सोमवार, 8 अगस्त 2011

हजारों अन्ना या अन्ना हज़ारे

मुझे अच्छी तरह याद आ रहा है कि महात्मा गांधी के अचानक स्वर्गधाम रुखसत हो जाने के मौके पर मुल्क के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बड़ी रूआंसी आवाज़ में कहा थाकि आज हमारे जीवन से एक प्रकाश-पुंज चला गया। चारों तरफ अंधेरा छा गया है। मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कहूँ! और कैसे कहूँ? अब इतने दिनों के बाद वाकई मे एहसास हो रहा है कि मुल्क अंधेरे में जी रहा है। यही नही अब मुल्क के अलंबरदारों को वही रास आ रहा है (अंधेरा, गहन अंधकार)। उसी अंधकार का फायदा गांधीजी की अर्थी पर घड़ियाली आँसू बहाने वालों ने खूब उठाया हैंपहले भाई लोगों ने खादी की दादी को एक गंदी सी कोठरी में क़ैद कर दिया फिर उन्ही विदेशियों की टार्च की रोशनी में अपना चोला बदल कर चुपके से अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, इटली और फ्रांस का चक्कर लगाने निकल पड़े। वहाँ की अर्धनग्न महफिल मे भूल गये वह गाना-भारत का रहने वाला हूँ, भारत का गीत सुनाता हूँ। या मै उस देश का वासी हूँ जिस देश में गंगा बहती है देश को आज़ादी मिली, बेशक मिली मगर अंधेरे में हम भूल बैठे कि वह केवल हमारा दिल बहलाने वाली आज़ादी थी। बिना ज़ाहिर और गैर-ज़ाहिर का फर्क किए हम झूमते हुए ढोल बजा-बजा कर गाने लगे- कि आज नीच गुलामी छूट गई है, लौह हथकड़ी टूट गई है। पर उस गहन अंधकार में हमारी मानसिकता आज भी बरकिंघम-पैलेस और व्हाइट-हाउस के किसी खूबसूरत कमरे में क़ैद कर के रखी गई है। जिसमें बजती हल्की-हल्की अँग्रेजी आर्केस्ट्रा की धुनों में हम ईमानदारी और उस लोकतन्त्र को भूल बैठे जो सामंतवादी युग में भी उनका मधुर आभास दिलाते थे।