गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जादू की छड़ी

हालांकि मुझे सरयू की सुनामी लहरों के बीच डूबे दायरे में लावारिस पड़े रहने के बावजूद सियासती मसाइलों में कोई दिलचस्पी नहीं है फिर दुनिया भर के संविधानों में सबसे बड़े संविधान यानि सबसे बड़े जनमत पर नाज़ जरूर है जिसे उन्होंने बड़े अरमानों से हमें दिया। यह अलग बात है कि वे अब इतिहास के पन्नों में खो गए और जो खुदा के फज़ल से बचे भी हैं वे मेरी तरह किसी गंदी सी बस्ती के टूटे से घोंसलेनुमा घर में ज़िंदगी की आखिरी घड़ियाँ गिन रहें हैं। लोग आते हैं और चले जाते हैं लेकिन सफेदपोश लम्बरदार उन्हें हम तक पहुँचने के पहले बासमती चावल से बने पुलाव की महक से ऐसा मस्त बना देते हैं कि उनका पहुँचना या हमारी बातें सुनना नामुमकिन सा लगने लगता हैं।