बुधवार, 24 दिसंबर 2008

कहानी की कथावस्तु

कहानी की कथावस्तु मध्यकालीन हिन्दी कवि घनानन्द और नर्तकी सुजानबाई की प्रेम-कहानी पर आधारित है। वह समय था मुग़लसम्राट मोहम्मद शाह रंगीले का। रंगीन मिजाज-बादशाह के दरबार में घनानन्द मीर-मुंशी जैसे अहम ओहदे को सम्भाल रहे थे जबकि सुजानबाई शाही रक़्क़ासा के ख़िताब से नवाज़ी गई थी। दरबारी कवि यानी बादशाह के मीरमुंशी घनानन्द गाते अच्छा थें। धीरे-धीरे दोनो मुहब्बत के आगोश में सिमटते चले गये। मुहब्बत की राह में रोड़े तो आ ही जाते हैं। दोनों की परवान चढ़ी इस मुहब्बत को देख कर कुछ दरबारी जलने लगे।
एकदिन जब दरबार लगा हुआ था और रंगीनमिजाज़ शंहशाह का मिज़ाज़ गीत-संगीत सुनने के लिये बेक़रार हुआ जारहा था, तो एक खास दरबारी ने बादशाह से मीरमुंशी घनानन्द के गाने की इल्तजा कर डाली। शंहशाह ने घनानन्द को गाने का हुक्म दिया। वह चुपचाप बैठे रहें। एक दरबारी ने तज़बीज़ पेश करते हुये कहा कि हुज़ूर साज़ के बिना आवाज़ में फीकापन होता है। यक़ीन मानिये कि शाही रक़्क़ासा सुजानबाई के आते ही मीरमुंशी की जादूई आवाज़ फिज़ां को खुशगंवार बना देगी। सचमुच वही हुआ। सुजान को दरबार में तलब किया गया। उसे अपने सामने देखते ही घनानन्द ने गाना शुरू कर दिया। शंहशाह बाग़-बाग़ हो उठे। लेकिन बेखुदी में भूल गये कि वह बादशाह की तरफ पीठ और एक रक़्कासा की तरफ रूख़ करके गारहे थे जो कि दरबारी वसूलों के ख़िलाफ था। शंहशाह ने घनानन्द के इस ज़ुर्म के लिये सज़ाएमौत का हुक्म सुना दिया। बाद में दरबारियों की अपील पर उसे दिल्ली छोड़ कर जाने का हुक्म सुना दिया। बाहुक्म शंहशाह के घनानन्द राजधानी दिल्ली से चलते वक्त सुजानबाई को भी साथ चलने को कहा लेकिन सुजान ने साफ इंकार कर दिया क्योंकि उसे शाही रक्कासा के रूतबे पर बेपनाह नाज़ था। घनानन्द शाही पद छिन जाने के बाद महज़ एक मामूली सड़कछाप कवि या गीतकार रह गया था। सुजानबाई की इस बेवफाई पर घनानन्द को बड़ा धक्का लगा। आखिरकार उसने वृन्दावन की राह पकड़ ली। घनानन्द कृष्णभक्ति मे लीन हो गये। पर उनकी सारी रचनायें बृजभाषा में सुजान को सम्बोधित करके होती थीं। यानी अपनी प्रेमिका सुजान के माध्यम से वह कृष्ण को पाना चाहते थे। वृन्दावन की गलियों मे उनके गीत गूँजा करते थे। सुजान के प्रेम में वह पागलों की तरह दर-दर की ख़ाक छाना करते थे।
उसी समय दिल्ली पर नादिरशाह का हमला होगया। उसने खुलकर क़त्लेआम किया। किसी ने उसे बताया कि वृन्दावन में बादशाह के मीरमुंशी के पास अकूत दौलत है। नादिरशाह की फौज उधर बढ़ी। कत्लेआम का खौफनाक खेल चलता रहा। उसके ज़ुल्मी सिपाहियों ने जब घनानन्द से जर्र यानी दौलत की मांग की तो उसने वृन्दावन की तीन मुठ्ठी धूल देते हुये कहा कि मेरे पास इस रज यानी मिट्टी के सिवा कुछ भी नहीं है। चिढ़कर नादिरशाह के सैनिकों ने घनानन्द के दोनो हाथ काट दिये।
उधर नादिरशाह के क़त्लेआम से भयभीत होकर लोग दिल्ली से भागने लगे। ऐसे ही भागनेवालों का एक काफिला मथुरा-वृन्दावन की तरफ से गुज़र रहा था जिसमें कई दरबारियों के साथ सुजान भी थी। अचानक उसकी नज़र तड़पते हुये घनानन्द पर पड़ी। घनानन्द तड़पते हुये गा रहा था अधर लगे हैं आनि के पयान प्रान, चाहत चलत ये संदेसो लै सुजान को । सुजान यह दुर्दशा देखकर घनानन्द की तरफ दौड़ी ही थी कि नादिरशाह के सैनिको ने फिर हमला बोल दिया। लोगो में भगदड़ मच उठी। भीड़ धक्का-धुक्की में गिरते-पड़ते घनानन्द का नाम ले-लेकर चिल्लाती रही। भीड़ के एक झोंके से वह घनानन्द के शरीर पर गिर पड़ी। दोनो को रौंदते हुये लोग भागे चले जारहे थे। फ़िजाँ मे घनानन्द के शब्द गूँज रहे सुजान।