उच्च विचारों की गगनचुम्बी इमारतों से झांकते लोगों ने बताया कि ‘सबै भूमि गोपाल की।’ जी चाहा उचक कर उनके खुशबूदार मुंह को चूम लें। दूसरी तरफ लोगों ने बताया कि-“जनाज़ा चाहे दुश्मन का ही क्यों न हो कम से कम चालीस कदम पहुंचा देना चाहिए”। बातें सुनने में बहुत बढ़िया लगती है। बात भी एकदम चोखी है क्योंकि जिस फिरंगी हुकूमत ने गुलाम हिंदुस्तानियों पर तरह-तरह के कहर ढाये, आज हम उन्हें गले लगाते हुए सफाई देते हैं कि कोई भी पूरी कौम खराब नहीं होती है। यही वजह है कि हमारी दरियादिल सरकार ‘डील’ पर दिल दे बैठी है।
सवाल उठता है कि जब हम जिन्दा लोगों के सामने घुटने टेक कर दोस्ती की भीख मांगने के लिए किसी की आलोचना की परवाह नहीं करते है तो फिर जो इस रहती दुनिया से कूच कर चुके है और परम्परानुसार हम उन्हें ढेर सारे अकी़दत के फूल चढ़ाते हैं तो फिर उनकी भीड़ के लिए बने कब्रिस्तान के मेनटेनेन्स पर उदासीनता क्यों? देखते-देखते मुस्लिमों के कब्रिस्तान की चहारदीवारी बना दी गयी और हर जुमे़रात को चिरागां किया जाता है। गोमती किनारे मुर्दों की मांग पर बैकुण्ठ धाम बना दिया गया है, जैसे सेकेण्डों-मिनटों में अमौसी हवाई अड्डे का नाम क्या से क्या हो गया।
अब ‘डील’ की झील में गुड-फील करने वालों की नजर फिरंगियों के उस कब्रिस्तान की तरफ क्यों नहीं जा रही है जो रेलवे लाइन के किनारे सदर के करीब है। हमने तो पुलिसवालों को किसी लाश की तफ्तीश करते वक्त कैप उतारते देखा है जो शायद आदरसूचक होता है। अब तो वह ‘फिरंगियों’ के कब्रिस्तान के अलावा हिन्दुस्तानी-ईसाइयों के मुर्दों को दफनाने की भी जगह है। कहते हैं कि ‘अल्लाह के प्यारे लोग’ चाहे किसी धर्म जाति और मज़हब के हों, उन्हें रिस्पेक्ट पे करना पवित्र कर्त्तव्य होता है। आज इस कब्रिस्तान (ग्रेवयार्ड) की हालत यह है कि बड़ी-बड़ी घासों और झाड़ियों में कब्रों का वजूद खत्म होता जा रहा है। आसपास के बाशिन्दों के लिए गन्दगी करने की जगह बन गयी है और जुआरियों का अड्डा। उन्हें जरा भी डर नहीं लगता है कि कहीं कोई भूत अंकल नाराज हो गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
मैं हिन्दू या मुसलमान हूं। मेरे तो कब्रिस्तान या श्मशान स्थल चकाचक हैं। मुझे क्या लेना देना? जो मर गया सो मर गया। मैं इन बेचारे लावारिस मुर्दों को देखकर अपनी संस्कृति पर जरूर रो रहा हूं जिसमें मृत्यु के बाद भी तमाम संस्कारों को सम्पन्न कराने का चलन रहा है। रोना प्रशासन के उन अलम्बरदारों पर आ रहा है जिन्हें मालूम है कि एक दिन उन्हें भी इसी धरती में सोना है। ठीक ही किसी ने कहा है कि ‘सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है।’ रोना उन ईसाई भाइयों की खामोशी पर भी आ रहा है जो अपने ही भाई-बन्धुओं की इस दुर्दशा पर उफ नहीं कर रहे हैं। एक दिन इसी कब्रिस्तान से लम्बा लबादा पहने एक भूत अंकल मेरे ख्वाब में आकर कहने लगा कि तुम लोग जो कर रहे हो ठीक ही कर रहे हो।
एक दिन ऐसा आयेगा जब हमारे कब्रिस्तान का वज़ूद मिट जाएगा और उस जगह खड़ी मिलेगी किसी म़ाफिया की आलीशान इमारत। जानते नहीं बुश साहब की तीखी नजर अब इस मुल्क पर है। खुदा न खास्ता कभी इधर आने का उनका प्रोग्राम बन गया तो इस ‘ग्रेवयार्ड’ की हालत देखकर सोचो सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा की क्या छवि बनेगी? अभी जो डील की झील में हम गोते लगाते हुए फूले नहीं समा रहे हैं, उसका क्या होगा? दुनिया भर की मीडिया कीचड़ उछालेगी। बात में दम देखकर वह बात याद आयी जब अभी हाल में अंग्रेजों का एक दल भारत आया था लेकिन उस दल को ऐसी जगहों पर जाने नहीं दिया गया। रोना उन संस्कृति के ठेकेदारों पर जाता है जो कहते हैं ‘सच्चा धर्म अविरोधी होता है।’ जिन्दों से हमें नफरत हो सकती है लेकिन जो मर गये उनके लिए तो हमारे दिल में अकी़दत होना चाहिए। वे क्यों नहीं सोचते है कि विदेशों में हमारे मंदिरों और मस्ज़िदों को इज्जत दी जाती है लेकिन अपने प्रदेश की राजधानी में कायम इस ऐतिहासिक कब्रिस्तान की दशा पर किसी का ख्याल नहीं। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है। अपने ही देश में मुठभेड़ में मारे गये दस्युओं की लाशों पर दो-गज़ कफन देकर इज्जत दी जाती है क्योंकि मालूम है कि उसका शरीर दस्यू था। आत्मा तो परमात्मा का रूप है। फिर भी कब्र या समाधि के प्रति आदर तो होना चाहिए। जफ़र साहब की वह बात ‘दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कूएयार में’ को नहीं दोहराना चाहिए। चलते-चलाते यह बात कहना चाहता हूं कि कम से कम इसलिए भी अंग्रेजों के इस पुराने कब्रिस्तान का जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए। जिससे आने वाली नस्लें कुछ समझ सकें, कुछ जान सकें। ईसाई भी तो हमारे अल्पसंख्यक अंग हैं। उनके साथ न्याय जरूर होना चाहिए। मुर्दों की दुआ बड़ी कारगर होती है भाई।
एक दिन ऐसा आयेगा जब हमारे कब्रिस्तान का वज़ूद मिट जाएगा और उस जगह खड़ी मिलेगी किसी म़ाफिया की आलीशान इमारत। जानते नहीं बुश साहब की तीखी नजर अब इस मुल्क पर है। खुदा न खास्ता कभी इधर आने का उनका प्रोग्राम बन गया तो इस ‘ग्रेवयार्ड’ की हालत देखकर सोचो सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा की क्या छवि बनेगी? अभी जो डील की झील में हम गोते लगाते हुए फूले नहीं समा रहे हैं, उसका क्या होगा? दुनिया भर की मीडिया कीचड़ उछालेगी। बात में दम देखकर वह बात याद आयी जब अभी हाल में अंग्रेजों का एक दल भारत आया था लेकिन उस दल को ऐसी जगहों पर जाने नहीं दिया गया। रोना उन संस्कृति के ठेकेदारों पर जाता है जो कहते हैं ‘सच्चा धर्म अविरोधी होता है।’ जिन्दों से हमें नफरत हो सकती है लेकिन जो मर गये उनके लिए तो हमारे दिल में अकी़दत होना चाहिए। वे क्यों नहीं सोचते है कि विदेशों में हमारे मंदिरों और मस्ज़िदों को इज्जत दी जाती है लेकिन अपने प्रदेश की राजधानी में कायम इस ऐतिहासिक कब्रिस्तान की दशा पर किसी का ख्याल नहीं। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है। अपने ही देश में मुठभेड़ में मारे गये दस्युओं की लाशों पर दो-गज़ कफन देकर इज्जत दी जाती है क्योंकि मालूम है कि उसका शरीर दस्यू था। आत्मा तो परमात्मा का रूप है। फिर भी कब्र या समाधि के प्रति आदर तो होना चाहिए। जफ़र साहब की वह बात ‘दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कूएयार में’ को नहीं दोहराना चाहिए। चलते-चलाते यह बात कहना चाहता हूं कि कम से कम इसलिए भी अंग्रेजों के इस पुराने कब्रिस्तान का जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए। जिससे आने वाली नस्लें कुछ समझ सकें, कुछ जान सकें। ईसाई भी तो हमारे अल्पसंख्यक अंग हैं। उनके साथ न्याय जरूर होना चाहिए। मुर्दों की दुआ बड़ी कारगर होती है भाई।
(नोट: (07/08/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)