गुरुवार, 10 जुलाई 2008

यहाँ भी ‘ब्लैकहोल’ हैं।

बताने वाले ब्रह्माण्ड के ठेकेदार बताते हैं कि हजारों की तादाद में वहॉं ब्लैकहोल घूम रहे हैं जो पास आने वाले सितारों को निगलकर अपनी धधकती आग में खाक कर देते हैं यानी उन सितारों का वजूद खत्‍म। शायद इसी को कुछ ने कयामत का नाम दिया और कुछ ने प्रलय कहा होगा। खैर ब्रह्माण्‍ड की बात ब्रह्माण्‍ड वाले जाने। हमने तो अपनी धरती को भी ठीक ने नहीं देखा है। धरती को कौन कहे अपने शहर का भी अच्‍छी तरह दीदार नहीं किया है। अलबत्‍ता बेजुबानी अखबारनवीसों और खबरियां चैनल वालों के इतनी तो जानकारी मिलती है कि ब्रह्माण्‍ड में ही नहीं बल्कि अपने कस्‍बे और शहरों में भी ऐसे ब्‍लैकहोल खुलेआम नंगी आंखों से देखने को मिलते हैं। नासा के काबिल वैज्ञानिक तो कोशिश में लगे हैं कि किसी तरह अपनी पृथ्‍वी को ब्‍लैकहोल से बचा लिया जाए। मगर अपनी आला काबिल पुलिस दूरबीन से भी नहीं देख पाती है शहर, देहात में घूमते ब्‍लैकहोलों को। आये दिन कोई न कोई ग्रह सरेआम इनका शिकार बन जाता है। इन आसपास के ब्‍लैकहोलों को पता तब चलता है जब किसी चमकते सितारे का काम तमाम हो जाता है। दूर के ब्‍लैकहोलों की खोज में वै‍ज्ञानिकों की टीम माथा खपा रही है, लेकिन पास के ब्‍लैकहोलों से बचने बचाने की सिर्फ योजना बनती है। ब्‍लैकहोल के शिकार कभी भोपाल, कभी निठारी तो कभी आरुषि और शशि जैसे सितारे हुआ करते हैं। खैर जो हुआ सो हुआ, आगे क्‍या होगा अभी देखना बाकी है। जबसे सुना है कि सन् 2012 तक अपनी धरती किसी ब्‍लैकहोल का ग्रास बन जाएगी, तब से बड़ी राहत महसूस कर रहा हूं कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
इधर राजधानी के टांग पसारने की बात सुनकर फि‍र एक खौफ समा रहा है कि एक और ब्‍लैकहोल लहलहाते खेतों के साथ लोक संस्‍कृति के विशाल ग्रह को लीलने के लिए बढ़ रहा है, जिसके लिए कभी हिन्‍द को नाज था। दिल बार-बार पूछता है, जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वो कहां हैं, कहां हैं? जो बड़ी अदा के साथ गांधी, लोहिया और विनोबा के ताल से ताल मिलाकर गाया करते थे ‘अमुवा की डारी पे बोले रे कोयलिया कोई आ रहा है़।’ आता था आता है मेड़ों पर से अपनी लहलहाती फसल को देखते हुए मस्‍ती में गाते, ‘कान्‍धे पे कुदरिया रखले माथे पे पगड़िया धइले, आगे आगे हरा चले पीछे से किसनवा खेतवा जोते रे किसनवा।’ चकाचक के नाम पर पहले ही कंकरीट के ‘ब्‍लैकहोलों’ ने गांव देहात के साथ अन्‍न के भण्‍डार खेतों को लील लिया है। अब जो बचे खुचे लोकगीत लोक संस्‍कृति और धरतीपुत्र हैं उन्‍हें भी राजधानी का ब्‍लैकहोल लीलना चाहता है। शायद यही विकास है। राजधानी बढ़े। गांव खेत छोटे हों और फिर घडि़याली आंसू के साथ रोना कि देश में अन्‍न का संतोषजनक उत्‍पादन नहीं हो रहा है।
ऐसा मत ख्‍वाब में मत सोचिए कि मैं चकाचक चौकन्‍ना करने वाली राजधानी का फैलाव नहीं देखना चाहता हूं। दिन पर दिन खेत की मेड़ों पर संगेमरमरी दीवारे तामीर होती जा रही हैं। खुशी होती है कि चलो सूने दरवाजे पर कुमकुमें तो लटकाए जा रहे हैं। हमारे गांव की गलियों में भले अंधेरा छाया हो मगर राजधानी की जगमगाहट देखकर जरूर खुशी हो रही है कि राजधानी के दरबारियों और आम लोगों में कुछ तो फर्क होना चाहिए। मगर अर्श कहीं ब्‍लैकहोल बनकर फर्श को निगल न ले। फिर कहां मिलेगा प्रेमचन्‍द को होरी? कहां पगुराते दिखाई पड़ेंगे हीरा-मोती? कहां सुनने को मिलेगी ‘झीनी झीनी रे बीनी चदरिया’ और मिर्जापुरी कजरी का आनन्‍द कहां मिलेगा? क्‍योंकि उन्‍हें लील रहे हैं ऊंची हवेलियों में आबाद शानोशौकत वाले सीरियलों के ‘ब्‍लैकहोल।’ हमें तो विशुद्ध आबोहवा वाले गांवों से सौ साल पहले भी प्‍यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। चौपालों में बैठ कर रात के बारह बारह बजे तक बतकही करना बहुत भाता था, इसलिए कि वही इस देश प्रदेश की सच्‍ची पहचान है। जमीनी जिन्‍दगी उसी में पलकर उसने राजधानी की चौड़ी सड़कों और संगेमरमरी बारादरी तक पहुंचाया है। वहां पहुंच कर खुद तो ‘ब्‍लैकहोल’ की तरफ खिचे जा रहे हैं। और अब राजधानी का ज्ञानी बनकर गंवई पाती की छाती पर मूंग दल रहे हैं और मक्‍खन का लेप लगा कर जब शहरी ब्‍लैकहोल को गांवों की ओर बढ़ते देखते हैं तो हां में हां मिलाते हुए भूल जाते हैं कि एक दिन उनका भी वजूद मिट सकता है क्‍योंकि ब्‍लैकहोल का खिंचाव होता ही ऐसा है। गांधी, विनोवा, अम्‍बेडकर और लोहिया सबके सब उस ब्‍लैकहोल की भेंट चढ़ जायेंगे। ‘आ बैल मुझे मार वाली’ कहावत चरितार्थ होगी। अभी भी वक्‍त है अपनी लोक संस्‍कृति को बचाने के लिए वरना फिर ब्‍लैकहोल से बचने के लिए कहीं सारे गंवई गाने न लगें ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ क्‍योंकि जनता के वजूद से ही देहात, कस्‍बे, शहर, प्रदेश और देश का वजूद होता है।

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