मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

पीता नहीं हूं, पिलायी गयी है

हालांकि किलिष्ट या जबड़ा दुखन साहित्य के ठेकेदार मेरी लिखावट को बहुत सस्ती और सतही समझते होंगे मगर मैं भी अपनी आदत से लाचार हूँ। करूं तो क्या करूं। खैर छोड़िये। किसका-किसका मुंह पकड़ता फिरूं। बात असल में यह है कि अभी कुछ ही दिन पहले बजुबानी अपने अखबारनवीसों के आबकारी-आयुक्तों की एक महफिल सजी। पता नहीं क्यों मियां आबकारी विभाग का नाम कान में पड़ते ही जुबां पर बरबस वह गाना आ जाता है ‘मुहब्बत में ऐसे क़दम लड़खड़ाए ज़माना यह समझा कि हम पी के आये।’ क़दम के साथ कलम का बहकना बिल्कुल बटनेचुरल है भाई। ख्वाबों-ख्यालों में बस साक़ी, शराब, मयखाना और पैमाना के तसव्वुर करते रहने को दिल चाहता है। जी हुजूर, तो मैं उस खास ख़बर की तरफ अपने चाहने वालों को मुख़ातिब करना चाहता हूँ जिसमें आबकारी-आंगन में टंगड़ी पसारे बैठे आला हाकिम ने अपने मातहतो के पेंच कसते हुये कहा था कि जाम से जाम टकराने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिये। यानी शराब की खपत बढ़ायी जानी चाहिये। अगर खपत नहीं बढ़ी तो समझ लो किसी को बख्शा नहीं जायेगा। किसी भी तरह राजस्व बढ़ाने की बागडोर सम्भालना पड़ेगा। खबर पढ़कर दिल झूम उठा। उसके आगे की खबर पढ़कर तो याद आ गया कि ‘न पीना हराम है न पिलाना हराम, पीने के बाद होश में आना हराम है।’ सुनकर बेपनाह खुशी हुयी कि अब आज़ादी परवान चढ़ रही है। अभी तक तो शादी-ब्याह और बर्थ-डे पार्टियों में मेरी उम्र के नौजवान कुछ दकियानूसी बुजुर्गों से बचबचा कर पिया करते थे मगर अब उन्हें पूरी छूट के साथ गटागट गले में ढकेलने पर कोई पाबन्दी नही होगी, चाहे बीयर हो या शराब। क्योंकि सवाल राजस्व बढ़ाने का है। नशाबन्दी और मद्यनिषेध का हो मुँह काला। आबकारी वालों ने आखिर देर-सबेर उन पंक्तियों पर ध्यान तो देने की ठानी कि जितनी दिल की गहराई हो उतनी मादक हो मधुशाला। सुना है कि इन दिनों आबकारी के आला हाकिमों को उठते-बैठते बस उमरखैयाम और मियां ग़ालिब के सपने आते हैं। वे जानते हैं कि इससे दो बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि उन मरहूम ग्रेट पियक्कड़ ब्रांड अम्बेस्डर लोगों के नाम से मयखानों की तादाद में खूब इज़ाफा होगा, लोग खूब छककर पियेंगे। दूसरे, राज्य का राजस्व बढ़ेगा। मुझे तो कभी-कभी ऐसा लगता है खपत बढ़ाने की गरज से आबकारी वाले सरेराह बस-कन्डक्टरों की तरह चिल्लाते नज़र आयेगे बच्चे ‘दो बूँद जिन्दगी की’ पियें और बूढ़े-जवान जिन्दगी को रंगीन बनाने के लिये शराब को ‘सोमरस’ समझ कर दिल खोलकर पीने की आदत डालें। याद रखें इससे प्रदेश का राजस्व बढ़ेगा। राजस्व बढ़ेगा तो अपने उत्तम प्रदेश मे उत्तम-उत्तम पार्क बनेंगे, भवन बनेंगे और जीते जी बुतों में अपना वजूद देखकर खुशी के इज़हार करने की तमन्ना पूरी होगी। इन सब के लिये आबकारी महकमे से बढ़िया और कोई हो ही नहीं सकता है। अपनी तो राय है कि बिजलीवाले सीधे-सादे शहरियों के घरों के मीटर जबरन बदलकर और टंकियों में पानी के बदले दारू भरकर खूब राजस्व वसूला जा सकता है। आबकारी हाकिमों को डांट पीना-पिलाना कोई बेजा नहीं है। क्या बतायें कि अपने आबकारी आसमान पर परवाज़ करते हाकिमों को ज़माना बदल जाने के बाद आज भी कच्ची दीवारों पर पक्की स्याही से लिखी वही इबारत दिखायी दे रही हैं कि बाप दारू पियेगा, बच्चे भूखों मरेंगे या शराब हराम है वगैरह-वगैरह। अरे भय्या ज़माना पीने-पिलाने का है। अब तो रंगीन पानी से मिजाज़ रंगीन करने का वक्त आ गया है। पानी पिलाने का काम तो अब सरकारेआलिया का है। क्या खूब। ठीक भी है कि ‘बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद प्यार बढ़ाती मधुशाला।’ मरहूम बच्चनजी ने मधुशाला की चौखट पर किसी और नज़रिये से दस्तक दी होगी मगर अपने आबकारी वाले लाडले मधुशाला की हाला राज्य के राजस्व बढ़ाने के लिये उड़ेलने पर लगे हैं।
पहले लोग भंग की तरंग मे ‘जय-जय शिवशंकर कांटा गड़े न कंकड़’ गाते हुये झूमते दिखायी देते थे और दम मारों दम चिल्लाते हुये अलखनिरंजन की अलख जगाया करते थे। गजब की मस्ती देखने को मिलती थी पर अब क्या खूब बहकती बातों के साथ बहकते क़दम की दिलफरेब सीन देखने को मिला करेगी। वैसे भी देशी-विदेशी पीने के बाद अंगरेज़ी अपने आप दुरूस्त हो जाती है। सींकिया पहलवान के बदन पर भी मांस के लोथड़े यूं चढ़ जाते हैं कि बड़े-बड़े जिम जाने वाले बौने नज़र आते हैं। यह सब कमाल होगा शराब की खपत बढ़ाने और राजस्व में इज़ाफा होने पर जैसा कि बकौल आबकारी अफ्सरान के सुनने में आ रहा है। चलिये एक बात जेहन में आती है कि आल्हा-ऊदल के ज़माने में बिन पिये ही शादी-ब्याह के मौको पर शमशीरें लहू से अपनी प्यास बुझाया करती थीं मगर अब इस तालीमयाफ्ता अत्याधुनिक युग में देशी-विदेशी छक कर पीने पर शमशीरों की जगह गोली-बन्दूकें अपनी प्यास बुझाती दिखेंगी। ऐसे नाजुक मौको पर बेचारी अपनी पुलिसिया बिरादरी तमाशबीन बनी देखती रहेगी, क्योंकि मामला आड़े हाथों आ जायेगा राजस्व का। मेरे जैसे घनचक्कर तौबा तोड़ने वाले झूमते हुए शामियाने के बाहर गाते दिखेंगे ‘मुझे दुनियावालों शराबी न समझो, पीता नहीं हूं पिलाई गयी है।’ मद्यनिषेध और नशाबन्दी का पहाड़ा पढ़ने वाले कंठी-माला के साथ हड़ताल की करताल बजाते हुये गाते रहें कि बदली-बदली मेरी सरकार नज़र आती है मगर राजस्व बढ़ाने के शोर-शराबे में सब गुम होकर रह जायेगा। शाबाश, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ राजस्व का रस्सा खींचने में। अब भूल जाना ही बेहतर होगा कि इस देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे-मोती। भय्या अब दारू की दरिया मे गुसुल करने की आदत डालना होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें