रविवार, 6 जुलाई 2008

ऊँचा देखो, ऊँचा सुनो

न जाने कब से तमन्ना रही है कि एक घर बनाऊँगा तेरे घर के सामने। अपने लख्ते जिगर रमफेरवा की पुरानी बोतल में नई शराब नुमा माई का सपना रहा है कि एक बंगला बने न्यारा। मगर अपना रमफेरवा जब पड़ोसी से लाया अख़बार जोर-जोर से बाँचते हुए सीमेन्ट, मौरंग, बालू और ईंटो के आसमान छूते भाव बताता है तो पैर के नीचे से बाप दादों के जम़ाने से चली आ रही ज़मीन खिसकती महसूस होती है।
अब देखिए न मैं भी अच्छी खासी चपरासी की नौकरी करता हूँ। जिगर का टुकड़ा रमफेरवा चाट का ठेला लगा कर सौ-पचास रूपये रोज कमा ही लाता है और रही उसके माई की बात तो वह भी घरों का चौका-बरतन कर के कुछ न कुछ ले ही आती है। यानी ‘साथी हाथ बढ़ाना एक अकेला थक जाएगा बढ़ के बोझ उठाना’ वाली बात पर बाकायदा अमल किया जा रहा है। फिर भी ‘ढाक के तीन पात’ वाली बात है। याद है पहले कुछ निम्न तबके वालों को सुना जाता था कि घर भर कमाते हैं तो लोग हँसी उड़ाया करते थे। आज वही बात आम होकर शान समझी जा रही है। सब वक्त की बलिहारी है मगर चारों ओर एक ही शोर सुनाई देता है कि ‘भय्या मँहगाई बहुत बढ़ गयी है।’ अब समझ से परे है कि इतने पर भी सरकारी गैर-सरकारी बँगलो पे बँगले न्यारे बनते चले जा रहे हैं। आखिर कैसे और क्यों? मोटे तौर से बात हँसी के साथ समझ में आती है कि पॉकेट हमारी ओर जगन्नाथ रूपी हाथ उनके। पहले कहावत थी कि ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ पर अब मामला उल्टा हो रहा है।.चलिए, ‘जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समाना’ उनके घर के सामने अपना घर नहीं बनाया रमफेरवा की माई का सपना ‘इक बँगला बने न्यारा’ सच नहीं हुआ तो क्या हुआ? जिन्हें हमने वोट के ओवरकोट पहना कर भेजा उनकी ख्वाहिशें तो पूरी हो रही है और हमारे लिए है कि हर ख्वाहिश पर हमारा दम निकले। दम तो एक दिन निकलना ही है। आखिर शहर सजेगा तो हमारा भी नाम होगा कि हम फलाँ शहर के वासी हैं। मन की वीणा पर ताल से ताल मिला कर गाने वाले मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आदमी की सोच सकारात्मक होनी चाहिए। उसे हमेशा आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए।
अब बेमौसम की बरसात में सकारात्मक सोच के फटे शामियाने के नीचे बैठे कर सोचते हैं तो बात समझ में आती है। आदमी भी खूब है। कहीं एक चीज़ उसे नीलगगन में उड़ने का आनन्द देती है। कहीं वहीं उड़ान उसे दर्द देती है। मैं ही जब अपने देश या शहर की बाहें फैलाए सड़को, उस पर दौड़ते वाहनों की कतार और आकाश से बातें करती इमारतों को देखता हूँ तो गजब का गर्व होता है और उसी गर्व में कहता हूँ कि यहीं वजह हो सकती है कि खुदा को प्यारे हुए लोग उनसे गिड़गिड़ा कर अरदास करते होगें कि हमें फिर से उसी तरक्की पसन्द मुल्क में वापस भेज दो। ऐसे में कुछ खलनायक टाइप लोग मँहगाई का हवाला देकर उन्हें भड़काते होंगें तो उन खुदा के प्यारे लोगों के ट्रान्सफर और पोस्टिंग की फाइलें दबा कर रख दी जाती होंगी।
उस वक्त के लिए मैं सोचता हूँ कि अगर बतौर मुझे वकील मुकर्रर किया जाता तो मै उनका केस यूँ लड़ता कि मीलार्ड — ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ में सर्वांगीण विकास किया जा रहा है। फिर आदमी का आदमी के लिए और आदमी के द्वारा चीज़ों की कीमतों में तरक्की होने से शिकवा शिकायत क्यों? हर कोई तरक्की पसन्द होता है। हर कोई बढ़त चाहता हैं। चाँद-सितारों की तमन्ना करता है। एक मँजिल से दो मँजिल और दो से तीन मँजिलों वाली बिल्डिंगों पर फील्डिंग करने का मज़ा कुछ और ही होता है। यहाँ के लोगो की तारीफ करना चाहिए के वे निरन्तर ऊपर की ओर देखना पसन्द करते हैं। सबूत है— योर ऑनर कि रावण ने स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनाने की योजना बनाई थी। आज का भी सबूत हुजूर हाजिर है कि हमारे बीच के लोग खेत खलिहानों से आगे बढ़ कर राजधानियों की गगनचुम्बी इमारतों को स्पर्श करने के अरमान सजाये हुए हैं। गोया कि इसी का दूसरा नाम तरक्की है। ऐसे में अगर तरक्की को छूने के लिए कीमतें आगे बढ़ रही हैं तो गुनाह कहना मेरी समझ से दुरूस्त नहीं है? उसे भी बढ़ते रहने का पूरा हक़ है। इन बढ़ती कीमतों पर अंकुश लगा कर उसे पीछे ढकेलना कहाँ तक इन्साफ हैं? बल्कि उसका नाम गिनीज बुक जैसे ग्रन्थों में नोट किया जाना चाहिए। यह उसके साथ मीलार्ड बहुत गैर इन्साफी होगी कि कुछ मुठ्ठी भर गरीब लोगो के लिए उस पर रोक लगाने की कवायद में समय बरबाद किया जाए। दैट्स ऑल मीलार्ड। इस लिए अगर कीमतें आसमान छू रही हैं तो उन्हें छूने देना चाहिए। बल्कि उनकी हिम्मत अफ़जाई की जानी चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें