शनिवार, 6 दिसंबर 2008

लाश वही, कफ़न बदला है

युग बदला। समय के साज़ पर नवगीत की नयी तान छिड़ी। खोटे सिक्को की खनक से ध्यान हटा। नये चमकदार सिक्कों पर ध्यान जमा। किसी ने ठीक ही कहा था कि नये सिक्के पुराने सिक्कों को चलन से दूर कर देते हैं। अब यही बात अपने ही लिखित एक नाटक के उस संवाद से सिद्ध हो जाती है जिसे नाटक के एक पात्र जोसेफ द्वारा कहलाया जाता है —"सैकरीफाइस करने वाले हिस्ट्री के पन्नों में खोगये और जो बचे  भी हैं वे गन्दी सी बस्ती के टूटे से घर में जिन्दगी की आखिरी घड़ियाँ गिन रहे हैं।" क़ाबिलों के क़बीलेवाले अक्सर कहा करते हैं कि इतिहास के पन्ने हमेशा अपने आगोश में पुरानी यादों को ज़िन्दा रखते हैं। पर आजकल वे सब सिर्फ किताबी बातें रह गई हैं।

इतिहास  की बात उठती है तो सिकन्दर से लेकर सामन्ती-सरबराहों की बहुत याद आतीहैं। उनके अकूत खजाने की कहानियाँ, ऊँची हवेलियों का तामीरी-शौक और ज़ुल्मोसितम की दिल दहलाने वाली हनक आज भी याद आती हैं। फर्क बस इतना है कि उस ज़माने में गद्दीनशीन होने के लिये बाकायदा तिलक किये जाने की रस्म का चलन था पर आज तिलक नहीं सिर्फ एक अदद काग़ज यानी बैलेटपेपर की जरूरत होती है। भगवान भला करे उनका जिन्होने इतिहास के पन्नों की हिफ़ाजत के लिये दिलकश जिल्द बदल कर पुरानी किताबो को अपनी मेज़ पर सजा रखा है। वही पुराने पन्ने, वही पुरानी तस्वीरें और वही शाही- खिलत में रोबीले नाक-नक्श वाले तख्तनशीन शाह से लेकर शंहशाह तक। कोई माने या न माने अपने को पक्का यकी़न हो गया है कि हक़ीक़त में ज़माना तब्दीलियो के आगोश में खेल रहा है। आदि मानव पथरीली चट्टानों और बियाबान जँगलात  को पार करता हुआ आज के कंकरीटी और इस्पाती जंगलो मे ठहर कर अपना बसेरा बसाने की धुन में पागल हुआ दिख रहा है। इस लम्बे बहुत लम्बे सफर में कुदरत ने उसके नाक-नक्श में भी बहुत से परिवर्तन कर डाले मगर उसके ईगो में कोई फर्क नहीं आया। राजतंत्र से क़दम बढ़ाते हुये उसने प्रजातंत्र की चौखट पर पहुँचकर अपने को बहुत खुशनसीब समझा पर उसके अन्दर बैठा किसी शहंशाह का वजूद नहीं बदल सका। दूसरी तरफ लाचार बेसहारा ईगोरहित मज़बूर बिलबिलाते इन्सानी कीड़े दिखाई देते हैं। जिनका वजूद सिर्फ इन्सानी खाल में दबा-कुचला छुपा होता है। आखिर में मजबूर होकर कहना पड़ता है कि लाश वही है सिर्फ कफन बदला है। यह सही है कि राक्षसी प्रव्रृत्ति वाले राजा और शहंशाह जमींदोज़ हो गये मगर उनकी नापाक रूहें आज भी आदम की अहंकारी औलादों के भीतर किसी कोने में बैठी वही पुरानी हनकभरी शानशौकत की याद दिलाया करती हैं। बस फर्क इतना सा है कि उस वक्त दुधारी शमशीर देखकर प्रजा नाम की चिड़िया अपने घोंसले में दुपक जाया करती थी और आज जनता हिम्मत के साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ने का जतन तो करती है मगर थक-हार कर किसी कोने में मुँह छुपाने की जुगत में बेसुध दिखती है। लेकिन वहाँ भी गोली-बन्दूक से लैस शिकारी अपनी नापाक फितरत से बाज नहीं आते हैं कभी किसी जाति विशेष का मुखौटा लगा कर, कभी किसी खास धर्म-मज़हब की दुहाई देकर और कभी किसी खासमखास प्रान्त की कँटीली झाड़ियो में छुपकर। प्रजा नाम की हरदिलअज़ीज़ भोली-भाली पंख फड़फड़ाती चिड़िया को जनता नाम से जन्नत का लालच देकर सियासत के खूबसूरत पिंजड़े में कै़द कर लिया गया। नतीजा यह है कि न उसे सरसब्ज डालियों पर फुदकने का मौका मिला और न परवाज़ करते हुये जन्नत का लुत्फ उठाने का। मौजूदा शाहो- शंहशाहो का तुर्रा यह कि हम अपनी जान देकर भी तुम्हारी हर मुमकिन हिफाज़त करने से पीछे नहीं हटेंगे। फटेहाल और गूंगी जनता के बीच जब कोई चिल्लाता है कसमें,वादे, प्यार-वफा सब झूठे हैं, झूठों का क्या तो लोग उसे पागल दीवाना मानकर टाल जाते हैं या किसी पागलखाने के सीखचों के भीतर ढकेल देते हैं।

प्रजा का बदबूदार चेहरा बदल कर जनता को बेपनाह हसीन मेकअप चढ़ाया तो गया और उसे सियासती शामियाने मे सामने पड़े सोफों पर बैठाकर फोटो पर फोटो खीचते हुये दुनिया को बताने की पुरजोर कोशिश की गयी है कि यह जनयुग है और आज सबकुछ जनता के लिये, जनता का, जनता के जरिये चल रहा है पर जब अधर्मी कारबाइनों से  आतंकी नापाक गोलियाँ बरसती हैं तो सीधे जनता के सीने को छेदती है। क्योकि उन गोलियां उगलती मरदूद कारबाइनों के सामने होती है सीधी-सादी निहत्थी जनता। रही आधुनिक शाहो-शंहशाहो की बात तो रूप उनका चाहे जो भी बदल गया हो पर आदतन शाही लबादा और मखमली जूतियाँ पहनने में देर लगना स्वाभाविक है।

विश्वामित्र से लेकर बुश तक ने आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने के लिये न जाने क्या-क्या दाँव-पेंच चलाये और राजाओ-महाराजाओ ने प्रजा की रक्षा के लिये कभी-कभी तुष्टिकरण-नीति के अन्तर्गत सन्धि का सरगम भी अलापा मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात जैसा हासिल हुआ। फर्क इतना जरूर हुआ कि विश्वामित्र के समय में डिस्टर्ब करने लिये मारीच जैसे आतंकवादी समाज के भले लोगों के बीच राक्षस कहे जाते थे और आज के सभ्यता की बुलन्दी को धराशायी करने का नापाक खेल खेलने वाले उग्रवादी या आतंकवादी। मतलब यह कि लाश वही है सिर्फ कफ़न बदल गया है। महाबली रावण से लेकर नादिरशाह,  अब्दाली, हलाकू और चंगेज़ी जलाल ने निर्दोषो का कत्लेआम भी किया बिल्कुल डायरेक्ट नरेशन में लेकिन आज के आतंकवादी तो इनडायरेक्ट नरेशन में कब किसके हवनकुंड में अंडों के साथ कूद पड़ेंगे कुछ पता नहीं और हमारी रक्षा के कसमें-वादे खाने वाले इसी उधेड़बुन में पड़े उँघते दिखायी देते है कि लाठी भी न टूटे, साँप भी मर जाये। मेरा अपना ख्याल है कि राक्षसी-प्रवृति तब भी थी, आज भी है और कल भी रह सकती है। रूप भले अलग-अलग हो। न जाने कब देवासुर-संग्राम के लिये रणभेरी बजे। अभी तो यही सोच बनती है कि वक्त के अनुसार सबके सिर्फ आज कफ़न बदल गये हैं, लाश वही पुरानी सड़ी-गली है। लाश राजा-महाराजाओ की भी हो सकती है और आज के महाराक्षसों की भी।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

पीता नहीं हूं, पिलायी गयी है

हालांकि किलिष्ट या जबड़ा दुखन साहित्य के ठेकेदार मेरी लिखावट को बहुत सस्ती और सतही समझते होंगे मगर मैं भी अपनी आदत से लाचार हूँ। करूं तो क्या करूं। खैर छोड़िये। किसका-किसका मुंह पकड़ता फिरूं। बात असल में यह है कि अभी कुछ ही दिन पहले बजुबानी अपने अखबारनवीसों के आबकारी-आयुक्तों की एक महफिल सजी। पता नहीं क्यों मियां आबकारी विभाग का नाम कान में पड़ते ही जुबां पर बरबस वह गाना आ जाता है ‘मुहब्बत में ऐसे क़दम लड़खड़ाए ज़माना यह समझा कि हम पी के आये।’ क़दम के साथ कलम का बहकना बिल्कुल बटनेचुरल है भाई। ख्वाबों-ख्यालों में बस साक़ी, शराब, मयखाना और पैमाना के तसव्वुर करते रहने को दिल चाहता है। जी हुजूर, तो मैं उस खास ख़बर की तरफ अपने चाहने वालों को मुख़ातिब करना चाहता हूँ जिसमें आबकारी-आंगन में टंगड़ी पसारे बैठे आला हाकिम ने अपने मातहतो के पेंच कसते हुये कहा था कि जाम से जाम टकराने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिये। यानी शराब की खपत बढ़ायी जानी चाहिये। अगर खपत नहीं बढ़ी तो समझ लो किसी को बख्शा नहीं जायेगा। किसी भी तरह राजस्व बढ़ाने की बागडोर सम्भालना पड़ेगा। खबर पढ़कर दिल झूम उठा। उसके आगे की खबर पढ़कर तो याद आ गया कि ‘न पीना हराम है न पिलाना हराम, पीने के बाद होश में आना हराम है।’ सुनकर बेपनाह खुशी हुयी कि अब आज़ादी परवान चढ़ रही है। अभी तक तो शादी-ब्याह और बर्थ-डे पार्टियों में मेरी उम्र के नौजवान कुछ दकियानूसी बुजुर्गों से बचबचा कर पिया करते थे मगर अब उन्हें पूरी छूट के साथ गटागट गले में ढकेलने पर कोई पाबन्दी नही होगी, चाहे बीयर हो या शराब। क्योंकि सवाल राजस्व बढ़ाने का है। नशाबन्दी और मद्यनिषेध का हो मुँह काला। आबकारी वालों ने आखिर देर-सबेर उन पंक्तियों पर ध्यान तो देने की ठानी कि जितनी दिल की गहराई हो उतनी मादक हो मधुशाला। सुना है कि इन दिनों आबकारी के आला हाकिमों को उठते-बैठते बस उमरखैयाम और मियां ग़ालिब के सपने आते हैं। वे जानते हैं कि इससे दो बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि उन मरहूम ग्रेट पियक्कड़ ब्रांड अम्बेस्डर लोगों के नाम से मयखानों की तादाद में खूब इज़ाफा होगा, लोग खूब छककर पियेंगे। दूसरे, राज्य का राजस्व बढ़ेगा। मुझे तो कभी-कभी ऐसा लगता है खपत बढ़ाने की गरज से आबकारी वाले सरेराह बस-कन्डक्टरों की तरह चिल्लाते नज़र आयेगे बच्चे ‘दो बूँद जिन्दगी की’ पियें और बूढ़े-जवान जिन्दगी को रंगीन बनाने के लिये शराब को ‘सोमरस’ समझ कर दिल खोलकर पीने की आदत डालें। याद रखें इससे प्रदेश का राजस्व बढ़ेगा। राजस्व बढ़ेगा तो अपने उत्तम प्रदेश मे उत्तम-उत्तम पार्क बनेंगे, भवन बनेंगे और जीते जी बुतों में अपना वजूद देखकर खुशी के इज़हार करने की तमन्ना पूरी होगी। इन सब के लिये आबकारी महकमे से बढ़िया और कोई हो ही नहीं सकता है। अपनी तो राय है कि बिजलीवाले सीधे-सादे शहरियों के घरों के मीटर जबरन बदलकर और टंकियों में पानी के बदले दारू भरकर खूब राजस्व वसूला जा सकता है। आबकारी हाकिमों को डांट पीना-पिलाना कोई बेजा नहीं है। क्या बतायें कि अपने आबकारी आसमान पर परवाज़ करते हाकिमों को ज़माना बदल जाने के बाद आज भी कच्ची दीवारों पर पक्की स्याही से लिखी वही इबारत दिखायी दे रही हैं कि बाप दारू पियेगा, बच्चे भूखों मरेंगे या शराब हराम है वगैरह-वगैरह। अरे भय्या ज़माना पीने-पिलाने का है। अब तो रंगीन पानी से मिजाज़ रंगीन करने का वक्त आ गया है। पानी पिलाने का काम तो अब सरकारेआलिया का है। क्या खूब। ठीक भी है कि ‘बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद प्यार बढ़ाती मधुशाला।’ मरहूम बच्चनजी ने मधुशाला की चौखट पर किसी और नज़रिये से दस्तक दी होगी मगर अपने आबकारी वाले लाडले मधुशाला की हाला राज्य के राजस्व बढ़ाने के लिये उड़ेलने पर लगे हैं।
पहले लोग भंग की तरंग मे ‘जय-जय शिवशंकर कांटा गड़े न कंकड़’ गाते हुये झूमते दिखायी देते थे और दम मारों दम चिल्लाते हुये अलखनिरंजन की अलख जगाया करते थे। गजब की मस्ती देखने को मिलती थी पर अब क्या खूब बहकती बातों के साथ बहकते क़दम की दिलफरेब सीन देखने को मिला करेगी। वैसे भी देशी-विदेशी पीने के बाद अंगरेज़ी अपने आप दुरूस्त हो जाती है। सींकिया पहलवान के बदन पर भी मांस के लोथड़े यूं चढ़ जाते हैं कि बड़े-बड़े जिम जाने वाले बौने नज़र आते हैं। यह सब कमाल होगा शराब की खपत बढ़ाने और राजस्व में इज़ाफा होने पर जैसा कि बकौल आबकारी अफ्सरान के सुनने में आ रहा है। चलिये एक बात जेहन में आती है कि आल्हा-ऊदल के ज़माने में बिन पिये ही शादी-ब्याह के मौको पर शमशीरें लहू से अपनी प्यास बुझाया करती थीं मगर अब इस तालीमयाफ्ता अत्याधुनिक युग में देशी-विदेशी छक कर पीने पर शमशीरों की जगह गोली-बन्दूकें अपनी प्यास बुझाती दिखेंगी। ऐसे नाजुक मौको पर बेचारी अपनी पुलिसिया बिरादरी तमाशबीन बनी देखती रहेगी, क्योंकि मामला आड़े हाथों आ जायेगा राजस्व का। मेरे जैसे घनचक्कर तौबा तोड़ने वाले झूमते हुए शामियाने के बाहर गाते दिखेंगे ‘मुझे दुनियावालों शराबी न समझो, पीता नहीं हूं पिलाई गयी है।’ मद्यनिषेध और नशाबन्दी का पहाड़ा पढ़ने वाले कंठी-माला के साथ हड़ताल की करताल बजाते हुये गाते रहें कि बदली-बदली मेरी सरकार नज़र आती है मगर राजस्व बढ़ाने के शोर-शराबे में सब गुम होकर रह जायेगा। शाबाश, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ राजस्व का रस्सा खींचने में। अब भूल जाना ही बेहतर होगा कि इस देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे-मोती। भय्या अब दारू की दरिया मे गुसुल करने की आदत डालना होगा।