सुना है कि कुछ ही दिन पहले अपने शहर के साकेत की सुनहरी बगिया में किसी बरखा-बहार का जश्न मनाने वाली राजनैतिक पार्टी के नामी-गिरामी लोगों का मजमा लगा था जिसने तरह-तरह के तराने सुनाये गए और दूसरों के तरानों की हंसी उड़ाई गई। खैर यह तो आम बात है की हम पंछी एक डाल के होते हुए भी तराने अलग-अलग होते हैं और अपने तराने की खूब तारीफ करते हैं। उस दिन सरयू तीरे से आते हुए महाऋषि विश्वामित्र मिल गए तो मैंने परंपरानुसार उनके चरण स्पर्श किया। मेरे कुछ बोलने के पहले ही उन्होने पूछ लिया ‘ वत्स, माता सरस्वती के इस भव्य मंदिर के सामने मार्ग पर असंख्य चार चक्रीय वाहनों का तांता क्यों लगाया गया है?
शनिवार, 30 जुलाई 2011
चला चलीं स्कुलवा की ओर…
“सावन का महीना पवन करे सोर”। महीना तो जरूर सावन का है मगर सोर के बदले शोर सुनाई दे रहा है डग्गामार वाहनो, नेताओं के निन्यानबे परसेंट झूठे वायदों और पुलिसिया झूठी हनक का। उधर अपना लख्तेजिगर रमफेरवा काले-कजरारे बादलों को देखकर गाता है ‘कारे बदरा तू न जा न जा,’ इधर हाकिम लोग बेहाल मसटरवन के साथ फटीचर बच्चों के दुबले-पतले हाथों में झंडी-झंडे थमा कर नारेबाजी कराते हैं ‘स्कूल चलो, स्कूल चलो, वहाँ दोपहरिया मे भोजन मुफ्त मिलेगा’ यानी ‘एक टिकट में दो शो’ या ‘दो के साथ एक फ्री’। पर मैंने बड़े ध्यान से देखा कि उस भीड़ में ज़्यादातर बच्चे रिक्शावालों, खोंमचेवालों या दूसरे गरीब-गुरबों के होते हैं जो लापरवाही के दामन में रोते हुए सरकारी या अर्ध-सरकारी प्राइमरी मिडिल स्कूलों में पढ़ते हैं। क्योंकि उन्हे सरकारी चाबुक चलने का डर बना रहता है।
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