सोमवार, 29 दिसंबर 2008

किस्सा-ए-बैकडोर

एक डाल पर तोता बोले, एक डाल पर मैंना। मैंना ने तोते से कहा, प्रियतम जब तक आतंकवाद में फायर झोंकने के लिये लोग क़वायद कर रहे हैं कोई किस्सा-कहानी सुनाते रहो वरना फिर इलक्शन के भोंपुओं में न मैं तुम्हे सुन सकूंगी और न तुम मुझे। तुम डाल-डाल तो हम पात-पात उड़ते फिरेंगे। तोते ने गरदन घुमाकर कहा, कहानी-किस्सों पर अब कौन ध्यान देता है प्रियतमे। आजकल तो पोस्टरो और बैनरो का ज़माना है। शार्टकट देखकर लोग सब कुछ समझने के आदी बन गये हैं। लेकिन मेरी प्यारी मैना ग़ौरतलब बात यह है कि सिर्फ पोस्टर-बैनरों को देखकर उछलते हुये गाना जब ऐसे चिकने चेहरे, तो कैसे न नज़र फिसले, जिन मेरिए, कोई बुद्धिमानी नहीं है। चाहिये हक़ीक़त की गहराई में डुबकी लगाने की। पर आजकल किसी को फुरसत कहां है। सब चाहते है कि बिना पानी में उतरे ही तह में से कीमती से कीमती शंख सीप मोती झोली में आ जायें। क्योकि मामला बैकडोर का ऐसा है जिससे लाठी टूटने की नौबत भी न आए और सांप भी मर जाये। बस यहीं से किस्सा-ए-बैकडोर चालू होता है।
कई वर्षो पहले की बात है। गया का शर्मा होटल पूरे बिहार में प्रसिद्ध था। खूब टिपटाप। काफी फसकिलास किस्म के लोग अपना मनपसन्द खाना खाने वहां जाया करते थे। चन्दन-तिलक लगा और झकाझक श्वेतवस्त्र धारण करके स्वयं श्रीमान शर्माजी अपनी गद्दी पर विराजमान रहा करते थे। इत्तिफाक से एकदिन किसी यात्री की थाली में छोटी-छोटी मुलायम उँगलिया मसालेदार शोरबे में मिलीं तो हड़कम्प मचगया। रातोंरात गया का शर्मा होटल सुपरस्टार बनकर चर्चा का विषय बन उठा। काफी तहकीकात के बाद होटल के बैकडोर में एक ऐसे कुँये का पता चला जो अत्यन्त मासूम बच्चों की लाशों से पटा पड़ा था। न जाने कब से बैकडोर से यात्रियों की चमचमाती थाली में मासूमों का मांस परोसा जा रहा था। मासूम मैना किस्सा सुनकर चिहुंक उठी। तोतेचश्म तोता बोला, अरे मेरी प्यारी अनारकली एक बिहार के शर्मा होटल के बैकडोर का किस्सा सुनकर तुम दहल उठी। ज़रदारी की तरह कितना कमज़ोर दिल है तुम्हारा। मैना प्रिये, उस दिन राजधानी के आँचल में आबाद नोयडा के निठारी काण्ड को हाईलाइट करने में तो तुम खूब फुदक-फुदककर चैनलवालों को जोश दिला रही थी। क्यों। अरे इसमें चिहुँक उठने की क्या बात है मेरी हीर, मैं हूँ न। हॉ यह जरूर है कि भोपालवालों की तरह निठारीवालो को भी बैकडोर मे पकती खिचड़ी के स्वाद से महरूम रहना पड़ रहाहै।
आजकल चन्द्रकान्ता संतति की तरह किस्सा-ए-बैकडोर को पढ़ना लोग खूब पसन्द कर रहे हैं। है भी रास्ता बैकडोर का बड़ा दिलचस्प। रास्ता वैसे है तो जरा घुमावदार, पर थोड़ी सी कोशिश करने पर मनचाही मंजिल मिलते देर नहीं लगती है। मैना मन ही मन प्रफ्फुलित होकर बैकडोर के और भी दिलचस्प किस्से सुनने के लिये मचल उठी। तोताराम ने ऐसे किस्सो का पुलिन्दा खोलना शुरू कर दिया। मेरी हमदम प्यारी मैना आम लोग तो इलेक्शन हार जाने के बाद ठिसुआ कर बैठ जाते हैं पर जिनमें जरा भी दम-खम और बैकडोर की चक्करदार सुरंग में धंसने की फितरत होती है वह बैकडोर से पहुंच जाते है अपर हाउस की चौखट तक। इम्तहान में फेल होने पर भी प्रथम श्रेणी के कालम में उनका नाम छप जाता है। और भी दिलचस्प किस्सा यह है कि सफेदपोशी के बैकडोर से वे प्रदेश के माफिया होने का तमग़ा हासिल कर रातोंरात सुपरस्टार बन जाते हैं। बड़े अजीब अजीब किस्से हैं। सुनाने लगेंगे तो ज़िन्दगी तमाम हो जायेगी मैना। अब देखो न, मुल्क में तमाम बेरोजगार मुंशीपल्टी की ऊबड़-खाबड़ सड़क पर रोजगार की तलाश मे भटकते नज़र आते हैं। कर्जा-पानी लेकर आवेदन-पत्र भरते हैं। पर पेपर आउट होने के हंगामे से सिर्फ निराशा हाथ लगती है। लेकिन बैकडोर का करेक्ट पता जिन्हे मिल जाता है वे सरकारी दामाद बनकर मौज मारते दिखायी देते हैं। कभी किसी की नज़र में चढ़ गये और हो-हल्ला मचा तो मुअत्तली के मुहाफिजखाने में जमा करा दिये जाते है। मगर भला हो बैकडोर का कि बैकडोर से उनकी फाइल न जाने कहाँ चोखा-बाटी खाने चली जाती है। इंक्वायरी आफिस खोल दिया जाता है, कमीशन की कबूतरबाज़ी चलती है और मेरी दिलोजान से प्यारी मैना, उधर बैकडोर में चिकन-बिरयानी पकती रहती है बिल्कुल गया के शर्मा होटल की तरह। तोते मियाँ ने एक बार गर्दन घुमाकर उधर जेल की चहारदीवारियों के पार देखा तो बड़े तरून्नुम से अपनी मैना का दिल जीतने के लिये कहा लो बैकडोर का एक और किस्सा याद आ रहा है। मैना फुदक कर उसी डाल पर बैठी जिस पर तोता बैठा था। उसने धीरे से तोते के कान में कहा, प्रियतम यह लोग तो वही नामुराद लोग हैं जो गाँव के गरीब लोगों की बहू-बेटियों की सरेराह इज्ज़त लूटी थी। अरे यही तो मैं भी बता रहा था। गौर से देखो कैसी मस्ती उड़ा रहे है। हम जैसे निरीह प्राणी पिंजड़े के नाम से कांपने लगते है पर इनके लिये तो जेल नहीं किरकिट का खेल है। तोते ने मैना की बात छीन कर कहा य़ह सब कमाल बैकडोर का है मेरी सोनिये। जब कभी जनपद के ज़िल्लेदारों की जमात जागती है तो अखबारनवीसों को इकठ्ठा करके लाइन क्लीयर का गुडफील करा दिया जाता है, काग़ज़ की कश्ती में सबकुछ सुरक्षित बता कर समीक्षा कर दी जाती है लेकिन बैकडोर से गाना बजता रहता है सब गोलमाल है भाई सब गोलमाल है। समझ में आया कुछ मेरी भोली मैना। यही समझ लो कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। कहाँ-कहाँ किस्सा-ए-बैकडोर की हक़ीक़त जानने के लिये माथा खपाती फिरोगी। बैकडोर का किस्सा अगर सुनाया जाये तो सास भी कभी बहू थी के एपीसोडों की तरह खिचता चला जाएगा। बैकडोर के लिये सुना जाता है कि सागर-मन्थन के समय यह भी एक अमूल्य रत्न निकला था जिसे बाद में अलादीन के जादुई चिराग़ की तरह एक हैरतअंगेज़ चिराग़ बनाकर हिन्दुस्तान की जम्हूरियत के पार जाने के लिये हिफाज़त से रख दिया गया था। कल तक शान्ति, न्याय और भाईचारे के नाम पर गले मिलने वालो ने ताबड़तोड़ कई धमाके किये तो उठते जानलेवा धुयें मे न रहा तोता, न रही मैना। रह गया ब्लैकहोलों की तरह बस बैकडोर जिसमें आज भी कुछ लोग तन्दूर में रोटी सेंकते नज़र आ रहे हैं। कौन पूछता है तोता-मैना की कहानी।