मोहम्मद शाह रंगीले का। रंगीन मिजाज-बादशाह के दरबार में घनानन्द मीर-मुंशी जैसे अहम ओहदे को सम्भाल रहे थे जबकि सुजानबाई शाही रक़्क़ासा के ख़िताब से नवाज़ी गई थी। दरबारी कवि यानी बादशाह के मीरमुंशी घनानन्द गाते अच्छा थें। धीरे-धीरे दोनो मुहब्बत के आगोश में सिमटते चले गये। मुहब्बत की राह में रोड़े तो आ ही जाते हैं। दोनों की परवान चढ़ी इस मुहब्बत को देख कर कुछ दरबारी जलने लगे।
एकदिन जब दरबार लगा हुआ था और रंगीनमिजाज़ शंहशाह का मिज़ाज़ गीत-संगीत सुनने के लिये बेक़रार हुआ जारहा था, तो एक खास दरबारी ने बादशाह से मीरमुंशी घनानन्द के गाने की इल्तजा कर डाली। शंहशाह ने घनानन्द को गाने का हुक्म दिया। वह चुपचाप बैठे रहें। एक दरबारी ने तज़बीज़ पेश करते हुये कहा कि हुज़ूर साज़ के बिना आवाज़ में फीकापन होता है। यक़ीन मानिये कि शाही रक़्क़ासा सुजानबाई के आते ही मीरमुंशी की जादूई आवाज़ फिज़ां को खुशगंवार बना देगी। सचमुच वही हुआ। सुजान को दरबार में तलब किया गया। उसे अपने सामने देखते ही घनानन्द ने गाना शुरू कर दिया। शंहशाह बाग़-बाग़ हो उठे। लेकिन बेखुदी में भूल गये कि वह बादशाह की तरफ पीठ और एक रक़्कासा की तरफ रूख़ करके गारहे थे जो कि दरबारी वसूलों के ख़िलाफ था। शंहशाह ने घनानन्द के इस ज़ुर्म के लिये सज़ाएमौत का हुक्म सुना दिया। बाद में दरबारियों की अपील पर उसे दिल्ली छोड़ कर जाने का हुक्म सुना दिया। बाहुक्म शंहशाह के घनानन्द राजधानी दिल्ली से चलते वक्त सुजानबाई को भी साथ चलने को कहा लेकिन सुजान ने साफ इंकार कर दिया क्योंकि उसे शाही रक्कासा के रूतबे पर बेपनाह नाज़ था। घनानन्द शाही पद छिन जाने के बाद महज़ एक मामूली सड़कछाप कवि या गीतकार रह गया था। सुजानबाई की इस बेवफाई पर घनानन्द को बड़ा धक्का लगा। आखिरकार उसने वृन्दावन की राह पकड़ ली। घनानन्द कृष्णभक्ति मे लीन हो गये। पर उनकी सारी रचनायें बृजभाषा में सुजान को सम्बोधित करके होती थीं। यानी अपनी प्रेमिका सुजान के माध्यम से वह कृष्ण को पाना चाहते थे। वृन्दावन की गलियों मे उनके गीत गूँजा करते थे। सुजान के प्रेम में वह पागलों की तरह दर-दर की ख़ाक छाना करते थे।
उसी समय दिल्ली पर नादिरशाह का हमला होगया। उसने खुलकर क़त्लेआम किया। किसी ने उसे बताया कि वृन्दावन में बादशाह के मीरमुंशी के पास अकूत दौलत है। नादिरशाह की फौज उधर बढ़ी। कत्लेआम का खौफनाक खेल चलता रहा। उसके ज़ुल्मी सिपाहियों ने जब घनानन्द से जर्र यानी दौलत की मांग की तो उसने वृन्दावन की तीन मुठ्ठी धूल देते हुये कहा कि मेरे पास इस रज यानी मिट्टी के सिवा कुछ भी नहीं है। चिढ़कर नादिरशाह के सैनिकों ने घनानन्द के दोनो हाथ काट दिये।
उधर नादिरशाह के क़त्लेआम से भयभीत होकर लोग दिल्ली से भागने लगे। ऐसे ही भागनेवालों का एक काफिला मथुरा-वृन्दावन की तरफ से गुज़र रहा था जिसमें कई दरबारियों के साथ सुजान भी थी। अचानक उसकी नज़र तड़पते हुये घनानन्द पर पड़ी। घनानन्द तड़पते हुये गा रहा था अधर लगे हैं आनि के पयान प्रान, चाहत चलत ये संदेसो लै सुजान को । सुजान यह दुर्दशा देखकर घनानन्द की तरफ दौड़ी ही थी कि नादिरशाह के सैनिको ने फिर हमला बोल दिया। लोगो में भगदड़ मच उठी। भीड़ धक्का-धुक्की में गिरते-पड़ते घनानन्द का नाम ले-लेकर चिल्लाती रही। भीड़ के एक झोंके से वह घनानन्द के शरीर पर गिर पड़ी। दोनो को रौंदते हुये लोग भागे चले जारहे थे। फ़िजाँ मे घनानन्द के शब्द गूँज रहे सुजान।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

आखिर क्या चाहते हैं आतंकवादी?

मैं आज तक नहीं समझ सका हूँ कि सरेराह चलते-चलते आतंकवादी चाहते क्या है। वे किस अनजानी मंजिल की तलाश में अल्लाह के बन्दों को बेवक्त मल्कुन मौत को बतौर तोहफा दे रहे हैं। क्या उन्हे नही मालुम कि हश्र के दिन जब उनसे अल्लाह ताला उनके नापाक इरादों के बारे में पूछेगा तो वे क्या जवाब देंगे।
यूँ तो आतंकवाद का खौफ कोई नया नहीं है पर इसके मुखौटे बदलते रहे हैं। पौराणिक युग में आतंकवाद का पर्याय राक्षसवाद माना जाता था। उस धार्मिक-युग में उन ऱाक्षसी प्रवृति वाले आतंकवादियों का काम साधु-सन्तों तथा धार्मिक लोगों के अनुष्ठानों में विघ्न डालकर भयभीत करना हुआ करता था। इस्लाम भी इससे अछूता नहीं रहा। दीने-इस्लाम का प्रचार जब शुरू हुआ आतंकवादियों ने ही पैगम्बरे-इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब को मक्के से मदीना जाने पर मज़बूर किया था। आतंकवाद की एक और मिसाल करबला के मैदान में देखने को मिलती है जहाँ हसन और हुसैन को सपरिवार तड़पा-तड़पा कर मारा गया। ईसामसीह और उनके चाहनेवालों को किसने सूली पर लटकाया। वहाँ भी किसी न किसी रूप में आतंकवादी प्रवृत्ति का आभास मिलता है। उस समय भी आतंकवाद के उन विभिन्न रूपों से आतंकित लोगो ने उसे जड़ से मिटाने की जी तोड़ कोशिश की थी मगर प्रयास पूरी तरह सफल नहीं हुआ। शायद ऐसी ही राक्षसी प्रवृत्ति वाले आतंकवाद को समूल रूप से नष्ट करने के लिये देवासुर संग्राम हुआ था और दावा किया गया था कि पृथ्वी को आतंकवाद से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया।
आज जब दुनिया सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर उड़ान भर रही है, हर कोई इन्सानियत की माला जपते दिखाई दे रहा है और पिछले विश्वयुद्धों की तबाही-बरबादी से द्रवित होकर विश्व-बन्धुत्व को जीवन से जोड़ने का भगीरथ प्रयास करने में जुटा दिखाई दे रहा है तो फिर सबके बावजूद आतंकवाद की बेहयायी कंटीली झाड़ियाँ क्यों सरसब्ज होरही हैं। कौन इनमें खाद-पानी दे रहा है। आदम की औलादों में इतना अन्तर क्यों। आखिर आतंकवाद की नापाक राहों पर क़दम बढ़ाते लोगों का मक़सद क्या है। मुझे तो ऐसा लगता है कि जरूर इसमें किसी ऐसी महाशक्ति का हाथ हो सकता है जो बैकडोर से भाई को भाई से और पड़ोसी को पड़ोसी से मिलकर रहने नहीं देना चाहता है। शायद वही बात कि चोर से कहे चोरी करो और साह से कहे जागते रहो। इस खतरनाक मुद्दे पर दुनिया भर के इन्सानियत-प्रिय लोगों को खुले मन से बहस करना चाहिये क्योंकि जैसे आज हमे मुम्बई पर आंसू बहाना पड़ रहा है, हो सकता है कि कल कँराची, दुबई, पेचिंग या मारीशस की आबाद सड़कों पर तड़पती लाशों पर मातम न करना पड़े। अन्त में गहन मन्थन के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि मरदूद आतंकवादी अपने आँका शैतान के हाथों मे खेलते हुये इन्सानियत को खत्म करके बीरान-बंजर ज़मीन पर हुकूमत करने का ख्वाब देख रहे हैं। मगर कबीर की उस बानी को हमेशा याद रखना चाहिये कि मुआ खाल की सांस से लौह भस्म होय जाय।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

लाश वही, कफ़न बदला है

युग बदला। समय के साज़ पर नवगीत की नयी तान छिड़ी। खोटे सिक्को की खनक से ध्यान हटा। नये चमकदार सिक्कों पर ध्यान जमा। किसी ने ठीक ही कहा था कि नये सिक्के पुराने सिक्कों को चलन से दूर कर देते हैं। अब यही बात अपने ही लिखित एक नाटक के उस संवाद से सिद्ध हो जाती है जिसे नाटक के एक पात्र जोसेफ द्वारा कहलाया जाता है —"सैकरीफाइस करने वाले हिस्ट्री के पन्नों में खोगये और जो बचे  भी हैं वे गन्दी सी बस्ती के टूटे से घर में जिन्दगी की आखिरी घड़ियाँ गिन रहे हैं।" क़ाबिलों के क़बीलेवाले अक्सर कहा करते हैं कि इतिहास के पन्ने हमेशा अपने आगोश में पुरानी यादों को ज़िन्दा रखते हैं। पर आजकल वे सब सिर्फ किताबी बातें रह गई हैं।

इतिहास  की बात उठती है तो सिकन्दर से लेकर सामन्ती-सरबराहों की बहुत याद आतीहैं। उनके अकूत खजाने की कहानियाँ, ऊँची हवेलियों का तामीरी-शौक और ज़ुल्मोसितम की दिल दहलाने वाली हनक आज भी याद आती हैं। फर्क बस इतना है कि उस ज़माने में गद्दीनशीन होने के लिये बाकायदा तिलक किये जाने की रस्म का चलन था पर आज तिलक नहीं सिर्फ एक अदद काग़ज यानी बैलेटपेपर की जरूरत होती है। भगवान भला करे उनका जिन्होने इतिहास के पन्नों की हिफ़ाजत के लिये दिलकश जिल्द बदल कर पुरानी किताबो को अपनी मेज़ पर सजा रखा है। वही पुराने पन्ने, वही पुरानी तस्वीरें और वही शाही- खिलत में रोबीले नाक-नक्श वाले तख्तनशीन शाह से लेकर शंहशाह तक। कोई माने या न माने अपने को पक्का यकी़न हो गया है कि हक़ीक़त में ज़माना तब्दीलियो के आगोश में खेल रहा है। आदि मानव पथरीली चट्टानों और बियाबान जँगलात  को पार करता हुआ आज के कंकरीटी और इस्पाती जंगलो मे ठहर कर अपना बसेरा बसाने की धुन में पागल हुआ दिख रहा है। इस लम्बे बहुत लम्बे सफर में कुदरत ने उसके नाक-नक्श में भी बहुत से परिवर्तन कर डाले मगर उसके ईगो में कोई फर्क नहीं आया। राजतंत्र से क़दम बढ़ाते हुये उसने प्रजातंत्र की चौखट पर पहुँचकर अपने को बहुत खुशनसीब समझा पर उसके अन्दर बैठा किसी शहंशाह का वजूद नहीं बदल सका। दूसरी तरफ लाचार बेसहारा ईगोरहित मज़बूर बिलबिलाते इन्सानी कीड़े दिखाई देते हैं। जिनका वजूद सिर्फ इन्सानी खाल में दबा-कुचला छुपा होता है। आखिर में मजबूर होकर कहना पड़ता है कि लाश वही है सिर्फ कफन बदला है। यह सही है कि राक्षसी प्रव्रृत्ति वाले राजा और शहंशाह जमींदोज़ हो गये मगर उनकी नापाक रूहें आज भी आदम की अहंकारी औलादों के भीतर किसी कोने में बैठी वही पुरानी हनकभरी शानशौकत की याद दिलाया करती हैं। बस फर्क इतना सा है कि उस वक्त दुधारी शमशीर देखकर प्रजा नाम की चिड़िया अपने घोंसले में दुपक जाया करती थी और आज जनता हिम्मत के साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ने का जतन तो करती है मगर थक-हार कर किसी कोने में मुँह छुपाने की जुगत में बेसुध दिखती है। लेकिन वहाँ भी गोली-बन्दूक से लैस शिकारी अपनी नापाक फितरत से बाज नहीं आते हैं कभी किसी जाति विशेष का मुखौटा लगा कर, कभी किसी खास धर्म-मज़हब की दुहाई देकर और कभी किसी खासमखास प्रान्त की कँटीली झाड़ियो में छुपकर। प्रजा नाम की हरदिलअज़ीज़ भोली-भाली पंख फड़फड़ाती चिड़िया को जनता नाम से जन्नत का लालच देकर सियासत के खूबसूरत पिंजड़े में कै़द कर लिया गया। नतीजा यह है कि न उसे सरसब्ज डालियों पर फुदकने का मौका मिला और न परवाज़ करते हुये जन्नत का लुत्फ उठाने का। मौजूदा शाहो- शंहशाहो का तुर्रा यह कि हम अपनी जान देकर भी तुम्हारी हर मुमकिन हिफाज़त करने से पीछे नहीं हटेंगे। फटेहाल और गूंगी जनता के बीच जब कोई चिल्लाता है कसमें,वादे, प्यार-वफा सब झूठे हैं, झूठों का क्या तो लोग उसे पागल दीवाना मानकर टाल जाते हैं या किसी पागलखाने के सीखचों के भीतर ढकेल देते हैं।

प्रजा का बदबूदार चेहरा बदल कर जनता को बेपनाह हसीन मेकअप चढ़ाया तो गया और उसे सियासती शामियाने मे सामने पड़े सोफों पर बैठाकर फोटो पर फोटो खीचते हुये दुनिया को बताने की पुरजोर कोशिश की गयी है कि यह जनयुग है और आज सबकुछ जनता के लिये, जनता का, जनता के जरिये चल रहा है पर जब अधर्मी कारबाइनों से  आतंकी नापाक गोलियाँ बरसती हैं तो सीधे जनता के सीने को छेदती है। क्योकि उन गोलियां उगलती मरदूद कारबाइनों के सामने होती है सीधी-सादी निहत्थी जनता। रही आधुनिक शाहो-शंहशाहो की बात तो रूप उनका चाहे जो भी बदल गया हो पर आदतन शाही लबादा और मखमली जूतियाँ पहनने में देर लगना स्वाभाविक है।

विश्वामित्र से लेकर बुश तक ने आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने के लिये न जाने क्या-क्या दाँव-पेंच चलाये और राजाओ-महाराजाओ ने प्रजा की रक्षा के लिये कभी-कभी तुष्टिकरण-नीति के अन्तर्गत सन्धि का सरगम भी अलापा मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात जैसा हासिल हुआ। फर्क इतना जरूर हुआ कि विश्वामित्र के समय में डिस्टर्ब करने लिये मारीच जैसे आतंकवादी समाज के भले लोगों के बीच राक्षस कहे जाते थे और आज के सभ्यता की बुलन्दी को धराशायी करने का नापाक खेल खेलने वाले उग्रवादी या आतंकवादी। मतलब यह कि लाश वही है सिर्फ कफ़न बदल गया है। महाबली रावण से लेकर नादिरशाह,  अब्दाली, हलाकू और चंगेज़ी जलाल ने निर्दोषो का कत्लेआम भी किया बिल्कुल डायरेक्ट नरेशन में लेकिन आज के आतंकवादी तो इनडायरेक्ट नरेशन में कब किसके हवनकुंड में अंडों के साथ कूद पड़ेंगे कुछ पता नहीं और हमारी रक्षा के कसमें-वादे खाने वाले इसी उधेड़बुन में पड़े उँघते दिखायी देते है कि लाठी भी न टूटे, साँप भी मर जाये। मेरा अपना ख्याल है कि राक्षसी-प्रवृति तब भी थी, आज भी है और कल भी रह सकती है। रूप भले अलग-अलग हो। न जाने कब देवासुर-संग्राम के लिये रणभेरी बजे। अभी तो यही सोच बनती है कि वक्त के अनुसार सबके सिर्फ आज कफ़न बदल गये हैं, लाश वही पुरानी सड़ी-गली है। लाश राजा-महाराजाओ की भी हो सकती है और आज के महाराक्षसों की भी।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

पीता नहीं हूं, पिलायी गयी है

हालांकि किलिष्ट या जबड़ा दुखन साहित्य के ठेकेदार मेरी लिखावट को बहुत सस्ती और सतही समझते होंगे मगर मैं भी अपनी आदत से लाचार हूँ। करूं तो क्या करूं। खैर छोड़िये। किसका-किसका मुंह पकड़ता फिरूं। बात असल में यह है कि अभी कुछ ही दिन पहले बजुबानी अपने अखबारनवीसों के आबकारी-आयुक्तों की एक महफिल सजी। पता नहीं क्यों मियां आबकारी विभाग का नाम कान में पड़ते ही जुबां पर बरबस वह गाना आ जाता है ‘मुहब्बत में ऐसे क़दम लड़खड़ाए ज़माना यह समझा कि हम पी के आये।’ क़दम के साथ कलम का बहकना बिल्कुल बटनेचुरल है भाई। ख्वाबों-ख्यालों में बस साक़ी, शराब, मयखाना और पैमाना के तसव्वुर करते रहने को दिल चाहता है। जी हुजूर, तो मैं उस खास ख़बर की तरफ अपने चाहने वालों को मुख़ातिब करना चाहता हूँ जिसमें आबकारी-आंगन में टंगड़ी पसारे बैठे आला हाकिम ने अपने मातहतो के पेंच कसते हुये कहा था कि जाम से जाम टकराने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिये। यानी शराब की खपत बढ़ायी जानी चाहिये। अगर खपत नहीं बढ़ी तो समझ लो किसी को बख्शा नहीं जायेगा। किसी भी तरह राजस्व बढ़ाने की बागडोर सम्भालना पड़ेगा। खबर पढ़कर दिल झूम उठा। उसके आगे की खबर पढ़कर तो याद आ गया कि ‘न पीना हराम है न पिलाना हराम, पीने के बाद होश में आना हराम है।’ सुनकर बेपनाह खुशी हुयी कि अब आज़ादी परवान चढ़ रही है। अभी तक तो शादी-ब्याह और बर्थ-डे पार्टियों में मेरी उम्र के नौजवान कुछ दकियानूसी बुजुर्गों से बचबचा कर पिया करते थे मगर अब उन्हें पूरी छूट के साथ गटागट गले में ढकेलने पर कोई पाबन्दी नही होगी, चाहे बीयर हो या शराब। क्योंकि सवाल राजस्व बढ़ाने का है। नशाबन्दी और मद्यनिषेध का हो मुँह काला। आबकारी वालों ने आखिर देर-सबेर उन पंक्तियों पर ध्यान तो देने की ठानी कि जितनी दिल की गहराई हो उतनी मादक हो मधुशाला। सुना है कि इन दिनों आबकारी के आला हाकिमों को उठते-बैठते बस उमरखैयाम और मियां ग़ालिब के सपने आते हैं। वे जानते हैं कि इससे दो बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि उन मरहूम ग्रेट पियक्कड़ ब्रांड अम्बेस्डर लोगों के नाम से मयखानों की तादाद में खूब इज़ाफा होगा, लोग खूब छककर पियेंगे। दूसरे, राज्य का राजस्व बढ़ेगा। मुझे तो कभी-कभी ऐसा लगता है खपत बढ़ाने की गरज से आबकारी वाले सरेराह बस-कन्डक्टरों की तरह चिल्लाते नज़र आयेगे बच्चे ‘दो बूँद जिन्दगी की’ पियें और बूढ़े-जवान जिन्दगी को रंगीन बनाने के लिये शराब को ‘सोमरस’ समझ कर दिल खोलकर पीने की आदत डालें। याद रखें इससे प्रदेश का राजस्व बढ़ेगा। राजस्व बढ़ेगा तो अपने उत्तम प्रदेश मे उत्तम-उत्तम पार्क बनेंगे, भवन बनेंगे और जीते जी बुतों में अपना वजूद देखकर खुशी के इज़हार करने की तमन्ना पूरी होगी। इन सब के लिये आबकारी महकमे से बढ़िया और कोई हो ही नहीं सकता है। अपनी तो राय है कि बिजलीवाले सीधे-सादे शहरियों के घरों के मीटर जबरन बदलकर और टंकियों में पानी के बदले दारू भरकर खूब राजस्व वसूला जा सकता है। आबकारी हाकिमों को डांट पीना-पिलाना कोई बेजा नहीं है। क्या बतायें कि अपने आबकारी आसमान पर परवाज़ करते हाकिमों को ज़माना बदल जाने के बाद आज भी कच्ची दीवारों पर पक्की स्याही से लिखी वही इबारत दिखायी दे रही हैं कि बाप दारू पियेगा, बच्चे भूखों मरेंगे या शराब हराम है वगैरह-वगैरह। अरे भय्या ज़माना पीने-पिलाने का है। अब तो रंगीन पानी से मिजाज़ रंगीन करने का वक्त आ गया है। पानी पिलाने का काम तो अब सरकारेआलिया का है। क्या खूब। ठीक भी है कि ‘बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद प्यार बढ़ाती मधुशाला।’ मरहूम बच्चनजी ने मधुशाला की चौखट पर किसी और नज़रिये से दस्तक दी होगी मगर अपने आबकारी वाले लाडले मधुशाला की हाला राज्य के राजस्व बढ़ाने के लिये उड़ेलने पर लगे हैं।
पहले लोग भंग की तरंग मे ‘जय-जय शिवशंकर कांटा गड़े न कंकड़’ गाते हुये झूमते दिखायी देते थे और दम मारों दम चिल्लाते हुये अलखनिरंजन की अलख जगाया करते थे। गजब की मस्ती देखने को मिलती थी पर अब क्या खूब बहकती बातों के साथ बहकते क़दम की दिलफरेब सीन देखने को मिला करेगी। वैसे भी देशी-विदेशी पीने के बाद अंगरेज़ी अपने आप दुरूस्त हो जाती है। सींकिया पहलवान के बदन पर भी मांस के लोथड़े यूं चढ़ जाते हैं कि बड़े-बड़े जिम जाने वाले बौने नज़र आते हैं। यह सब कमाल होगा शराब की खपत बढ़ाने और राजस्व में इज़ाफा होने पर जैसा कि बकौल आबकारी अफ्सरान के सुनने में आ रहा है। चलिये एक बात जेहन में आती है कि आल्हा-ऊदल के ज़माने में बिन पिये ही शादी-ब्याह के मौको पर शमशीरें लहू से अपनी प्यास बुझाया करती थीं मगर अब इस तालीमयाफ्ता अत्याधुनिक युग में देशी-विदेशी छक कर पीने पर शमशीरों की जगह गोली-बन्दूकें अपनी प्यास बुझाती दिखेंगी। ऐसे नाजुक मौको पर बेचारी अपनी पुलिसिया बिरादरी तमाशबीन बनी देखती रहेगी, क्योंकि मामला आड़े हाथों आ जायेगा राजस्व का। मेरे जैसे घनचक्कर तौबा तोड़ने वाले झूमते हुए शामियाने के बाहर गाते दिखेंगे ‘मुझे दुनियावालों शराबी न समझो, पीता नहीं हूं पिलाई गयी है।’ मद्यनिषेध और नशाबन्दी का पहाड़ा पढ़ने वाले कंठी-माला के साथ हड़ताल की करताल बजाते हुये गाते रहें कि बदली-बदली मेरी सरकार नज़र आती है मगर राजस्व बढ़ाने के शोर-शराबे में सब गुम होकर रह जायेगा। शाबाश, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ राजस्व का रस्सा खींचने में। अब भूल जाना ही बेहतर होगा कि इस देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे-मोती। भय्या अब दारू की दरिया मे गुसुल करने की आदत डालना होगा।

शनिवार, 15 नवंबर 2008

बीमारी ठहर के समझने की

अपने यहाँ सबसे बढ़िया बात यह है कि कोई बात समझ में आती है लेकिन ज़रा ठहर कर। वैसे तो यह है सचमुच फसकिलास बात पर क्या कहते हैं वह कि आई. क्यू. वाले वायरस के आधार पर बताने वाले इसे बड़ी ख़तरनाक बीमारी बताते हैं। अपनी फिल्मों में भी जब किसी करेक्टर के मरने का सीन आता है तो बड़ा मज़ा आता है। वहाँ मल्कुनमौत यानी श्रीमान यमराज जी पूरा डॉयलाग करेक्टर के बोलने तक बड़े सब्र के साथ हाथ बाँधे इन्तज़ार करते रहते हैं। डॉयलाग खतम होते ही उन्हे रूह कब्ज करने की याद आती है। बात वही कि ज़रा ठहर कर उनकी समझदानी का दरवाजा खुलता है। इसी तरह अपने मोहल्ले की चौकी के चौके पर बैठे दरोगा बाबू किसी की दर्दे-दास्तान ‘दास्ताने-अलिफलैला’ की तरह सुनते तो बड़े ध्यान से हैं मगर समझ में कुछ न धँसने के कारण फरियादी को धीरे से टरका देते है। कुछ देर बाद जब बड़े हाकिम के फोन की घण्टी घनघनाती है तब दरोगाबाबू की समझ के नट-बोल्ट कसने शुरू हो जाते है। तब रपट लिखने के लिये उनकी कलम दौड़ लगानी शुरू करती है। हर जगह नकली अर्श से फर्श तक यही किस्सा पुराना देखने को मिलता है। अब बतौर नज़ीर हाज़िर है अपनी इकलौती गंगा। ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई’ पापियों के पाप धोते-धोते सुनते-सुनते जब यमुना किनारेवालों के कान पक गये तो उसके लिये राष्ट्रीयता के नाम पर खुद गाना शुरू कर दिया ‘गंगा मैय्या तोहें पियरी चढ़इबों’। यह हुई न बात। देर आयद दुरूस्त आयद। क्या किया जाए बीमारी ही ऐसी कमबख्त लग गई है कि समझ में बात आती है मगर ज़रा ठहर कर। अपने बाप-दादे ‘हर हर गंगे’ कहते-कहते मर-खप गये मगर किसी को याद नही आया कि आदिकाल से इस देश में गंगा पतित-पावनी मान कर पूजी जाती रही है। एक अलग पहचान रही है। तभी तो किसी ने गाया था ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है’
इसी तरह जब सुनने में आता है कि फलाँ को मरणोपरान्त मुल्क के सबसे बड़े इनाम-इकराम से नवाज़ा जा रहा है तो ठठाकर हंसने को जी चाहता है। भाई कमाल है कि रहती जिन्दगी तक उसकी क़ाबिलयत तौलने के लिये किसी को तराजू का बटखरा नहीं मिला। तभी तो शायद किसी को याद आया होगा—‘जीना मरना तेरी गली में’, मरने के बाद चर्चा होगा तेरी गली में। है न कमाल की बात कि किसी की प्रतिभा को नवाजने की याद तब आती है जब कोई कब्रिस्तान की चौखट लाँघकर रूहपोश होजाता है। कुछ दिन पहले इसी तरह अपनी गोमती की याद कुछ लोगो को आई तो जुट गये अफसर से लेकर मातहत तक झाड़ू-पंजे के साथ। उत्तम-प्रदेश की लाडली गोमती के दिन बहुरने का सपना देखकर मन-मयूर चिड़ियाघर में नाच उठा। अखबार और चैनलवालों ने फोटू के साथ खूब रेवड़ियाँ बाँटी। आगे सन्नाटे में किसी ने कहा अब एक छोटे से ब्रेक के बाद। इसी तरह अब कनाटप्लेस पर कनकौवे उड़ानेवालों को गंगा मैय्या के प्रति प्यार जागा है। भगवान उनका भला करे। चलिये इसी बहाने एक और आयोग बना। कुछ अपनों के काम का जुगाड़ तो हुआ। अपने राम तो लालू भय्या को दाद देने के लिये छटपटा रहे हैं कि कम से कम अपनी लौह-पट्टिका में गंगा-गोमती दोनो को समोहित करके अपने सच्चे प्यार की ढफली बजा डाली।
लोग उनकी पवित्र धाराओ में अवगाहन करते हुये अपनी यात्रा पूर्ण करके प्रफुल्लित होते हैं। अब जमुना किनारे राजमहलों मे रहने वालों को गंगा मैय्या को पीयरी चढ़ाने की याद आ रही है। चलिये याद तो आयी। कोई बात नही। देर आये दुरूस्त आये। मुमकिन है भय्या ओबामा के गले में बजरंगबली की फोटू देखकर शर्म महसूस हुई हो कि हम जब भारत के रहने वाले हैं, भारत के गीत सुनाते हैं तो फिर क्यों न अपने देवी-देवता और पतित पावनी नदियों के प्रति आस्था प्रकट करें। अजी हम तो सोच-सोच कर परेशान हुये जा रहे हैं कि यह कौन सी ठहर कर समझने की बीमारी पीछे पड़ गयी है।
अपने उत्तम प्रदेश की बात तो सबसे निराली है। अब मार्क करने वाली बात यह है कि कोई अनाज घोटाला हुआ था सन् 2004-05 के दरम्यान पर उसके भूत ने सपना दिखाया 2008 के आखिरी पहर में। राजधानी के एयरकन्डीशन्ड रूम में चैन की नींद में चिहुँक कर उठ बैठना और उस वक्त की दीमक खायी फाइलों को ढूँढना वाजिब है। क्योंकि उसी आधार पर कटघरे की चाभी का गुच्छा मुमकिन होगा। इससे दो बातें होंगी। एक तो गड़े मुर्दे निकालने में टाइम-पास होगा, दूसरे टेढ़ी नज़र वालों का मुँह काला करने का मौका मिल जायेगा। इसी तरह सब धान बाइस पसेरी के पलड़े पर लोग खाकी वर्दी में दूल्हा मियाँ बनाये गये कब मगर अब गौने के वक्त याद आया कि वह सामूहिक शादी ग़लत थी। असल में इसमे दोष किसी का नहीं है। दोष अगर है तो बस उस पुरानी बीमारी का जिसमें ठहर कर बात समझने की होती है। बुखार आया था एक महीने पहले पर इलाज के लिये हकीम साहब को ढूँढने निकले आज। कुछ लोगो की आदत होती है जबरदस्ती की बीमारी पाले रहने की जिससे दूसरे लोग कोई जरूरी काम न बता दें।
आजकल मुल्क में राजभय्या का जलवा अपने शबाब पर दिखाई दे रहा है। हर खबरनवीस और चैनलिया चचाजान राजभय्या को चमकाने में लगे हैं। उधर पुतला फूँकने और रिजाइन देने का तमाशा भी खूब चल रहा है। पर जमुना पार वालों को अभी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। शायद यही समझने समझाने के लिये गंगा मैय्या को चुनरी चढ़ाने का स्वांग रचा जा रहा है। राष्ट्रीयता की ‘झीनी-झीनी रे बीनी चुनरिया’। लेकिन अपने राजभय्या को वह गाना याद नहीं आ रहा है कि ‘मेरा नाम राजू घराना अनाम, बहती है गंगा जहाँ मेरा धाम’। यह तो बात सच मानना चाहिये कि समझ में आयेगा मगर ज़रा ठहर कर। क्या किया जाये अपने देश में मौसम ही कुछ ऐसा चल रहा है।
कलम को कबूतर समझकर उड़ाते हुये अभी गाना ही शुरू किया था कबूतर जा जा जा...तभी नुक्कड़ वाले मीर साहब अपने जनाब मीरसाहब मरहूम वज़ीरेतालीम ‘मौलाना अबुल कलाम आज़ाद’ के यौमे-सालगिरह के जश्न में शिरकत करने जा रहे हैं। ढेर सारी अपनी शुभकामनाँये मीरसाहब के हवाले करने के बाद सोचने लगा कि लगभग पचास सालों के बाद अचानक मौलाना की याद मीरसाहब को कैसे दीवाना बना रही है। फिर अपने-आप नीली छतरी वाले ने मेरे थके दिमाग़ के दरवाज़े से झाँकते हुये समझाया कि समझ का फेरा है। बात समझ में तो आती मगर ज़रा ठहर कर। अब जब बीमारी लग ही गई तो कोई क्या कर सकता है।

रविवार, 2 नवंबर 2008

क्या हम क़बीले-युग की तरफ लौट रहे है...?

चलिये देश का विभाजन तो सब की सहमति से हुआ। भारत और पाकिस्तान। बीच में कश्मीर और बंगाल ने विभाजन की मार झेली। बोडोलैण्ड और नक्सलवाद ने भी पैर पसारते हुये देश को बाँटने की पहल कर दी है। अब महाराष्ट्र ने राज ठाकरे की रहनुमाई में अखण्ड भारत को खण्डित करने का अभियान शुरू करके इतिहास की खिड़की से वही पुराने कबीलाई-युग की झलक दिखा दी है। लगता है कि जयचन्द और मीरज़ाफ़र की आत्माओ ने फिर से नये शरीर धारण करके सिद्ध कर दिया है कि आत्मा सचमुच अजर-अमर है। बात सही है कि इतिहास हमेशा अपने को दोहराता है। हमने जि़न्दगी का कारवाँ जहाँ से शुरू किया था वहीं लौट रहे हैं। आज महाराष्ट्र, असोम, कश्मीर और हो सकता है कि कल बंगाल, बिहार व खलिस्तान खुदमुख्तारी का ऐलान करके तवारीख के पहले पन्ने को पढ़ाना फिर से प्रारम्भ कर दे। आज वे कहाँ हैं जिन्हे हिन्द पर नाज़ था, जो अखण्ड-भारत के सुहाने-सपने बुना करते थे। सर्वसत्तासम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की परिभाषा में भारत जैसे अज़ीमुश्शान मुल्क को बाँधे रहने के नेक इरादे का क्या हुआ। कवियों लेखकों ने अनेक भाषा, जाति, धर्म और सम्प्रदाय वाले ऐसे देश के लिए लिखा था हम पंछी एक डाल के। मगर अफसोस हमारे बीच के अत्यन्त प्रिय लोग उसी डाल को काट कर रंग-बिरंगी पंछियों के बसेरे उजाड़ने पर उतारू हो रहे हैं। सोचना पड़ता है कि जब अपना ही माल खोटा तो परखैय्या का क्या दोष। अगर यही रहा तो वह दिन दूर नही जब यह विशाल देश अनेक छोटे-छोटे क़बीलों में बँटा और खून-खराबा करता दिखेगा। आज भी कई महमूद ग़जनवी और ग़ौरी फायदा उठाने को तैयार बैठे हैं। क्या होगा इस देश का, जहाँ कहा जाता है कि देवता भी जन्म लेने के लिये तरसा करते हैं। यह भी किसी इतिहासकार फिरदौस ने कहा था कि अगर धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

खिचड़ी भोज का लुत्फ

आजकल अपने लंगोटिया यार मीर साहब ‘खिचड़ी भोज’ के पीछे दीवाने बने हुए हैं। कहते हैं कि जितना मजा इफ्तार पार्टी में नहीं आता है उससे ज्यादा मजा ‘खिचड़ी भोज’ में आता है क्योंकि उसमें खाने वाले कई आइटम होतें हैं। खिचड़ी एक शार्टकट रास्ता होता है। भई खाने का मौज तो बस इसी में मिलता है। आए दिन अपने मीर साहब का नाम खिचड़ी भोज में शामिल होने की वजह से अखबार में फोटो सहित सुर्खियों में रहा करता है। यही नहीं, वे डकराते हुए कभी किसी गरीब की मढै़य्या के दरवाजे पड़ी खटिया पर पसर कर चांद सितारों की तमन्ना किया करते हैं। अक्सर ‘दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का’ गाते हुए किसी खिचड़ी भोज में शामिल होकर गुडफील का मजा लेने से जरा भी हिचकिचाते नहीं हैं। भले इसे कुछ जलनशील लोग नौटंकी का नाम दें। हां, यह जरुर है कि इस हाड़ गलाने वाली सर्दी में कुछ पुलिस वालों और खबरिया चैनल वालों को भाग दौड़ करने में मुसीबत जरुर होती है।
अब रही अपनी बात तो वह अलग है। मैं तो अपनी घोंसलेनुमा घर में फटा कम्बल ओढ़े आज के खिचड़ी-भोजों और टूटी खटिया पर पड़े-पड़े महसूस करता हूं कि इस बदलते मौसम में पूरा का पूरा मुल्क खिचड़ी मय हो गया है। बस डर है तो बस ‘कोल्ड डायरिया’ का। किंतु सपने भी देखता हूं तो खिचड़ी का, खिचड़ी खाने का और बनाने का। किसी कम्बल बांटने वाले का शोर शराबा और गश्त करते पुलिस वालों के डंडों की ठक-ठक सुनकर पक्का यकीन हो जाता है कि सचमुच मैं एक खिचड़ी युग में जी रहा हूं। मैं तो भाई यही ‘फील’ कर रहा हूं और अपने विचार से ठीक ही फील कर रहा हूं क्योंकि बहुत से इबादत गाहों में आज भी खिचड़ी का बोलबाला है। काफी समझबूझ कर खिचड़ी भोग लगाने और भक्तों को प्रसाद स्वरूप बांटने का सिस्टम अपनाया गया है। अब यही समझने की बात है कि पहले किसी-किसी के घर कभी-कभार खिचड़ी पका करती थी लेकिन आज तो पूरा देश खिचड़ी का शौकीन दिख रहा है। मेरी समझ से यह खिचड़ी युग चल रहा है। हर जगह चाहे देश हो या प्रदेश सब जगह खिचड़ी परोसी जा रही है। पहले तो दाल अलग और भात अलग परोसने का रिवाज था। यानी राजा-प्रजा के बीच एक स्पष्ट रेखा खिंची होती थी। वह था सामंतवादी या राजशाही का जमाना। उसके बाद लोगों के मिजाज में परिवर्तन आया। भात फैलाकर उस पर छौंकी बघारी दाल के साथ सब्जी या सलाद वगैरह लेकर खाने का रिवाज शुरू किया गया। इस नए अंदाज को लोगों ने पूंजीवादी प्रवृति का नाम दिया। कभी अपने मीर साहब के मिजाज का आलम यह था कि विदेशी मक्खन के बिना निवाला उनके गले के नीचे नहीं खिसकता था। नए जोश और पुराने इतिहास का वास्ता देकर लोगों ने महाराणा प्रताप की तर्ज पर घास की रोटियां खाने का ड्रामा पेश करना शुरू कर दिया। जिन्हें चुपड़ी रोटी और बिरय़ानी हजम नहीं हो सकती उन्होंने दलील देना शुरू कर दिया कि भारत गरीबों का देश है। इसलिए समाजवादी आंगन में पत्तल पर रूखी सूखी खाने का रिवाज अपनाया था। सोचा चलो किसी को हम गरीबों की फिक्र तो हुई। पर कुछ खास लोगों के सामने सिर्फ नाम का पत्तल बिछाया गया जिस पर परोसी जाने लगी तहरीनुमा खिचड़ी और खिचड़ी के संग उसके तीन यार पापड़, दही घी, अचार। इसी तरह एक ही मुल्क में एक साथ सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवाद की खिचड़ी से सब खिचड़ीमय हो रहा है। कहीं गरीबों के देश में समाजवाद का सीन देखते-देखते गरीबों नें खुदकशी करनी शुरू कर दी और कहीं सिन सिनाकी की बुबलाबू के बोनट पर बैठकर सारे शहर को जलता हुआ देखकर बांसुरी बजाने का शौक चर्राने लगा। यानी सब कुछ बिलकुल खिचड़ी की तरह। ढूंढते रह जाइए दाल के दाने चावल और मटर बिलकुल उसी तरह जैसे आजकल की मसाला फिल्में। पहले हीरो-हीरोइन, कामेडीयन और विलेन अलग-अलग होते थे पर आज सब कुछ एक ही हीरों में देखने को मिलने लगा है। भगवान भला करे, ऐसी खिचड़ी खाकर डकार लेने वालों का। यहां तो मोहल्ले के आवारा लौंडे चिढा़ते हुए कहते हैं, ‘आधी रोटी बासी दाल, खा ले बेटा बाबूलाल’।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

जम्बूरे का तमाशा

उस्ताद।" "अबे, अभी तो तू कालीदास मार्ग तक भला चंगा था। यहां तेरी तबीयत को अचानक क्या हो गया?" "जम्बूरे।" "उस्ताद, तबियत बिल्कुल चकाचक है। असल में विधान सभा की तरफ से आती हुई ठण्डी हवा ने तबियत मस्त कर दिया है। उस्ताद कसम से यह चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त।" "अबे वो सब तो ठीक है मगर इत्ता पुराना...? "उस्ताद, मुझे पुराने गाने, पुरानी चीज़े जैसे पुरानी चढ्ठी पुरानी बनियाइने, पुरानी चप्पलें वगैरह बहुत पसंद हैं।" "अबे फिर कबाड़ी क्यों नहीं बन जाता?" "उस्ताद, कई बार सोचा तो मगर वहाँ भी बड़े-बड़े लोगों ने अड्डे जमा लिए हैं। फिर उस्ताद वहाँ भी वे सब पुरानी  चीजें कहाँ बिकती हैं। अब तो वहाँ कट्टा, बंदूके, गोले-बारूद खरीदे-बेचे जाते हैं। ‘जम्बूरे।’ ‘हाँ उस्ताद।’ ‘जो मांग होगी वही तो बिकेगा? अब तू गांधी छाप पुरानी ऐनक, चप्पल और खद्दर वगैरह ढूंढगा तो कहां मिलेगा? नक्खास भी अब वह नक्खास नहीं रहा बेटा।’ ‘उस्ताद कसम हाट शॉट डॉट कॉम की मुझे इस कैपिटल से बहुत लगाव है।’ ‘अबे इसी पुराने सिनेमा कैपिटल से?’ ‘हाँ उस्ताद बित्तीभर का था। दादा मरहूम कांधे पर बैठा कर यहां अंग्रेजी फिलिम दिखाने लाते थे। कसम से क्या जलवा था इसका?’ ‘बेटा जम्बूरे अब तो इसमें गरमागरम ख़ुदा के वास्ते फ्री का नाम मत लो। इसी सड़क पर कभी फ्री साड़ियां बांटी गई थी। मेरी अम्मी भी आई थीं। साड़ी के चक्कर में उस्ताद अम्मी जान पसलियां तुड़वा बैठी। अभी तक बिस्तर पर पड़ी है। इसी तरह एक बार रैली के बहाने लखनऊ घूमने के चक्कर में बरेली से आए अपने खालूजान प्लेटफारम पर भगदड़ में ऐसे गिरे कि उठने को कौन कहे सीधे अल्लाह को प्यारे हो गए। अब तो फ्री नाम से रूह कांप उठती हैं उस्ताद।’ ‘बेटा जम्बूरे अपना मुलुक भी तो फ्री है।’ बेशक है उस्ताद। मगर हालात क्या हैं यह तो देख ही रहे हो। उस्ताद एक बात कहूँ।बोल बेटा जम्बूरे़।फ्री के नाम पर अब तो गाने को जी चाहता है कि मैने चॉद-सितारों की तमन्ना की थी पर मुझे रातों की स्याही के सिवा कुछ न मिला। बेटा जम्बूरे, यार मुझे  माफ करदे। मैनें नाहक तेरे जख्मों को हरा कर दिया। उस्ताद कित्ती माफी माँगेगा। अरे एक माफी के कम से कम पाँच साल तो पूरे हो जाने दो। यहाँ तो समझ बैठे हैं कि रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा, कभी डगमगाई कश्ती कभी खो गया किनारा। वाह जम्बूरे,जवाब नहीं तेरा। अच्छा ग़म भुलाने के लिये चलो विधानसभा के सामने तमाशा दिखाते हैं। वहाँ देखनेवालों का अच्छा-खासा मजमा लगेगा।

एक बात बोलू उस्ताद। अबे एक कम सौ बात बोल जम्बूरे। यही तो सबसे फसकिलास बात है अपने मुलुक में बेटा कि बोलने की दिल खोलकर आजा़दी है। बेटा निकाल डाल तू भी अपने दिल की भड़ास। बोल बेटा जम्बूरे ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा। उस्ताद, मुझे लगता है कि तेरी पैदाइश कहीं जरूर किसी ए.सी. रूम में हुई होगी। क्यों आखिर ऐसी कौन सी खास बात देखी तूने मुझमें। बात तो कोई खास है नहीं लेकिन इस वक्त तूने बिल्कुल फैसला लिया है ए.सी. में रहने वालों की तरह। अरे अपनी प्यारी धरती से जुड़.कर कोई फैसला लेना सीखो।

अबे आखिर बात क्या हो गयी। कुछ नहीं। बात दरहअस्ल मे यह है कि वहाँ तो उस्ताद भीतर बाहर हमेशा एक से बढ़कर एक तमाशा हुआ करते हैं, अपने  पुराने घिसे-पिटे तमाशे में भला किसे मज़ा आयेगा उस्ताद। यक़ीन मानो मालिक अपना झोला-झंखड़ देखते ही फौरन पुलिसवाले मुँह में बीड़ी और हांथ में पुरानी टुटही साइकिल थमा कर आतंकवाद के नाम पर रैट टैम भीतर कर देंगे। कसम खुदा की उस्ताद  छः महीने तक ज़मानत नहीं होगी।  न बाबा न अपुन तो उधर कतई नहीं जाने का उस्ताद। बेटा जम्बूरे, अबे खुदाकसम मैंने तो इतनी दूर की सोचा तक नहीं था। तूने क्या तेलियामसान की खोपड़ी पायी है।

अच्छा जम्बूरे मेरी एक बात मानेगा। कहेगा भी सही। चल बेटा यहीं अपने कैपिटल के सामने मजमा लगाते है। शाम का वक्त है। बाबू लोग घर वापस जाने वाले होंगे। इत्मीनान के साथ हमलोगों के तमाशे का मज़ा लेंगे। कसम से जम्बूरे अबतो दिल खोलकर गाने को जी चाह रहा है  नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा। अमाँ सबसे मज़े की बात तो यह है कि इस वक्त चैनलवाले घूम रहे होंगे। कौन जाने अपने लोगो का तमाशा देखकर अपनी फटेहाल ज़िन्दगी पर कोई स्टोरी गढ़ कर अपने कैमरे में क़ैद कर डालें।

"एक बात पूछूँ उस्ताद। अबे एक सौ एक बात पूछ। आज मैं बहुत खुश हूँ।"

उस्ताद जब अल्लाहमियाँ के काउन्टर से अक्ल  बाँटी जा रही थी तो तू शायद लैन में काफी पीछे रह गया होगा इसीलिये तेरे काउण्टर तक पहुँचते-पहुँचते अक्ल की बुकिंग खत्म होगई रही होगी। शायद यही वजह है कि उस्ताद तू हमेशा बेअक्ल की बात बोलता है।

"अबे जम्बूरे वह कैसे। हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊँ।"

"मेरे आला काबिल उस्ताद बुरा मान गये। अरे मेरे बाप समझता क्यों नही कि आजकल अपने बाबू लोग दफ्तर भले देर से पँहुचे क्योंकि वहाँ देर से पँहुचने के हज़ार बहाने बनाये जा सकते हैं जिन्हे हाकिम-हुक्काम को भी मानना पड़ता है इसलिये कि वे बेचारे खुद ही देर से अपने आफिस पहुँचते हैं। मगर बाबू लोगों को देर से घर पहुँचने पर अपनी तेज-तर्रार बीवियों को एक हज़ार एक कैफियत देनी पड़ती है।

"अबे बात कुछ समझ में नहीं आई, जम्बूरे।"

"इसलिये कि उन्हे ब्युटीपार्लर और बिगबाजार जाने की जल्दी होती है उस्ताद। अब रही बात चैनलवालों की बात तो वे अपना ढँढ-कमन्डल लिये हम जैसे फटीचरों को लिफ्ट क्यों देने लगे। "बेटा जम्बूरे,यार तेरी बात अपनी तो एकदम समझ में नहीं आती है। जो कहना है साफ-साफ कह।" "उस्ताद सीधी सी बात है कि चैनलवाले सबसे पहले भैंसाकुण्ड यानी बैकुण्ठधाम पर पँहुचकर कैमरा फिट करके देखेंगे कि कौन सा मुर्दा चिता पर लिटाते ही उठ कर बैठ जाता है और लगता है बताने कि अबकी इलेक्शन में कौनसी पार्टी का बहुमत होगा। बस दिनभर वही स्टोरी चलती रहेगी। समझे उस्ताद, कुछ नहीं समझे होगे क्योंकि जब हम नही समझे तो तुम क्या समझोगे।

 बेटा जम्बूरे बातें तू ऐसी कर रहा है जैसे बहुत दिनों  तक दूर के दर्शन को बहुत नजदीक से देखता रहा है। उस्ताद बारात किया तो नहीं है लेकिन देखा जरूर है। आज वही तर्जुबा काम आ रहा है। इसके बाद उनका कैमरा किसी खँडहर में किसी अधनंगी लाश या किरकिट-मैच में धिरकिट-धा बजाने वालों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा। अब समझने वाली बात यह है कि उन सब स्टोरियो के आगे अपने खबीस से चेहरों की  स्टोरी लोगो को क्या पसन्द आयेगी, जो पापी पेट के लिए तमाशा दिखाते भी हैं और तमाशा बनते भी हैं। उस्ताद, वह सब ख्वाब देखना भूल जाओ। अपनी औकात यही समझ लो कि  पार्टीवालों को लोग इलेक्शन के लिये खूब खुशी-खुशी हज़ारो का चन्दा दे देते हैं मगर हमारा तमाशा देखकर रूपये दो रूपये देने से कन्नी कटा कर किसी पतली गली से फूट लेते हैं। उस्ताद जरा समझने की कोशिश करो कि न तो हमलोग नेता हैं और न अभिनेता। उन सब के तमाशे के आगे अपना तमाशा कौन देखना चाहेगा।

बेटा जम्बूरे फिर अपनी दो जून की दाल-रोटी का इन्तज़ाम कैसे होगा। दिन पर दिन बढ़ती मँहगाई ने तो अ च्छे-अच्छों की कमर तोड़ दी है।  देख उस्ताद सबकुछ बोल मगर मँहगाई का रोना मत  रोया कर। अपनी सरकार बहुत दुखी हो जाती है। भला कभी तो सोचा होता कि इस वक्त अपनी सरकार बेचारी अमरीका से आतंकवादियों के चक्कर में सांस नीचे ऊपर कर रही है। ऐसे में भला मँहगाई  सुहाती है। उस्ताद तुम्ही बताओ कि कनाटप्लेस में भला झूमरीतिलैया का काजल कोई लगाना पसन्द करेगा।

अबे जम्बूरे जवाब नही। क्या जोड़ मिलाया है। कहाँ कनाटप्लेस और कहाँ झूमरीतिलैया।

उस्ताद हमलोगों को अपनी खुशकिस्मती समझना चाहिये कि हमलोगों को घर बैठे मँहगे लहँगे में मँहगे डान्स देखने को मिल रहे हैं। चुप क्यों हो गये उस्ताद। कोई बेजा बात कह दी क्या।

नहीं जम्बूरे, सोचता हूँ तू कहाँ किस धन्धे में फँस गया। तुझे तो उस्ताद होना चाहिये था या कहीं नेता। उस्ताद तू सोचता क्यों नहीं कि आजकल अफसर से ज्यादा रूतबा अर्दली का होता है। मैं जम्बूरा ही ठीक हूँ। मैं दलबदलू नहीं हूँ। यह नहीं कि आज एक उस्ताद के इशारे पर तमाशा दिखाता फिरूँ और कल दूसरे उस्ताद के पीछे भागता फिरूँ। देख उस्ताद मैं जम्बूरा हूँ, मुझे जम्बूरा ही रहने दे। इसी में मैं खुश हूँ। मैं उनमें से नहीं हूँ कि बड़े-बड़े धन्नासेठ-टाइप उस्तादों की डुगडुगी पर पब्लिक को तमाशा दिखाता रहूँ। कसम ख़ुदा की तू भले ही फटेहाल उस्ताद है मगर है तो मेरा उस्ताद। दिल दिया है जाँ भी देंगे ऐ उस्ताद तेरे लिये। तुम उस्तादों के उस्ताद बन सकते हो मगर मेरी किस्मत में तो जम्बूरा बनकर ही खेल दिखाना बदा है। तू भले मुझ पर मैली चादर डालकर चाकू चमकाते हुये पब्लिक के सामने मुझे मारने के लिये चिल्लाता रहेगा मगर मैं आखिरी साँस तक उस्ताद-उस्ताद पुकारता रहूँगा। तुम शायद हमेशा की तरह मेरी पुकार अनसुनी करके मजमे से कहते रहोगेमेहरबान कदरदान, पापी पेट का सवाल है।

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

दूल्हे कब तक बिकते रहेंगे

एक बात बरसों से जेहन में काई की तरह जमी बैठी है कि ‘औरत’ औरत है और मर्द हमेशा मर्द है। लोग भले डुगडुगी बजा-बजा कर चिल्लाते रहें कि बेटा जम्बूरे दोनों में कोई फर्क नहीं है। दोनों को समान अधिकार होना चाहिए। दोनों को एक तरह से जीने का हक मिलना चाहिए वगैरह-वगैरह। यह जरूर है कि लोगों को एक दूसरे को खुश करने या तसल्ली देने की फितरत विरासत में मिली है, इसलिए एक कदम आगे बढ़कर ‘महिला सशक्तीकरण’ का नाम देकर ‘घरैतिन’ को कुछ देर के लिए टेन्शन फ्री कर देना चाहता हूं।
चलिए आज जिन्दगी के हर गोशे में जब लड़कों की तरह लड़कियों को भी टॉप गीयर में देखता हूं तो बगली काट कर अलग राह पकड़नी पड़ती है कि न जाने कब कौन सी आफत आ जाए और संजोये गये करेक्टर पर लोग कीचड़ उछालने लगे? यह बात तो मैं भी मानता हूं कि सृष्टिकर्ता की इन अलग-अलग रचनाओं को समान रूप से संपादित करके एक ग्रन्थ का रूप दिया जाए तो सचमुच समाज की विशाल लाइब्रेरी में चार चांद लग उठे।
पर न जाने क्यों जेहन में बैठी वह औरत मर्द वाली अलग-अलग तस्वीरें अलग ही दिखाई देती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि आये दिन चैनलों और अख़बारों में जो न बताने लायक खबरें छपती हैं या दिनभर दिखाई जाती हैं उससे जायका एकदम बिगड़ जाता है। इसके अलावा अपने माननीयों के अंगने में उठापटक और लड़की के लिए लड़कों की खरीद-फरोख्त की बात सुनता हूं तो भी बात पक्की हो जाती है कि “दिल को बहलाने के लिए गालिब ये ख्याल अच्छा है”दोनों को बहलाने के लिए ‘महिला सशक्तीककरण’ तथा ‘नर नारी एक समान’ का ख्वाब दिखाकर तसल्ली की तश्तरी में समानता का लज़ीज पकवान परोसा जाता है। मैं उन सम्मानित नारियों की बात नहीं करता जो नर के बगल में बैठकर देश के नवनिर्माण का खाका खींचती हैं। अपने को गान्धारी, अनुसूइया, सावित्री, रजिया सुल्तान और झांसी की रानी से कम नहीं समझती हैं। पर वास्तव में सर्वसाधारण महिलाओं के सशक्तीकरण का एक छोटा सा बिल शायद आज तक नहीं पास करा सकी क्योंकि जीव वैज्ञानिकों की बात पर वे खामोशी अख्तियार करना बेहतर समझती होंगी कि पुरुष और महिला के जैविक तत्वों के कारण काफी अंतर होना स्वाभाविक है। उधर पुरुष प्रधान समाज भी अपना वर्चस्व कायम रखने से पीछे नहीं हटना चाहता है।
कानूनी शिकनी करना तो देश के कानून का सरासर अपमान है फिर भी ताज्जुब है कि हमारे देश का कानून ऐलाने जंग तो बहुत करता है लेकिन उसकी आंखों पर उस वक्त पट्टी बंध जाती है जब दहेज और अनाचार के नाम पर महिलाओं पर अत्याचार होता है या पुरुष प्रधान समाज उसे हेय दृष्टि से देखता है। यह बात नहीं कि पुरुष ही इसका जिम्मेवार है। खुद नारियां ही नारी उत्थान में बाधक बन रही हैं, क्यों कि कहा गया है कि नारियों में ईर्ष्या की भावना ज्यादा होती है। वरना संसद और विधान सभाओं के अतिरिक्त अन्य जगहों पर भी उच्चस्थ पदों पर बैठी महिलाएं अभी तक एक बिल नहीं पास करा सकीं। उन्हें सिर्फ जिले से उठाकर राज्य‍ और राज्य से उठकर केन्द्र तक पहुंचने की फिक्र है, पर समाज में सिसकियां भरती सामान्य महिलाओं के साथ क्या गुजर रही है, देखने वाला कोई नहीं है। कानून रोज बनाये जाते हैं पर वे कारगर कितने साबित होते हैं वे ही जानें।
मामूली सी बात दहेज के नाम पर शोषण करने का है। कितनी रपटें लिखी जाती हैं और कितनी कार्यवाहियां की जाती है? आंकड़े तो सिर्फ उन्हें ही बताते हैं जिन्हें दर्ज किया जाता है। अधिकांश तो बदनामी के डर से रपट लिखाते ही नहीं हैं।
हाल की बात है कि एक कन्या की फोटो पसन्द करने के बाद भी वर पक्ष के लगभग डेढ़ दर्जन लोग वधू पक्ष की टूटी मड़ैया पर आ धमके। लगा जैसे कोई नुमाइश देखने आये हों। अमूमन ज्या दा से ज्या्दा चार-छह खासमखास लोग जैसे वर के मां-बाप, बहन, कोई चाचा, ताऊ और वर स्वयं जाते हैं। बहरहाल इतने लोगों के पहुंचने पर किसी ने रिटन टेस्टं लिया तो किसी ने मौखिक परीक्षा और किसी ने होम-साइंस का इम्तहान लेना शुरू कर दिया। बीच-बीच में लड़के का बड़ा भाई रोना रोकर इशारा भी करता रहा कि अभी उसने चार पांच लाख रुपये लगाकर मकान बनवाया है पर वह भी अधूरा रह गया है। मतलब साफ यानी अनुभवी लोग ‘खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देखकर’।
साथ में यह भी तुर्रा कि हम लोगों को सीधी सादी लड़की चाहिए। आजकल की तेजतर्रार लड़कियां नहीं चाहिए। बहरहाल वर-वधू ने एक दूसरे को पसन्द कर लिया। आये लोगों ने भी दबी जुबान से पसन्द जाहिर कर दी। लेकिन फाइनल रिजल्ट चार-छः दिनों बाद घोषित करने का आश्वासन दिया गया। लेकिन बीच-बीच में रोना वही कि अभी मकान अधूरा पड़ा है इसलिए कुछ...। ताज्जुब होगा जानकर कि लड़का हाईस्कूल अनुतीर्ण है और किसी नौकरी में भी नहीं है। कन्या के पिता भाग्यवादी और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते अपनी बात पर अटल हैं जबकि उनकी पुत्री इण्टर पास है।
अभी तक फाइनल रिजल्ट‍ का इंतजार किया जा रहा है। एक दिन ‘लड़की वाले गरजमंद होते हैं’ की मशहूर कहावत के तहत उसके पिता ने फोन किया तो उधर से उल्टा चोर कोतवाल को डांटने के लहजे में कहा गया कि आपने तो हम लोगों को विदाई नहीं दी। काबिलेगौर है मानसिकता कि बिना फाइनल रिजल्ट के विदाई देने की रस्म कहा से उठती है? उसके बाद भी फाइनल के लिए पुन: चार दिन का समय मांगा गया। कन्या पक्ष का यही तो मानसिक शोषण है कि उन्हें अधर में लटका कर मनमानी मांग मनवाया। इस सम्बन्ध में बुद्धिजीवी लोगों से बात कीजिए जो लड़की लड़कों को समान समझने का ढिंढोरा पीटते है वे भी जब कहते हैं कि क्या करोगे भाई लड़की वालों को झुकना ही पड़ता है तो धिक्कारने को जी चाहता है ऐसी समानता की बात करने वालों को। प्रतीक्षा कराते-कराते कहीं ‘ना’ हो गया तो उस लड़की को डिप्रेशन में डूब कर आत्महत्या करनी पड़ती है। माना कि आज लड़कियां पायलट बन रही हैं, वैज्ञानिक हो रही हैं, राजनीतिज्ञ होकर नेतृत्व कर रही हैं और अंतरिक्ष में बेखौफ उड़ान भर रही हैं पर कितने प्रतिशत? वे भी सम्पन्न परिवार से ही सम्बन्धित होती होंगी।
क्या इन मुट्ठी भर तरक्कीयाफ्ता कन्याओं से पूरे नारी जागरण का स्वप्न पूरा हो सकता है? क्या सचमुच पुरुष प्रधान समाज अपनी मा‍नसिकता बदलने को तैयार है? यदि ऐसे मामले उजागर भी होते हैं तो जल में रहकर मगर से बैर करने वाली बात होती है। इन्हीं कारणों से लोग लड़की के जन्म को अभिशाप समझने लगते हैं। कानून है लेकिन कानूनी दांव-पेंच अपने देश में ऐसे उलझे हुए हैं कि उनके सुलझते-सुलझते या तो माता-पिता श्मशान के रास्ते पर चल देते हैं या कन्या बिन ब्याही पश्चाताप की आग में खुदकुशी कर लेती है।
सबसे बड़ी बात तो समाज के उन कर्णधारों को देखकर होता है जो चुप्पी‍ साधते हुए खरीद-फरोख्त के बाजार को और गर्म कर देते हैं। रोना पड़ता है किसी 'रामउजागिर' को या किसी रिटायर 'अब्दुल लतीफ' को अथवा उसके पूरे परिवार को जो किस्मत को सब कुछ मानकर जी रहा है। कब बदलेगा यह समाज? कब मिटेगा दहेज के लोभ का दानव और मिटेगी वह दृष्टि जो आज भी लड़कियों या महिलाओं को बंधुवा मजदूर के रूप में अपने घर की बहू बनाना चा‍हते हैं पर बदले में चाहते हैं लड़के पर बचपन से लेकर आजतक होने वाले सारे खर्च को पूरे ब्याज के साथ। महिला सशक्तीकरण के नाम पर जो सिर्फ कागज का पेट भर कर वाहवाही लूट रहे हैं। बस सब किताबी बातें रह गयी है कि ‘नारी से नर होत है ध्रुव प्रह्लाद समान।’

(नोट: (04/09/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)

बुधवार, 3 सितंबर 2008

तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया...

बखुदा जी चाहता है कि ऊपर वाले का मुँह चूम लूं कि उसने इस धरती के आलीशान टुकड़े पर ऐसे-ऐसे नायाब मुज्जसिमें गढ़ कर भेजे हैं कि बस देखते ही रह जाना पड़ता है। लगता है कि किसी समर-वैकेशन में बड़े इत्मिनान के साथ उन्हे गढ़ते वक्त उनकी किस्मत किसी कमाल की कलम से लिख डाली हो। इसी वजह से बरबस ज़ुबॉं पर यह लाइन आ जाती है, "तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया।"

अपने जैसों की बात करना तो भय्या हरियाली छोड़ रेगिस्तान का कठिन रास्ता नापना जैसा है। खेत काटने जैसी जल्दी में हड़बड़ी के वक्त जैसे-तैसे टेढ़ा-मेढ़ा गढ़ डाला होगा और तकदीर लिखते-लिखते कलम में स्याही खतम होगई होगी। रोना यही है कि आखिर हमने क्या बिगाड़ा था। जो बेचते थे दवा--दिल मेरे साथ, वे दुकान अपनी बढ़ा चले। एक चैनल पर देखकर ताज्जुब हुआ कि एक विदेशी ने ऋगवेद में दिये गये विवरण के अनुसार उन ऐतिहासिक स्थलों की खोज में ईरान और इराक की ख़ाक छान डाली। उसे हासिल भी बहुत कुछ हुआ जिससे दुनिया के सामने हकीकत आयी। पर अपने माननीय द्वारिकाधीशों को दूर को मारिये गोली निकट की वस्तु भी निहारने के लिये उनके चश्मे का पावर धोखा दे जाता है। फॉर एक्जाम्पिल जहाँ सहारा है, वहीं बेसहारों का विशाल समूह देखकर सोचने पर मज़बूर होना पड़ता है कि सचमुच यही है सच्चे समाजवादी समाज का बेहतरीन नमूना। जरा हमसफर बनकर मेरे साथ लखनऊ से बाराबंकी तक लाल लंगोटावाले लालू पहलवान की रेलमपेल रेल में सफर करने की ज़हमत गँवारा करें। गोमती के गुस्से को पीते हुए जैसे आगे बढ़ेगे कि द्वारिकापुरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का दिलकश नज़ारा सामने देखते ही बनता है। माया उनकी समझ में नहीं आती है। किन्तु-परन्तु सहारे में बेसहारों की रोती-बिलखती फटेहाल झुग्गी-झोपड़ियों को देखकर दौड़ती पसीन्जर गाड़ी की खटमलयुक्त सीट पर बैठे-बैठे सोचता हूँ कि रेलवे लाइन के किनारे इन अनगिनत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले सुदामाओ पर पास रहने वाले द्वारिकाधीशों को जरा भी तरस नहीं आया कि कम से कम उनके सिर पर एक-एक पक्की छत तो मुहैय्या करा देते। फिर क्यों नहीं उन्हें मरहूम साहिर साहब का वही शेर याद करने को दिल चाहता है— ‘कि इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।’ यह सबको मालुम है कि ये वे बदनसीब मजूर-दरहे हैं जिनका काम द्वारिकापुरी को सजाने-सँवारने के बाद दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जाएगा। फिर भी इन्हें और इनकी बिना छत झुग्गी- झोपड़ियों को देखकर यूँ जान पड़ता है जैसे चाँद में लगे दाग़ य़ा जैसे सूर्य में लगा ग्रहण। यह तो बाइसकोप का ग़ैरमामूली सीन है बाढ़ में बग़ावत का बिगुल बजाती गोमती मैय्या के पार रेलवे लाइन के किनारे का। यहाँ तो तमाम जाने-अनजाने द्वारिकाधीशो के रंगमहलों व पंचसितारों के आस-पास लकुट-कमरिया ओढ़े टपकती छतों के नीचे पड़े अनगिनत सुदामाओ की झुग्गी-झोपड़ियों का सिनेमास्कोपिक बाइसकोप देखना आम बात है। पहले वाला ज़माना अब रहा कहाँ कि गरीब और फटेहाल सुदामा का नाम सुनते ही बिना किसी प्रोटोकाल की परवाह किये खुद नंगे पाँव गले मिलने चल देते थे और उनकी हालत पर तरस खाकर उन्हें एक दो नहीं बल्कि तीनों लोक देने को उतावले हो जाया करते थे। आज तो द्वारिकाधीशों का स्वार्थ इतना सिर पर चढ़ कर बोल रहा है कि लोक का एक छोटा सा टुकड़ा और टुकड़े पर एक परमानेन्ट छत मुहैय्या कराना गँवारा नहीं किया। यह तो सब जानते हैं कि उन फटीचर सुदामाओं के यह अरमान कभी नही रहे कि उनका एक बँगला बने न्यारा। उस वक्त भी तो फटीचर ‘सुदामा’ की दिली ख्वाहिश बस सिर छुपाने के लिये एक छोटी सी छत और दो जून की बासी ही सही एक टुकड़ा रोटी ही चाहिये थी। आधुनिक द्वारिकाधीशों द्वारा मनमाने ढंग से उगाये गये कंकरीट के जंगलों के बीच गोमती की सुनामी लहरों से अनचाहे खेल खेलते हुए अपनी कूड़े-कबाड़ों से पटी झोपड़ियों पर किस्मत की मार समझते हुए फटेहाली का रोना मानवाधिकार के ठेकेदारों से रोना भी तो बेहतर नहीं समझते हैं क्योकि डर है कि कहीं उन्हे आज के द्वारिकाधीशों का कोपभाजन न बनना पड़े और बची-खुची रोटी के लाले न पड़ जांये। मेरे ख्याल में राजधानी के द्वारिका धीशों को खुद कल्याणकारी राज्य के बोधिवृक्ष के नीचे विचार करना चाहिये। इसीलिये जी चाहता है कहने को ‘तारीफ करूँ उसकी जिसने उन्हें बनाया।‘ उन्हे जिन्हें इतने विशाल देश की गाड़ी को विकास की लाइन पर दौड़ाने के लिये ड्राइबरी की नौकरी दी गयी है। सच पूछिए तो भाईजान मेरी नज़र में तो डरेबरी की नौकरी आई..एस. और आई.पी.एस. वगैरह से कहीं बड़ी है। जरा सी सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना हुयी। इसीलिये अंग्रेजों ने शायद रिटायर करने की एक उम्र निर्धारित की थी। पर उस ज़माने में शायद एलक्शनवाली एनर्जी और लम्बी उम्र अता करनेवाली मशीन नहीं इजाद की गयी रही होगी। अब कितने भी इनरजेटिक और देशसेवा करने की तमन्ना संजोये यूथ-फेस्टिवल वाले उस ड्राइविंग लाइसेन्स के लिये हाथ-पैर मारते रहें लेकिन कोई फायदा होते नहीं दिखता। आजके द्वारिकाधीशों को अमरत्व की घुट्टी जो उनके आला सरदारों ने पिला दी है इसलिये उनके नजदीक रिटायरमेन्ट का भूत फटक नहीं सकता है। किसी ने ठीक ही कहा है,— न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन जब प्यार करे कोई देखे केवल मन।’ भाई, उन्हें इस मुल्क से बेपनाह प्यार जो है। इसलिए उनके रिटायरमेन्ट का सवाल ही नहीं उठता है।

असली-नकली का खेला...

अमां, मुझे अपने अपने बचपन की वह बात खूब अभी तक याद है। जब मैं किसी इम्‍तहान में बगल वाले की कापी को उचक उचक कर देख कर अपनी कापी पर लिख रहा था। उस वक्‍त मूंछे तो नहीं हल्‍की हल्‍की रेख जमी थी। मारे जोश के जब इम्तहान देकर बाहर निकला तो उन रेखों पर ही ताव से हाथ फेरते हुए साथियों को बताता रहा कि मेरे सारे सवाल सेन्‍ट परसेन्‍ट सही होंगे, क्‍योंकि मैंने बगल वाले से अक्षरश: नकल कर डाली है। उधर बगल वाला परीक्षार्थी मुंह लटकाए हुए लोगों से बता रहा था कि उसके सभी सवाल गलत हो गए। मेरी झूठी खुशी पर तंज कसते हुए किसी पतली कमर मौलवी साहब ने फरमाया, ‘हजरत नकल में भी अकल की जरूरत होती है।’ तब मुझे भी होश आया लेकिन तब होता क्‍या है ‘जब चिडि़यां चुग गयी खेत।’

इन दिनों अपने मुल्‍क में भी नकल की सुनामी लहर उठ रही है। रोज अखबारनवीसों को इस नकल के मुद्दे पर कलम तोड़ कर स्‍याही पी लेनी पड़ती है। सुनते हैं आज कल कोई जगह नहीं बची है जहां जाली नोटों की बौछारे न पड़ रही हों। चाहे डुमरियागंज हो या डूंगरगढ़। सब जगह जाली नोटों की बरसात हो रही है। यह सब देखकर पेशोपेश में पड़ गया हूं कि हाल में संसद के स्‍वर्णपटल पर नोटों की गड्डियां जो दिखाई गयीं, खुदा जाने वे असली थी या नकली? क्‍योकि पहले हम लोग जब मुहल्‍ले में ड्रामा खेलते थे और उसमें नोटों की गड्डियां दिखाने का सीन आता था तो हमारे डायरेक्‍टर साहब नीचे ऊपर असली दो चार नोट रखकर बीच में उसी साइज के कटे सादे कागज रख दिया करते थे। देखने वाले समझते थे कि सब असली नोटों की गड्डियां हैं। अब बहरहाल देस में नोटों की कमी है नहीं पर हैरत इस बात पर जरूर होती है कि बैंक जो नोटों के माहिर समझे जाते हैं और ‘विश्‍वास’ जिनका मूलमंत्र होता है वे इन जाली नोटों के जाल में उपभोक्‍ता को कहां और कैसे फंसाने पर उतारू हो गये?

अब अपने दिलो दिमाग के दरवाजे खोलकर झांकने की झकझोर कोशिश करता हूं कि नकली की नकेल नोटों की ही क्‍यों पकड़ी जा रही है? असली नकली का किस्‍सा तो बहुत पुराना है। नकली शिखण्‍डी को ही सामने करके बेचारे बाल ब्रह्मचारी भीष्‍म पितामह का बन्‍टाधार कर दिया गया। तारीख के पन्‍ने पलटने पर मालुम हुआ कि ‘झांसी की रानी’ के किसी गोलन्‍दाज ने गोले के नाम पर नकली गोलों से फिरंगी फौज पर प्रहार किया था। भय्या, क्‍या नकली है और क्‍या असली है? इस चक्‍कर में घनचक्‍कर बनकर माथा खपाना बेकार है। कुछ दिन लोग बोफोर्स और फौजी शहीदों के कैफीन को नकली बताकर आपस में चोंचें लड़ाते रहे। अब यह बात अलग है कि आज शनि की साढ़े साती कागजी नोटों और सरकार से सरोकार रखने वाले बैंकों पर चढ़ बैठी है।

लेकिन मेरी समझ में किसी एक को दोष देना ठीक नहीं है। बड़े-बुजुर्गों ने खूब मन्‍थन करने के बाद कहा था कि जब अपना ही माल खोटा तो परखैया का क्‍या दोष? पहले अपने गिरेबान में मुंह डालकर झांकना चाहिए। सीने पर जरा आइसक्रीम रखकर सोचिए कि नकली नोटों के पीछे ही हाथ धोकर लोग क्‍यों पड़े हैं? कोई सस्‍ती सीबीआई और कोई मद्दी सीआईडी से जांच कराने के लिए गुटुरगूं कर रहा है। सोचने वाली बात है कि जब माननीयों के बीच असली-नकली का खेल चल रहा है तो कहां तक जांच की आंच गर्मी पहुंचाएगी?

अब तो मुझे लगता है कि खुद दुनिया बनाने वाला सोचता होगा कि कहीं उसके द्वारा रचे और धरती पर उतारे गये लोग असली रह भी गये हैं या नहीं? हो सकता है ‘ग्‍लोबल वार्मिंग’ की बदलती फिजां में किसी नकली रचनाकार ने नकली रचना भेजने का पोस्‍टआफिस खोल दिया हो। इन दिनों तो अपने कवि या लेखकों को कुछ ऐसी लाइलाज बीमारी ने धर-दबोचा है कि वे ग़ालिब, शेक्सपीयर और नीरज की पंक्तियों को अपने नाम से पढ़कर अच्‍छा खासा ईनाम, इकराम हासिल कर लेते हैं। अब तो भाईजान ऐसा जमाना आ गया है कि किसी पार्टी में रहते हुए और पार्टी के लिए समर्पित होने का दावा करने वालों के दावे को असली कहना मुश्किल है। भई कहना पड़ता है कि ‘अच्‍छों को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है।’ कौन अपने असली रूप में सरकार के भीतर फुफकार रहा है और कौन बाहर फुफकारने की एक्टिंग कर रहा है, बताना बहुत मुश्किल है। कौन सच्‍चे दिल से रामनाम जप रहा है और कौन नाम के लिए राम का नाम ले रहा, कहना नामुमकिन है। जब पुलिस की वर्दी में डकैत डकैती करके चले जाते हैं और रिपोर्ट लिखने में आनाकानी की जाती है तो भाई असलियत से रूबरू होना नामुमकिन है। सुनने में आता है कि आजकल इंजेक्‍शन लगा कर सब्जियों को खूब डेवलप कर दिया जा रहा है। दूध को असली कहकर सेहत बनाने की चाहत रखना निहायत मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। लेकिन जानते समझते हुए किसी के पेट पर लात क्‍यों मारी जाए? हम कहां कहां सीबीआई और एन्‍टीकरप्‍शन को भिड़ाते रहेंगे? जब पुलिसिया फोर्स होते हुए भी आराम से गाड़ी या बसों में लोग छीन झपट कर चलते बनते हैं तो और कहने को रहा ही क्‍या है? और तो और जब नकली वायदे करके लोगों से विकास के नाम पर वोट बटोर लेते हैं तो इससे बढ़कर नकलीपन क्‍या हो सकता है?

असल में नकलीपन की ऐसी हवा चली है कि जड़ से नेस्‍तानाबूद करना खुद अल्‍लाह मियां के वश में नहीं रहा है। खुदा न खास्‍ता अगर वह दोनों जहां का महान ठेकेदार हमारी गली में आ टपके तो कुछ क्‍या परसेन्‍टेज लोग नकली कहकर सीबीआई के हवाले कर बैठेंगे। लेकिन बमुताबिक दादा हुजूर के सब वक्‍त वक्‍त की बात है। नकलीपन का लेवल कभी रिफाइन्‍ड और सरसों के तेल पर लगाया जाता है, कभी पार्टी के निहायत वफादार पर चस्‍पा करके बाहर का रास्‍ता दिखा दिया जाता है। आज कल मेडिकल स्‍टोर वाले नकली दवाओं के लिए अलग बदनाम हो रहे हैं। कभी कभी लोगों को भी शक होने लगता है कि वे असली माता-पिता की असली संतान हैं भी या नहीं?

बहरहाल मौजूदा हालात में तो नकली नोटों को देखना है कि वे आर्यो की तरह कहीं मध्‍य एशिया से तो नहीं आए? खैर जहां से जैसे भी और जिसके जरिए से भी इस स्‍वर्ग स्‍वरूपा धरती पर आये हों उनसे हमें या हमारे जैसे फटीचरों को क्‍या लेना देना। यहां तो नोट देखा नहीं कि लार टपक पड़ी। लार तो बड़े-बड़े दिग्‍गजों के टपक पड़ती है क्‍योंकि उनकी लोभी नजरों के सामने तो सब से बड़ा रुपय्या है। वे कहां हैं कहां हैं जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वे कहां हैं? क्‍या उनका शगल सिर्फ ‘डील’ की झील में डुबकी लगा कर पाउडर मलना है या कभी श्राइन बोर्ड, कभी रामसेतु और कभी राममंदिर की बाल की खाल निकालना है? उनका इस मामले में क्‍या विचार है जो फर्श पर रहकर अर्श पर पहुंचने का ख्‍वाब देख रहे हैं। इन सबके बावजूद उन्‍हें कहने को जी चाहता है कि पलट तेरा ध्‍यान किधर है? क्‍या हादसे हद से गुजर जाने के बाद उन्‍हें चन्‍द दिनों के लिए ख्‍याल आता है? ऐसे उदारवादी देश के उदारवादी कानून को बारम्‍बार नमन करने को जी चाहता है। क्‍यों नहीं ये बीमारियां दूसरे मुल्‍कों में फैल रही हैं। गुस्‍ताखी माफ की जाए, वही कहावत बार-बार कहकर दिल को तसल्‍ली देना चाहता हूं कि ‘हर शाख पे उल्‍लू बैठे हैं अन्‍जामें गुलिस्‍तां क्‍या होगा?’

इसलिए सिर्फ नकली नोटों को ही नहीं, नकली वोटों के सहारे सुनहरी कुर्सी पर टंगड़ी पसार कर बैठे लोगों की तरफ भी ध्‍यान देना चाहिए।


गुरुवार, 7 अगस्त 2008

कोई सुने इन मुर्दों की दास्‍तान

उच्‍च विचारों की गगनचुम्‍बी इमारतों से झांकते लोगों ने बताया कि सबै भूमि गोपाल की।जी चाहा उचक कर उनके खुशबूदार मुंह को चूम लें। दूसरी तरफ लोगों ने बताया कि-जनाज़ा चाहे दुश्‍मन का ही क्‍यों न हो कम से कम चालीस कदम पहुंचा देना चाहिए। बातें सुनने में बहुत बढ़िया लगती है। बात भी एकदम चोखी है क्‍योंकि जिस फिरंगी हुकूमत ने गुलाम हिंदुस्तानियों पर तरह-तरह के कहर ढाये, आज हम उन्‍हें गले लगाते हुए सफाई देते हैं कि कोई भी पूरी कौम खराब नहीं होती है। यही वजह है कि हमारी दरियादिल सरकार डीलपर दिल दे बैठी है।
सवाल उठता है कि जब हम जिन्‍दा लोगों के सामने घुटने टेक कर दोस्‍ती की भीख मांगने के लिए किसी की आलोचना की परवाह नहीं करते है तो फिर जो इस रहती दुनिया से कूच कर चुके है और परम्‍परानुसार हम उन्‍हें ढेर सारे अकी़दत के फूल चढ़ाते हैं तो फिर उनकी भीड़ के लिए बने कब्रिस्‍तान के मेनटेनेन्‍स पर उदासीनता क्‍यों? देखते-देखते मुस्लिमों के कब्रिस्‍तान की चहारदीवारी बना दी गयी और हर जुमे़रात को चिरागां किया जाता है। गोमती किनारे मुर्दों की मांग पर बैकुण्‍ठ धाम बना दिया गया है, जैसे सेकेण्‍डों-मिनटों में अमौसी हवाई अड्डे का नाम क्‍या से क्‍या हो गया।
अब डीलकी झील में गुड-फील करने वालों की नजर फिरंगियों के उस कब्रिस्‍तान की तरफ क्‍यों नहीं जा रही है जो रेलवे लाइन के किनारे सदर के करीब है। हमने तो पुलिसवालों को किसी लाश की तफ्तीश करते वक्‍त कैप उतारते देखा है जो शायद आदरसूचक होता है। अब तो वह फिरंगियोंके कब्रिस्‍तान के अलावा हिन्‍दुस्‍तानी-ईसाइयों के मुर्दों को दफनाने की भी जगह है। कहते हैं कि अल्‍लाह के प्‍यारे लोगचाहे किसी धर्म जाति और मज़हब के हों, उन्‍हें रिस्पेक्ट पे करना पवित्र कर्त्‍तव्‍य होता है। आज इस कब्रिस्तान (ग्रेवयार्ड) की हालत यह है कि बड़ी-बड़ी घासों और झाड़ियों में कब्रों का वजूद खत्म होता जा रहा है। आसपास के बाशिन्‍दों के लिए गन्‍दगी करने की जगह बन गयी है और जुआरियों का अड्डा। उन्‍हें जरा भी डर नहीं लगता है कि कहीं कोई भूत अंकल नाराज हो गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
मैं हिन्‍दू या मुसलमान हूं। मेरे तो कब्रिस्‍तान या श्‍मशान स्‍थल चकाचक हैं। मुझे क्‍या लेना देना? जो मर गया सो मर गया। मैं इन बेचारे लावारिस मुर्दों को देखकर अपनी संस्‍कृति पर जरूर रो रहा हूं जिसमें मृत्‍यु के बाद भी तमाम संस्‍कारों को सम्‍पन्‍न कराने का चलन रहा है। रोना प्रशासन के उन अलम्‍बरदारों पर आ रहा है जिन्‍हें मालूम है कि एक दिन उन्‍हें भी इसी धरती में सोना है। ठीक ही किसी ने कहा है कि सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। रोना उन ईसाई भाइयों की खामोशी पर भी आ रहा है जो अपने ही भाई-बन्‍धुओं की इस दुर्दशा पर उफ नहीं कर रहे हैं। एक दिन इसी कब्रिस्‍तान से लम्‍बा लबादा पहने एक भूत अंकल मेरे ख्‍वाब में आकर कहने लगा कि तुम लोग जो कर रहे हो ठीक ही कर रहे हो।
एक दिन ऐसा आयेगा जब हमारे कब्रिस्‍तान का वज़ूद मिट जाएगा और उस जगह खड़ी मिलेगी किसी म़ाफिया की आलीशान इमारत। जानते नहीं बुश साहब की तीखी नजर अब इस मुल्‍क पर है। खुदा न खास्ता कभी इधर आने का उनका प्रोग्राम बन गया तो इस ग्रेवयार्डकी हालत देखकर सोचो सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा की क्‍या छवि बनेगी? अभी जो डील की झील में हम गोते लगाते हुए फूले नहीं समा रहे हैं, उसका क्‍या होगा? दुनिया भर की मीडिया कीचड़ उछालेगी। बात में दम देखकर वह बात याद आयी जब अभी हाल में अंग्रेजों का एक दल भारत आया था लेकिन उस दल को ऐसी जगहों पर जाने नहीं दिया गया। रोना उन संस्‍कृति के ठेकेदारों पर जाता है जो कहते हैं सच्‍चा धर्म अविरोधी होता है।जिन्‍दों से हमें नफरत हो सकती है लेकिन जो मर गये उनके लिए तो हमारे दिल में अकी़दत होना चाहिए। वे क्‍यों नहीं सोचते है कि विदेशों में हमारे मंदिरों और मस्ज़िदों को इज्‍जत दी जाती है लेकिन अपने प्रदेश की राजधानी में कायम इस ऐतिहासिक कब्रिस्‍तान की दशा पर किसी का ख्‍याल नहीं। इससे ज्‍यादा शर्म की बात क्‍या हो सकती है। अपने ही देश में मुठभेड़ में मारे गये दस्‍युओं की लाशों पर दो-गज़ कफन देकर इज्‍जत दी जाती है क्‍योंकि मालूम है कि उसका शरीर दस्‍यू था। आत्‍मा तो परमात्‍मा का रूप है। फिर भी कब्र या समाधि के प्रति आदर तो होना चाहिए। जफ़र साहब की वह बात दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कूएयार मेंको नहीं दोहराना चाहिए। चलते-चलाते यह बात कहना चाहता हूं कि कम से कम इसलिए भी अंग्रेजों के इस पुराने कब्रिस्‍तान का जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए। जिससे आने वाली नस्‍लें कुछ समझ सकें, कुछ जान सकें। ईसाई भी तो हमारे अल्‍पसंख्‍यक अंग हैं। उनके साथ न्‍याय जरूर होना चाहिए। मुर्दों की दुआ बड़ी कारगर होती है भाई।

(नोट: (07/08/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चा में प्रकाशित)

बुधवार, 6 अगस्त 2008

कीचड़ में खोया गुलबन्द...

राजा तो मैं कभी रहा नहीं। न तो किसी ज्योतिषी ने कभी राजगद्दी पर बैठने की बात बताई है। वैसे उम्मीद पर जिन्दा जरूर हूं कि इत्तिफाक से कोई मिल गया तो शायद राजभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। उम्मीद इसलिए पुख्ता होती दिखती है कि कल तक जो बेचते थे दवा-ए-दिल वह दुकान अपनी बढ़ा चले और गद्दीनशीन बन कर गुलछर्रे उड़ाने लगे।

बहरहाल सबकी किस्मत अलग-अलग लिखी जाती है। यह लिखने वाले के मूड पर निर्भर करता है। मैं राजा बनूँ या न बनूँ यह अलग बात है पर यह जरूर है कि मुझे अपनी राजधानी से बेपनाह मोहब्बत है। राजधानी से भी ज्यादा मोहब्बत उसके गले में पड़े गुलबन्दनुमा गोमती से है। मोहब्बत के मामले में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सौ साल पहले मुझे उससे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। एक बार एक मोटे-मुस्टण्डे दरोगा जी ने किसी केस सिलसिले में मुझसे सबूत माँगा तो मैंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया, सर, मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती। हुजूर दरोगा साहब गुस्ताखी माफ की जाए। आज कल तो अच्छे-अच्छे सबूत झुठला दिए जाते हैं। साहेब बस समझ लीजिए कि मुझे मोहब्बत है, तो है। सबूत तो अपने मरहूम मियाँ मंजनू, महिवाल, रांझा और जूलियट भी नहीं दे पाए तो यह नाचीज़ नामुराद किस खेत की मूली है? जनाब़, जब मियाँ मँजनू को अपनी लैला की गली के कुत्ते भी प्यारे थे तो मुझे अपनी महबूब राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द से प्यार क्यों नहीं हो सकता हैं?

मुझे अच्छी तरह पता है कि गुलबन्द का नाम लेने पर मेरे सामने वाली खिड़की से झाँकता हुआ चाँद का कोई टुकड़ा मेरी बैकवर्डी पर हँसते हुए कहेगा कि आजकल नेकलेस का फैशन है। मैं समझ गया कि राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द को इसीलिए नेगलेक्ट करते हुए इन कंकरीट के जंगलों में कही छुपाने की ट्रिक खेली जा रही। वे दिन भी क्या दिन थे जब छत्तरमंजिल के सुनहरे छत्तर से टकराती हुए सूरज की सुनहरी किरणें गुलबन्द पर पड़ती थी तो कसम से थोड़ी देर के लिए आँखें चौंधियाँ जाती थीं। ऐसा प्यार उमड़ पड़ता था कि पूछिए मत। लेकिन अब वह बात कहाँ? कंकरीटी जंगल के ऊँचे और भीमकाय पेड़ों में मेरी राजधानी का गोमतीनुमा गुलबन्द न जाने कहाँ गुम हो गया? यह बेज़ान नाचीज ढूंढता फिर रहा है पर उसे पूरी तरह मालूम है कि वह कभी नहीं ढूंढ सकता है। जब बरेली के बाजार में गिरा झुमका नहीं मिल सका तो फिर इस घने जंगल में उसको ढूंढ पाना कितना मुश्किल है? सिर्फ मैं ही नहीं न जाने मेरे जैसे कितने फिदा हुसैन गुहार लगाते रहे मगर अपनी राजधानी के गोमती नुमा गुलबन्द को मटमैले और कीचड़ भरे पानी से निकाल कर उसी पुराने अन्दाज में पहनाने की किसी ने मदद नहीं की? आखिर क्यों? उल्टे उसके लिए ऊँची हवेलियों की आकाश से बातें करती खिड़कियों से जिराफ़ जैसी गरदन निकालें लोग फिकरे कसते हुए गा रहे हैं गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई। भला बताइए तो कुदरत ने कितने अरमानों के साथ अपनी महबूब राजधानी के गले में एक अदद खूबसूरत सा गुलबन्द पहना कर रूख्सत किया था मगर खुदगर्जों ने उसकी कीमत नहीं समझी। समझी भी तो सिर्फ कोरे कागज पर।

गुरुवार, 10 जुलाई 2008

यहाँ भी ‘ब्लैकहोल’ हैं।

बताने वाले ब्रह्माण्ड के ठेकेदार बताते हैं कि हजारों की तादाद में वहॉं ब्लैकहोल घूम रहे हैं जो पास आने वाले सितारों को निगलकर अपनी धधकती आग में खाक कर देते हैं यानी उन सितारों का वजूद खत्‍म। शायद इसी को कुछ ने कयामत का नाम दिया और कुछ ने प्रलय कहा होगा। खैर ब्रह्माण्‍ड की बात ब्रह्माण्‍ड वाले जाने। हमने तो अपनी धरती को भी ठीक ने नहीं देखा है। धरती को कौन कहे अपने शहर का भी अच्‍छी तरह दीदार नहीं किया है। अलबत्‍ता बेजुबानी अखबारनवीसों और खबरियां चैनल वालों के इतनी तो जानकारी मिलती है कि ब्रह्माण्‍ड में ही नहीं बल्कि अपने कस्‍बे और शहरों में भी ऐसे ब्‍लैकहोल खुलेआम नंगी आंखों से देखने को मिलते हैं। नासा के काबिल वैज्ञानिक तो कोशिश में लगे हैं कि किसी तरह अपनी पृथ्‍वी को ब्‍लैकहोल से बचा लिया जाए। मगर अपनी आला काबिल पुलिस दूरबीन से भी नहीं देख पाती है शहर, देहात में घूमते ब्‍लैकहोलों को। आये दिन कोई न कोई ग्रह सरेआम इनका शिकार बन जाता है। इन आसपास के ब्‍लैकहोलों को पता तब चलता है जब किसी चमकते सितारे का काम तमाम हो जाता है। दूर के ब्‍लैकहोलों की खोज में वै‍ज्ञानिकों की टीम माथा खपा रही है, लेकिन पास के ब्‍लैकहोलों से बचने बचाने की सिर्फ योजना बनती है। ब्‍लैकहोल के शिकार कभी भोपाल, कभी निठारी तो कभी आरुषि और शशि जैसे सितारे हुआ करते हैं। खैर जो हुआ सो हुआ, आगे क्‍या होगा अभी देखना बाकी है। जबसे सुना है कि सन् 2012 तक अपनी धरती किसी ब्‍लैकहोल का ग्रास बन जाएगी, तब से बड़ी राहत महसूस कर रहा हूं कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इधर राजधानी के टांग पसारने की बात सुनकर फि‍र एक खौफ समा रहा है कि एक और ब्‍लैकहोल लहलहाते खेतों के साथ लोक संस्‍कृति के विशाल ग्रह को लीलने के लिए बढ़ रहा है, जिसके लिए कभी हिन्‍द को नाज था। दिल बार-बार पूछता है, जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वो कहां हैं, कहां हैं? जो बड़ी अदा के साथ गांधी, लोहिया और विनोबा के ताल से ताल मिलाकर गाया करते थे ‘अमुवा की डारी पे बोले रे कोयलिया कोई आ रहा है़।’ आता था आता है मेड़ों पर से अपनी लहलहाती फसल को देखते हुए मस्‍ती में गाते, ‘कान्‍धे पे कुदरिया रखले माथे पे पगड़िया धइले, आगे आगे हरा चले पीछे से किसनवा खेतवा जोते रे किसनवा।’ चकाचक के नाम पर पहले ही कंकरीट के ‘ब्‍लैकहोलों’ ने गांव देहात के साथ अन्‍न के भण्‍डार खेतों को लील लिया है। अब जो बचे खुचे लोकगीत लोक संस्‍कृति और धरतीपुत्र हैं उन्‍हें भी राजधानी का ब्‍लैकहोल लीलना चाहता है। शायद यही विकास है। राजधानी बढ़े। गांव खेत छोटे हों और फिर घडि़याली आंसू के साथ रोना कि देश में अन्‍न का संतोषजनक उत्‍पादन नहीं हो रहा है।
ऐसा मत ख्‍वाब में मत सोचिए कि मैं चकाचक चौकन्‍ना करने वाली राजधानी का फैलाव नहीं देखना चाहता हूं। दिन पर दिन खेत की मेड़ों पर संगेमरमरी दीवारे तामीर होती जा रही हैं। खुशी होती है कि चलो सूने दरवाजे पर कुमकुमें तो लटकाए जा रहे हैं। हमारे गांव की गलियों में भले अंधेरा छाया हो मगर राजधानी की जगमगाहट देखकर जरूर खुशी हो रही है कि राजधानी के दरबारियों और आम लोगों में कुछ तो फर्क होना चाहिए। मगर अर्श कहीं ब्‍लैकहोल बनकर फर्श को निगल न ले। फिर कहां मिलेगा प्रेमचन्‍द को होरी? कहां पगुराते दिखाई पड़ेंगे हीरा-मोती? कहां सुनने को मिलेगी ‘झीनी झीनी रे बीनी चदरिया’ और मिर्जापुरी कजरी का आनन्‍द कहां मिलेगा? क्‍योंकि उन्‍हें लील रहे हैं ऊंची हवेलियों में आबाद शानोशौकत वाले सीरियलों के ‘ब्‍लैकहोल।’ हमें तो विशुद्ध आबोहवा वाले गांवों से सौ साल पहले भी प्‍यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। चौपालों में बैठ कर रात के बारह बारह बजे तक बतकही करना बहुत भाता था, इसलिए कि वही इस देश प्रदेश की सच्‍ची पहचान है। जमीनी जिन्‍दगी उसी में पलकर उसने राजधानी की चौड़ी सड़कों और संगेमरमरी बारादरी तक पहुंचाया है। वहां पहुंच कर खुद तो ‘ब्‍लैकहोल’ की तरफ खिचे जा रहे हैं। और अब राजधानी का ज्ञानी बनकर गंवई पाती की छाती पर मूंग दल रहे हैं और मक्‍खन का लेप लगा कर जब शहरी ब्‍लैकहोल को गांवों की ओर बढ़ते देखते हैं तो हां में हां मिलाते हुए भूल जाते हैं कि एक दिन उनका भी वजूद मिट सकता है क्‍योंकि ब्‍लैकहोल का खिंचाव होता ही ऐसा है। गांधी, विनोवा, अम्‍बेडकर और लोहिया सबके सब उस ब्‍लैकहोल की भेंट चढ़ जायेंगे। ‘आ बैल मुझे मार वाली’ कहावत चरितार्थ होगी। अभी भी वक्‍त है अपनी लोक संस्‍कृति को बचाने के लिए वरना फिर ब्‍लैकहोल से बचने के लिए कहीं सारे गंवई गाने न लगें ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ क्‍योंकि जनता के वजूद से ही देहात, कस्‍बे, शहर, प्रदेश और देश का वजूद होता है।

आपबीती, जगबीती

पहले नानी से कहानी सुनाने की जिद करते थे तो वह हमेशा कहती थीं कि आप बीती सुनाये या जग बीती। बचपन के दिन भी क्‍या दिन थे। आप बीती या जग बीती का मतलब माने कुछ समझ में नहीं आता था। बस धुन तो एक ही कि नानी की जुबानी कहानी सुनते सुनाते मैं भी नानी की गोद में लुढ़क जाता था और नानी भी खर्राटे भरने लगती थी।
बचपन बीता जवानी आयी तो नानी मृत्‍यु की सुहानी चिरनिद्रा में विलीन हो गयीं। तब आपबीती और जगबीती की सीटी अपने आप मेरे कान में बजना शुरू हो गयी। जगबीती में पता चला कि इस पार हमारा भारत है उस पार चीन, जापान देश मध्‍यस्‍थ खड़ा है। दोनों में एशिया का यह प्रदेश। यानी दुनिया के अलग-अलग भाषाओं, धर्मों और जातियों में बंटे हुए लोग जिनमें होड़ लगी है अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलापने की। सुनाते हुए सबको देखा कि हम सब एक ही पिता की संतान हैं। प्रश्‍न उठता है कि जब एक ही पिता की हम सब संतान हैं और धरती माता की कोख से जनम लिया है तो बीच में फि‍र भेदभाव की खाई कहां से आ टपकी? शायद इसी को कहते हैं जगबीती।
अब नानी की कहानी में आपबीती की बात भी धीरे-धीरे समझ में आने लगी। एक घर एक परिवार लेकिन उनमें भी कोई मेल मिलाप नहीं। कोई न कोई बुजुर्ग रहा होगा जिसका कुनबा बढ़ते-बढ़ते परिवार बना, राज बना और देश बना। हां यह बात अलग है कोई काला हुआ तो कोई गोरा। कोई विकलांग रहा तो कोई सरपट भागने वाला। किसी ने परिवार के लोगों की सेवा करना अपना कर्त्‍तव्‍य समझा तो दलित कहलाया। जिसने परिवार की सुरक्षा की जिम्‍मा उठाया तो वह शस्‍त्रधारी क्षत्रिय कहलाने पर फूले नहीं समाया। शस्‍त्रों के अध्‍ययन अध्‍यापन में जिन्‍हें इन्‍टरेस्‍ट हुआ उन्‍हें ब्राह्मण की कटेगरी में रखा गया। चलिए आपबीती वाली नानी की कहानी समझ में आयी। बड़े ध्‍यान से समझने के बाद नतीजा निकला कि यह आपबीती वाली कहानी जगबीती की एकदम कार्बन कापी रही। जगबीती में नानी तो नहीं बता सकीं लेकिन जब गुरू जी से शिक्षा लायक हुआ तो पता चला कि चंगेज, हलाकू और सिकन्‍दर अपनी हुकूमत के वित्‍तांत को तानने के लिए उन्‍हीं के खून से होली खेली जो उन्‍हीं के भाई बंधु रहे होंगे। नानी की आपबीती कहानी सुनकर उतनी समझ तो नहीं थी लेकिन यहां भी घर परिवारों की चहारदीवारियों के पीछे सिकन्‍दर कलंदर की कहानी कहते-कहते नानी बेचारी कभी-कभी रूंआसी हो जाया करती थीं। नानी तो नदारद हो गयीं और आपबीती का यह पात्र अपने छोटे से घर परिवार के दायरे में सिमटा हुआ गृहस्‍थी की दहलीज पर खिसकता-खिसकता पहुंच गया, लेकिन वहां सिकन्‍दर और पोरस का घमासान देखने को मिला तो यकीन नहीं होता कि हमें जन्‍म देने वाले एक ही माता पिता रहे होंगे। यहां भी अपना साम्राज्‍य बढ़ाने के लिए इनडायरेक्‍ट संघर्ष। जबकि सबकी जुबानी एक ही बात निकलती है कि सिकन्‍दर भी आया कलंदर भी आया, कोई रहा है न कोई रहेगा। हैरतअंगेज बात तो तब लगती है कि जिस बुजुर्ग ने कुनबे भर को पालने पोसने के लिए न जाने किस मशक्‍कत से जिन्‍दगी दांव पर लगा दी, उसी को पूरा कुनबा सठियाया समझ कर आंखों से ओझल करने की कोशिश करता है। कोर्ट कचेहरी का चक्‍कर लगाते हैं। इस संघर्ष में सब अपने-अपने तवे अलग कर लेते हैं। मगर वो दो तीन बहुओं के रहते हुए बेचारे वृद्ध-वृद्धा को अपना पेट भरने के लिए खुद रसोई की आग में झुलसना पड़ता है। अपना रोना रोवे तो किससे? कोई तो आंसू पोछने वाला होना चाहिए। बहुत पुराना घिसा-पिटा शब्‍द ‘सठिया गया बुड्ढा’ बस सुनकर आपबीती कहानी सुनाने की हिम्‍मत नहीं होती। सरकार ने इंतजाम तो बहुत किए हैं लेकिन वहां पहुंचने के पहले ‘जल में रहकर मगर से डर’ बना रहता है। इसलिए ज्‍यादातर ऐसी कहानियां दुखान्‍त ही होती हैं।
मुझे तो नानी की कहानी जगबीती ही अच्‍छी लगती है क्‍योंकि वहां जो कुछ हुआ है वह डायरेक्‍ट रहा है। ‘आपबीती’ कहानी में जो होता है इनडायरेक्‍ट होता है जिससे औरों को सुनाना भी मुश्किल होता है। इसलिए यहां घुटन ज्‍यादा होती है और जी यही चाहता है कि नानी अपने साथ ही क्‍यों नहीं ले गयीं। आखिर में वहीं पुराना गाना याद आता है ‘चल उड़ जा रे पंछी यह देश हुआ बेगाना’। जिसे यकीनन सबको एक दिन गाते-गाते रोना पड़ेगा। बात निराशावादी जरूर है लेकिन सच्‍चाई यही है और यह घर-घर की कहानी कहकर लोग संतोष कर लेते हैं।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

सियासत के साज़ पर बुतों का संगीत

बेज़ान पत्थर से तराशे गए बुतों का जमाना फिर लौट आया है। इस बार बोलते बुतों के दिन बहुरे हैं लेकिन अलग-अलग आन-बान-शान के साथ। अजन्ता, एलोरा और खजुराहों के बुत तो संततराशों की लाख कोशिशों के बावजूद आज तक नहीं बोल सके। मुमकीन है कि गुज़रे जमाने के संततराश बुत को बुत ही रहने देना चाहते हों। वे उन्हे आज के रोबोट नहीं बनाना चाहते हों, जो राजनीति की रागिनी पर थिरक उठें। आँखों ही आँखों में इशारा समझ बैठें।

रविवार, 6 जुलाई 2008

ऊँचा देखो, ऊँचा सुनो

न जाने कब से तमन्ना रही है कि एक घर बनाऊँगा तेरे घर के सामने। अपने लख्ते जिगर रमफेरवा की पुरानी बोतल में नई शराब नुमा माई का सपना रहा है कि एक बंगला बने न्यारा। मगर अपना रमफेरवा जब पड़ोसी से लाया अख़बार जोर-जोर से बाँचते हुए सीमेन्ट, मौरंग, बालू और ईंटो के आसमान छूते भाव बताता है तो पैर के नीचे से बाप दादों के जम़ाने से चली आ रही ज़मीन खिसकती महसूस होती है।
अब देखिए न मैं भी अच्छी खासी चपरासी की नौकरी करता हूँ। जिगर का टुकड़ा रमफेरवा चाट का ठेला लगा कर सौ-पचास रूपये रोज कमा ही लाता है और रही उसके माई की बात तो वह भी घरों का चौका-बरतन कर के कुछ न कुछ ले ही आती है। यानी ‘साथी हाथ बढ़ाना एक अकेला थक जाएगा बढ़ के बोझ उठाना’ वाली बात पर बाकायदा अमल किया जा रहा है। फिर भी ‘ढाक के तीन पात’ वाली बात है। याद है पहले कुछ निम्न तबके वालों को सुना जाता था कि घर भर कमाते हैं तो लोग हँसी उड़ाया करते थे। आज वही बात आम होकर शान समझी जा रही है। सब वक्त की बलिहारी है मगर चारों ओर एक ही शोर सुनाई देता है कि ‘भय्या मँहगाई बहुत बढ़ गयी है।’ अब समझ से परे है कि इतने पर भी सरकारी गैर-सरकारी बँगलो पे बँगले न्यारे बनते चले जा रहे हैं। आखिर कैसे और क्यों? मोटे तौर से बात हँसी के साथ समझ में आती है कि पॉकेट हमारी ओर जगन्नाथ रूपी हाथ उनके। पहले कहावत थी कि ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ पर अब मामला उल्टा हो रहा है।.चलिए, ‘जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समाना’ उनके घर के सामने अपना घर नहीं बनाया रमफेरवा की माई का सपना ‘इक बँगला बने न्यारा’ सच नहीं हुआ तो क्या हुआ? जिन्हें हमने वोट के ओवरकोट पहना कर भेजा उनकी ख्वाहिशें तो पूरी हो रही है और हमारे लिए है कि हर ख्वाहिश पर हमारा दम निकले। दम तो एक दिन निकलना ही है। आखिर शहर सजेगा तो हमारा भी नाम होगा कि हम फलाँ शहर के वासी हैं। मन की वीणा पर ताल से ताल मिला कर गाने वाले मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आदमी की सोच सकारात्मक होनी चाहिए। उसे हमेशा आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए।
अब बेमौसम की बरसात में सकारात्मक सोच के फटे शामियाने के नीचे बैठे कर सोचते हैं तो बात समझ में आती है। आदमी भी खूब है। कहीं एक चीज़ उसे नीलगगन में उड़ने का आनन्द देती है। कहीं वहीं उड़ान उसे दर्द देती है। मैं ही जब अपने देश या शहर की बाहें फैलाए सड़को, उस पर दौड़ते वाहनों की कतार और आकाश से बातें करती इमारतों को देखता हूँ तो गजब का गर्व होता है और उसी गर्व में कहता हूँ कि यहीं वजह हो सकती है कि खुदा को प्यारे हुए लोग उनसे गिड़गिड़ा कर अरदास करते होगें कि हमें फिर से उसी तरक्की पसन्द मुल्क में वापस भेज दो। ऐसे में कुछ खलनायक टाइप लोग मँहगाई का हवाला देकर उन्हें भड़काते होंगें तो उन खुदा के प्यारे लोगों के ट्रान्सफर और पोस्टिंग की फाइलें दबा कर रख दी जाती होंगी।
उस वक्त के लिए मैं सोचता हूँ कि अगर बतौर मुझे वकील मुकर्रर किया जाता तो मै उनका केस यूँ लड़ता कि मीलार्ड — ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ में सर्वांगीण विकास किया जा रहा है। फिर आदमी का आदमी के लिए और आदमी के द्वारा चीज़ों की कीमतों में तरक्की होने से शिकवा शिकायत क्यों? हर कोई तरक्की पसन्द होता है। हर कोई बढ़त चाहता हैं। चाँद-सितारों की तमन्ना करता है। एक मँजिल से दो मँजिल और दो से तीन मँजिलों वाली बिल्डिंगों पर फील्डिंग करने का मज़ा कुछ और ही होता है। यहाँ के लोगो की तारीफ करना चाहिए के वे निरन्तर ऊपर की ओर देखना पसन्द करते हैं। सबूत है— योर ऑनर कि रावण ने स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनाने की योजना बनाई थी। आज का भी सबूत हुजूर हाजिर है कि हमारे बीच के लोग खेत खलिहानों से आगे बढ़ कर राजधानियों की गगनचुम्बी इमारतों को स्पर्श करने के अरमान सजाये हुए हैं। गोया कि इसी का दूसरा नाम तरक्की है। ऐसे में अगर तरक्की को छूने के लिए कीमतें आगे बढ़ रही हैं तो गुनाह कहना मेरी समझ से दुरूस्त नहीं है? उसे भी बढ़ते रहने का पूरा हक़ है। इन बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगा कर उसे पीछे ढकेलना कहाँ तक इन्साफ हैं? बल्कि उसका नाम गिनीज बुक जैसे ग्रन्थों में नोट किया जाना चाहिए। यह उसके साथ मीलार्ड बहुत गैर इन्साफी होगी कि कुछ मुठ्ठी भर गरीब लोगो के लिए उस पर रोक लगाने की कवायद में समय बरबाद किया जाए। दैट्स ऑल मीलार्ड। इस लिए अगर कीमतें आसमान छू रही हैं तो उन्हें छूने देना चाहिए। बल्कि उनकी हिम्मत अफ़जाई की जानी चाहिए।