गुरुवार, 7 अगस्त 2008

कोई सुने इन मुर्दों की दास्‍तान

उच्‍च विचारों की गगनचुम्‍बी इमारतों से झांकते लोगों ने बताया कि सबै भूमि गोपाल की।जी चाहा उचक कर उनके खुशबूदार मुंह को चूम लें। दूसरी तरफ लोगों ने बताया कि-जनाज़ा चाहे दुश्‍मन का ही क्‍यों न हो कम से कम चालीस कदम पहुंचा देना चाहिए। बातें सुनने में बहुत बढ़िया लगती है। बात भी एकदम चोखी है क्‍योंकि जिस फिरंगी हुकूमत ने गुलाम हिंदुस्तानियों पर तरह-तरह के कहर ढाये, आज हम उन्‍हें गले लगाते हुए सफाई देते हैं कि कोई भी पूरी कौम खराब नहीं होती है। यही वजह है कि हमारी दरियादिल सरकार डीलपर दिल दे बैठी है।
सवाल उठता है कि जब हम जिन्‍दा लोगों के सामने घुटने टेक कर दोस्‍ती की भीख मांगने के लिए किसी की आलोचना की परवाह नहीं करते है तो फिर जो इस रहती दुनिया से कूच कर चुके है और परम्‍परानुसार हम उन्‍हें ढेर सारे अकी़दत के फूल चढ़ाते हैं तो फिर उनकी भीड़ के लिए बने कब्रिस्‍तान के मेनटेनेन्‍स पर उदासीनता क्‍यों? देखते-देखते मुस्लिमों के कब्रिस्‍तान की चहारदीवारी बना दी गयी और हर जुमे़रात को चिरागां किया जाता है। गोमती किनारे मुर्दों की मांग पर बैकुण्‍ठ धाम बना दिया गया है, जैसे सेकेण्‍डों-मिनटों में अमौसी हवाई अड्डे का नाम क्‍या से क्‍या हो गया।
अब डीलकी झील में गुड-फील करने वालों की नजर फिरंगियों के उस कब्रिस्‍तान की तरफ क्‍यों नहीं जा रही है जो रेलवे लाइन के किनारे सदर के करीब है। हमने तो पुलिसवालों को किसी लाश की तफ्तीश करते वक्‍त कैप उतारते देखा है जो शायद आदरसूचक होता है। अब तो वह फिरंगियोंके कब्रिस्‍तान के अलावा हिन्‍दुस्‍तानी-ईसाइयों के मुर्दों को दफनाने की भी जगह है। कहते हैं कि अल्‍लाह के प्‍यारे लोगचाहे किसी धर्म जाति और मज़हब के हों, उन्‍हें रिस्पेक्ट पे करना पवित्र कर्त्‍तव्‍य होता है। आज इस कब्रिस्तान (ग्रेवयार्ड) की हालत यह है कि बड़ी-बड़ी घासों और झाड़ियों में कब्रों का वजूद खत्म होता जा रहा है। आसपास के बाशिन्‍दों के लिए गन्‍दगी करने की जगह बन गयी है और जुआरियों का अड्डा। उन्‍हें जरा भी डर नहीं लगता है कि कहीं कोई भूत अंकल नाराज हो गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
मैं हिन्‍दू या मुसलमान हूं। मेरे तो कब्रिस्‍तान या श्‍मशान स्‍थल चकाचक हैं। मुझे क्‍या लेना देना? जो मर गया सो मर गया। मैं इन बेचारे लावारिस मुर्दों को देखकर अपनी संस्‍कृति पर जरूर रो रहा हूं जिसमें मृत्‍यु के बाद भी तमाम संस्‍कारों को सम्‍पन्‍न कराने का चलन रहा है। रोना प्रशासन के उन अलम्‍बरदारों पर आ रहा है जिन्‍हें मालूम है कि एक दिन उन्‍हें भी इसी धरती में सोना है। ठीक ही किसी ने कहा है कि सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है। रोना उन ईसाई भाइयों की खामोशी पर भी आ रहा है जो अपने ही भाई-बन्‍धुओं की इस दुर्दशा पर उफ नहीं कर रहे हैं। एक दिन इसी कब्रिस्‍तान से लम्‍बा लबादा पहने एक भूत अंकल मेरे ख्‍वाब में आकर कहने लगा कि तुम लोग जो कर रहे हो ठीक ही कर रहे हो।
एक दिन ऐसा आयेगा जब हमारे कब्रिस्‍तान का वज़ूद मिट जाएगा और उस जगह खड़ी मिलेगी किसी म़ाफिया की आलीशान इमारत। जानते नहीं बुश साहब की तीखी नजर अब इस मुल्‍क पर है। खुदा न खास्ता कभी इधर आने का उनका प्रोग्राम बन गया तो इस ग्रेवयार्डकी हालत देखकर सोचो सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा की क्‍या छवि बनेगी? अभी जो डील की झील में हम गोते लगाते हुए फूले नहीं समा रहे हैं, उसका क्‍या होगा? दुनिया भर की मीडिया कीचड़ उछालेगी। बात में दम देखकर वह बात याद आयी जब अभी हाल में अंग्रेजों का एक दल भारत आया था लेकिन उस दल को ऐसी जगहों पर जाने नहीं दिया गया। रोना उन संस्‍कृति के ठेकेदारों पर जाता है जो कहते हैं सच्‍चा धर्म अविरोधी होता है।जिन्‍दों से हमें नफरत हो सकती है लेकिन जो मर गये उनके लिए तो हमारे दिल में अकी़दत होना चाहिए। वे क्‍यों नहीं सोचते है कि विदेशों में हमारे मंदिरों और मस्ज़िदों को इज्‍जत दी जाती है लेकिन अपने प्रदेश की राजधानी में कायम इस ऐतिहासिक कब्रिस्‍तान की दशा पर किसी का ख्‍याल नहीं। इससे ज्‍यादा शर्म की बात क्‍या हो सकती है। अपने ही देश में मुठभेड़ में मारे गये दस्‍युओं की लाशों पर दो-गज़ कफन देकर इज्‍जत दी जाती है क्‍योंकि मालूम है कि उसका शरीर दस्‍यू था। आत्‍मा तो परमात्‍मा का रूप है। फिर भी कब्र या समाधि के प्रति आदर तो होना चाहिए। जफ़र साहब की वह बात दो गज ज़मीं भी न मिल सकी कूएयार मेंको नहीं दोहराना चाहिए। चलते-चलाते यह बात कहना चाहता हूं कि कम से कम इसलिए भी अंग्रेजों के इस पुराने कब्रिस्‍तान का जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए। जिससे आने वाली नस्‍लें कुछ समझ सकें, कुछ जान सकें। ईसाई भी तो हमारे अल्‍पसंख्‍यक अंग हैं। उनके साथ न्‍याय जरूर होना चाहिए। मुर्दों की दुआ बड़ी कारगर होती है भाई।

(नोट: (07/08/2008 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चा में प्रकाशित)

बुधवार, 6 अगस्त 2008

कीचड़ में खोया गुलबन्द...

राजा तो मैं कभी रहा नहीं। न तो किसी ज्योतिषी ने कभी राजगद्दी पर बैठने की बात बताई है। वैसे उम्मीद पर जिन्दा जरूर हूं कि इत्तिफाक से कोई मिल गया तो शायद राजभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। उम्मीद इसलिए पुख्ता होती दिखती है कि कल तक जो बेचते थे दवा-ए-दिल वह दुकान अपनी बढ़ा चले और गद्दीनशीन बन कर गुलछर्रे उड़ाने लगे।

बहरहाल सबकी किस्मत अलग-अलग लिखी जाती है। यह लिखने वाले के मूड पर निर्भर करता है। मैं राजा बनूँ या न बनूँ यह अलग बात है पर यह जरूर है कि मुझे अपनी राजधानी से बेपनाह मोहब्बत है। राजधानी से भी ज्यादा मोहब्बत उसके गले में पड़े गुलबन्दनुमा गोमती से है। मोहब्बत के मामले में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सौ साल पहले मुझे उससे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। एक बार एक मोटे-मुस्टण्डे दरोगा जी ने किसी केस सिलसिले में मुझसे सबूत माँगा तो मैंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया, सर, मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती। हुजूर दरोगा साहब गुस्ताखी माफ की जाए। आज कल तो अच्छे-अच्छे सबूत झुठला दिए जाते हैं। साहेब बस समझ लीजिए कि मुझे मोहब्बत है, तो है। सबूत तो अपने मरहूम मियाँ मंजनू, महिवाल, रांझा और जूलियट भी नहीं दे पाए तो यह नाचीज़ नामुराद किस खेत की मूली है? जनाब़, जब मियाँ मँजनू को अपनी लैला की गली के कुत्ते भी प्यारे थे तो मुझे अपनी महबूब राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द से प्यार क्यों नहीं हो सकता हैं?

मुझे अच्छी तरह पता है कि गुलबन्द का नाम लेने पर मेरे सामने वाली खिड़की से झाँकता हुआ चाँद का कोई टुकड़ा मेरी बैकवर्डी पर हँसते हुए कहेगा कि आजकल नेकलेस का फैशन है। मैं समझ गया कि राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द को इसीलिए नेगलेक्ट करते हुए इन कंकरीट के जंगलों में कही छुपाने की ट्रिक खेली जा रही। वे दिन भी क्या दिन थे जब छत्तरमंजिल के सुनहरे छत्तर से टकराती हुए सूरज की सुनहरी किरणें गुलबन्द पर पड़ती थी तो कसम से थोड़ी देर के लिए आँखें चौंधियाँ जाती थीं। ऐसा प्यार उमड़ पड़ता था कि पूछिए मत। लेकिन अब वह बात कहाँ? कंकरीटी जंगल के ऊँचे और भीमकाय पेड़ों में मेरी राजधानी का गोमतीनुमा गुलबन्द न जाने कहाँ गुम हो गया? यह बेज़ान नाचीज ढूंढता फिर रहा है पर उसे पूरी तरह मालूम है कि वह कभी नहीं ढूंढ सकता है। जब बरेली के बाजार में गिरा झुमका नहीं मिल सका तो फिर इस घने जंगल में उसको ढूंढ पाना कितना मुश्किल है? सिर्फ मैं ही नहीं न जाने मेरे जैसे कितने फिदा हुसैन गुहार लगाते रहे मगर अपनी राजधानी के गोमती नुमा गुलबन्द को मटमैले और कीचड़ भरे पानी से निकाल कर उसी पुराने अन्दाज में पहनाने की किसी ने मदद नहीं की? आखिर क्यों? उल्टे उसके लिए ऊँची हवेलियों की आकाश से बातें करती खिड़कियों से जिराफ़ जैसी गरदन निकालें लोग फिकरे कसते हुए गा रहे हैं गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई। भला बताइए तो कुदरत ने कितने अरमानों के साथ अपनी महबूब राजधानी के गले में एक अदद खूबसूरत सा गुलबन्द पहना कर रूख्सत किया था मगर खुदगर्जों ने उसकी कीमत नहीं समझी। समझी भी तो सिर्फ कोरे कागज पर।