गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

हम रोते भी रहे, हँसते भी रहे

अपने तंग दायरे के दरम्यान खड़े मुरझाए बरगद के पेड़ के नीचे सोचता हूँ की मनरेगा वालों से एक थाला खोदने के लिए चिरौरी-विनती की जाए जिसमें पानी भर दिया जाये। पेड़ हरा-भरा रहेगा तो छाँव में दो पल बैठकर देश-दुनिया की चर्चा करने राहगीर भी पहुँच जाया करेंगे। कभी-कभार कमण्डल करताल लिए कोई न कोई साधु-सन्यासी भजन-कीर्तन करने पहुँच सकता है। अलावा इसके तरह-तरह के चिड़िया-चिड्ढे चहचहाने के लिए कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर फुदक कर कम से कम एक जून की रोटी पर से ध्यान तो हटा देंगे। मीर साहब को प्लानिंग फिट लगी तो उन्होंने अपने किसी तजदीकी साहेब से सिफारिश की। साहब ने बड़ी मुस्तैदी से जवाब दिया की ‘मीर साहब इसके लिए मेम साहब से बात करनी पड़ेगी क्योंकि वह अपने फॉर्म में एक तालाब का बोटिंग के वास्ते सुन्दरीकरण करना चाहती हैं’। मीर साहब छत्ते भर का मुँह लटकाए मिले तो किस्सा तोता-मैना की तरह अपना किस्सा बाँच दिया। वहीं खड़ी अपने जिगर के टुकड़े रमफेरवा की ढोलकनुमा माई बजना शुरू हो गई कि हे रमफेरवा के बापू और मीर भैया ‘ढेर उपकारी जिन बने के जतन करो। ई सोचते हैं जी, कि इहाँ पानी पिये कै नसीबे नाहीं होत है तो गड्ढा खोद के का होई? ऊ जमाना भुलाय जाओ जब जगहा-जगहा चरही बनवावा जात रहा और छाँव खातिर सड़क किनारे पेड़ लगवावा जात रहा। अब सब भूल जाओ’। रमफेरवा के माई की दलील सुनते ही मीर साहब ने तेजी से गिरगिटान जैसी गरदन झटकी। कहने लगे अमां यह बिल्कुल ठीकै फरमाती हैं। बिजली रहने का भी तो मामला है। जब बिजुरिए नहीं रहेगी तो पानी कैसे मिलेगा? मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ रमफेरवा के अब्बा हुज़ूर। अजी पहले अपने दायरे के बारे में सोचो कि कल यह रहेगा या नहीं। तुम रहोगे या नहीं। हमने तो उड़ते-उड़ते सुना है कि यहाँ कोई मेट्रो सिटी या बिगबाज़ार बनने वाला है।‘तब कहाँ से बिजली पानी मुहैया कराई जाएगी मीर साहब’? रमफेरवा कि माई खिलखिला कर हंस पड़ी उसने बिना कॉमा फुलस्टाप के बोलना शुरू कर दिया, कहने लगी ‘रमफेरवा के बापू तू रह गईला बुड़बक के बुड़बकै। अपने रजधानिए में देखला बाकी मुहल्ला बिन पानी सब सून गवनहीं करत है और ऊ पारिक का देखा काओ झकझक करत है। रामदे ऊ पानी के फ़ौव्वारा चलत बाटे कि देखतै जिव जुड़ाए जाये। अपने इहाँ सिविललैन का देखला काओ जगमग करत है। मीर साहब बीच में दूसरा चैनल बदलते हुए कहने लगे ‘अमां फिरंगी चले गए मगर फिरंगी महल छोड़ गए रमफेरवा के अब्बा। उस महल में आज भी फ़िरंगियों के भूत अपना काम तमाम करने में जुटे हैं। अब रही तुम्हारे फटीचर दायरे और इस मुरझाए बरगद की बात तो उनकी तरक्की की बात तो बस कागज़ में पढ़कर दिल को तसल्ली देते रहो। नक्कार खाने में तूती की आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है मियाँ। जो सुनने वाले भी हैं वे जाड़े के लिए वोटों से ओवरकोट फिट कराने के चक्कर में घनचक्कर बने दिखाई दे रहे हैं’।

दोनों तरफ हमले से मैं बौखला उठा। विपक्षी तेवर में बोला “अरे क्या समझते हो मीर साहब हमलोग भी कम नहीं हैं पूरा भारत बंद करा देंगे तब तो उन्हें होश आयेगा”। सुनते ही रमफेरवा की माई चिल्ला उठी “बस करा, बस करा। खिसियानी बिलइया खंबा नोचे के निहाद जिन बतकही करा। ई काहे नाहीं देख्ता की आजादी के बाद से भारत खुलले कब रहा? ऊ तो कहा रमफेरवा के बापू की गांधी बाबा, विनोबा जी और लोहिया बाबू कै पौरा रहा कि कुछु झांकै के मौकवा मिल गया। हम तो जनित है कि भारत कभहों बन्द होय सकते नाहीं काहे से रमफेरवा के बापू आपन भारत टुकड़न में बंटा जाए रहा है और ऊ किस्वा सुनबै कीए हो जादा जोगी मठ उजाड़”। रमफेरवा के माई कि बतकही कुछ-कुछ अपने भेजे में भी बैठ रही थी लेकिन चुपचाप अपने अंधेरे दायरे को देख रहा था और सन्नाटे में दानव की तरह खड़े सूखे बरगद के पेड़ को, जिसके नीचे बैठ कर कभी कोई सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बन गया था। वही आवाज़ मेरे कानों में प्रवेश कर रही थी ‘बुद्धम शरणम् गछामि’ ‘संघम शरणम् गछामि’। पर अब न तो बुद्ध रहे और न संघ ही रहा, संघ समूहों में बटा दिखता है। न समूह एक होंगे, न संघ बनेगा और न पूरा भारत अन्याय के विरुद्ध बन्द होकर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकेगा। मैं, मेरे लख्ते जिगर रमफेरवा की माई और बेबाक बोलने वाले मीर साहब यूंही चोचें लड़ाते रह जायेंगे। आखिर में अपने फटे गले से रोते हुए गाना पड़ेगा “हम तुमसे मोहब्बत कर के सनम रोते भी रहे हँसते भी रहे। खुश होकर सहे उल्फ़्त के सितम रोते भी रहे हँसते भी रहे...”। किसी तरह तकदीर ठोक कर भूखे पेट अंधेरे में करवटें बदलना ही पड़ेगा। सचमुच भारत खुला ही नहीं था तो बन्द क्या होगा? खाक। बन्द करवाने वाले पहले एक जुट होकर इसे ‘बहुजन हिताय’ खोले तो सही। फिरंगी महलों से फ़िरंगियों के भूतों को बोतल में बन्द तो करें पहले।

नोट: (29 अप्रैल 2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)