गुरुवार, 10 जुलाई 2008

आपबीती, जगबीती

पहले नानी से कहानी सुनाने की जिद करते थे तो वह हमेशा कहती थीं कि आप बीती सुनाये या जग बीती। बचपन के दिन भी क्‍या दिन थे। आप बीती या जग बीती का मतलब माने कुछ समझ में नहीं आता था। बस धुन तो एक ही कि नानी की जुबानी कहानी सुनते सुनाते मैं भी नानी की गोद में लुढ़क जाता था और नानी भी खर्राटे भरने लगती थी।
बचपन बीता जवानी आयी तो नानी मृत्‍यु की सुहानी चिरनिद्रा में विलीन हो गयीं। तब आपबीती और जगबीती की सीटी अपने आप मेरे कान में बजना शुरू हो गयी। जगबीती में पता चला कि इस पार हमारा भारत है उस पार चीन, जापान देश मध्‍यस्‍थ खड़ा है। दोनों में एशिया का यह प्रदेश। यानी दुनिया के अलग-अलग भाषाओं, धर्मों और जातियों में बंटे हुए लोग जिनमें होड़ लगी है अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलापने की। सुनाते हुए सबको देखा कि हम सब एक ही पिता की संतान हैं। प्रश्‍न उठता है कि जब एक ही पिता की हम सब संतान हैं और धरती माता की कोख से जनम लिया है तो बीच में फि‍र भेदभाव की खाई कहां से आ टपकी? शायद इसी को कहते हैं जगबीती।
अब नानी की कहानी में आपबीती की बात भी धीरे-धीरे समझ में आने लगी। एक घर एक परिवार लेकिन उनमें भी कोई मेल मिलाप नहीं। कोई न कोई बुजुर्ग रहा होगा जिसका कुनबा बढ़ते-बढ़ते परिवार बना, राज बना और देश बना। हां यह बात अलग है कोई काला हुआ तो कोई गोरा। कोई विकलांग रहा तो कोई सरपट भागने वाला। किसी ने परिवार के लोगों की सेवा करना अपना कर्त्‍तव्‍य समझा तो दलित कहलाया। जिसने परिवार की सुरक्षा की जिम्‍मा उठाया तो वह शस्‍त्रधारी क्षत्रिय कहलाने पर फूले नहीं समाया। शस्‍त्रों के अध्‍ययन अध्‍यापन में जिन्‍हें इन्‍टरेस्‍ट हुआ उन्‍हें ब्राह्मण की कटेगरी में रखा गया। चलिए आपबीती वाली नानी की कहानी समझ में आयी। बड़े ध्‍यान से समझने के बाद नतीजा निकला कि यह आपबीती वाली कहानी जगबीती की एकदम कार्बन कापी रही। जगबीती में नानी तो नहीं बता सकीं लेकिन जब गुरू जी से शिक्षा लायक हुआ तो पता चला कि चंगेज, हलाकू और सिकन्‍दर अपनी हुकूमत के वित्‍तांत को तानने के लिए उन्‍हीं के खून से होली खेली जो उन्‍हीं के भाई बंधु रहे होंगे। नानी की आपबीती कहानी सुनकर उतनी समझ तो नहीं थी लेकिन यहां भी घर परिवारों की चहारदीवारियों के पीछे सिकन्‍दर कलंदर की कहानी कहते-कहते नानी बेचारी कभी-कभी रूंआसी हो जाया करती थीं। नानी तो नदारद हो गयीं और आपबीती का यह पात्र अपने छोटे से घर परिवार के दायरे में सिमटा हुआ गृहस्‍थी की दहलीज पर खिसकता-खिसकता पहुंच गया, लेकिन वहां सिकन्‍दर और पोरस का घमासान देखने को मिला तो यकीन नहीं होता कि हमें जन्‍म देने वाले एक ही माता पिता रहे होंगे। यहां भी अपना साम्राज्‍य बढ़ाने के लिए इनडायरेक्‍ट संघर्ष। जबकि सबकी जुबानी एक ही बात निकलती है कि सिकन्‍दर भी आया कलंदर भी आया, कोई रहा है न कोई रहेगा। हैरतअंगेज बात तो तब लगती है कि जिस बुजुर्ग ने कुनबे भर को पालने पोसने के लिए न जाने किस मशक्‍कत से जिन्‍दगी दांव पर लगा दी, उसी को पूरा कुनबा सठियाया समझ कर आंखों से ओझल करने की कोशिश करता है। कोर्ट कचेहरी का चक्‍कर लगाते हैं। इस संघर्ष में सब अपने-अपने तवे अलग कर लेते हैं। मगर वो दो तीन बहुओं के रहते हुए बेचारे वृद्ध-वृद्धा को अपना पेट भरने के लिए खुद रसोई की आग में झुलसना पड़ता है। अपना रोना रोवे तो किससे? कोई तो आंसू पोछने वाला होना चाहिए। बहुत पुराना घिसा-पिटा शब्‍द ‘सठिया गया बुड्ढा’ बस सुनकर आपबीती कहानी सुनाने की हिम्‍मत नहीं होती। सरकार ने इंतजाम तो बहुत किए हैं लेकिन वहां पहुंचने के पहले ‘जल में रहकर मगर से डर’ बना रहता है। इसलिए ज्‍यादातर ऐसी कहानियां दुखान्‍त ही होती हैं।
मुझे तो नानी की कहानी जगबीती ही अच्‍छी लगती है क्‍योंकि वहां जो कुछ हुआ है वह डायरेक्‍ट रहा है। ‘आपबीती’ कहानी में जो होता है इनडायरेक्‍ट होता है जिससे औरों को सुनाना भी मुश्किल होता है। इसलिए यहां घुटन ज्‍यादा होती है और जी यही चाहता है कि नानी अपने साथ ही क्‍यों नहीं ले गयीं। आखिर में वहीं पुराना गाना याद आता है ‘चल उड़ जा रे पंछी यह देश हुआ बेगाना’। जिसे यकीनन सबको एक दिन गाते-गाते रोना पड़ेगा। बात निराशावादी जरूर है लेकिन सच्‍चाई यही है और यह घर-घर की कहानी कहकर लोग संतोष कर लेते हैं।

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