गुरुवार, 18 मार्च 2010

अब नाम का ज़माना है

उस दिन यादव के चाय की दुकान पर बैठे अपने मीर साहब लालू छाप कुल्हड़ में चाय की चुस्की लेने में पिले पड़े थे। अचानक उधर से गुज़रा तो उन पर नज़र पड़ी। मीर साहब के इस नये शगल को देखकर आखिर मैं अपने को रोक नहीं सका। पूछ ही बैठा, “अमां, भाई मीर साहब यह क्या? आज भाभी जान से लगता है कुछ अनबन हो गयी है वरना इत्ते सबेरे आप के यहाँ इस टूटी बेंच पर सपरैटे दूध की चाय पीने का प्रश्न ही नहीं उठता है”।

मीर साहब पहले तो कुछ सकपकाए फिर बैठने का इशारा करते हुए बोले, “अमां भाई क्या कहूँ? कम्बख्त आरक्षण पर बहस हो गयी। मैं औरतों के आरक्षण मुद्दे की वकालत करते हुए बिल्कुल सही ठहरा रहा था और वह अक्ल की मारी खिलाफत कर अड़ी पड़ी थीं। आखिर में मैंने वॉक आउट करना ही बेहतर समझा”। ‘मियाँ तो यह बात है? महँगाई के मुद्दे को दरकिनार कर आप लोग चोंचे लड़ाने लगे आरक्षण मुद्दे पर। समझ-समझ कर नासमझी कर बैठते है आप लोग”। मीर साहब “मैं कहता हूँ अगर आरक्षण मिल भी गया तो कौन सा तीर मार लेंगे आप? उसका भी फ़ायदा बड़े लोगों को ही मिलेगा। उन्हीं की बेगमों की पांचों उंगली घी में और सिर कढ़ाई में होगा भाईजान”।

भाई मीर साहब के सामने अब टॉपिक बदलने के सिवा कोई चारा नहीं था। चाय का खाली कुल्हड़ एक तरफ फेंकते हुए मीर साहब खिसियानी बिलाई खंभा नोचने की मुद्रा में बोले, “अच्छा यार यह बताओ कि तुम जो परचों और रिसालों (पत्र-पत्रिकाओं) में लिखते हो तो अपना नाम क्यों नहीं देते हो? बेनामी के अंधेरे में कैसे तुम्हारी पहचान बनेगी? यहाँ तो अपनी पहचान बनाने के लिए लोग न जाने क्या-क्या कर रहे हैं”?

कुछ देर के लिए मीर साहब की बात सुनकर मैं भी सकते में आ गया कि बात तो वह बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। इतनी मगज़मारी करने के बावजूद कोई मुझे पहचानता नहीं। समझता ही नहीं है कि मैं भी शहर में कोई अफसाना निगार हूँ। लेकिन फिर समझ में आया कि उस गरीब किसान को कौन पहचानता है जिसे लोग अन्नदाता तो कहते हैं पर उसका नाम नहीं जानते हैं? उस मज़दूर को नहीं जानते हैं जो अपनी मेहनत से खड़ी की गई आसमान छूती इमारतों के बगल में उजड़ी हुई बस्ती में वास करता है और लोगों की डांट-डपट सुन कर भी खामोशी की चादर में लिपटा पड़ा रहता है। बस उसे तसल्ली भर होती है कि ‘जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ’। मैं भी बेनाम होकर यही सोचा करता हूँ कि ‘मरना तेरी गली में जीना तेरी गली में, मरने के बाद चर्चा होगी तेरी गली में।’

मौका मिलते ही मीर साहब ने मेरे ऊहापोह में फँसे चेहरे को पढ़ते हुए आखिर बकना शुरू कर दिया, “मियाँ वह ज़माना बहुत पीछे छुट चुका है कि जब लोग काम से पहचाने जाते थे। आज तो जिसका जितना झूठ-सच प्रचार हो बस उसी कि समाज से लेकर सियासत तक पहचान होती है”।

बात भी ठीक हिंदुस्तानी जम्हूरियत में काम कम नाम ज़्यादा होने का दस्तूर निकल पड़ा है। इसलिए बड़ी-बड़ी भीड़ इक्कट्ठा करके एक दूसरे पर छींटाकशी करने का चलन चल निकला है। मुल्क महँगाई कि मार से मरता रहे लेकिन अपने नाम कि टिकुली सटा कर लोगों के आकर्षण का केंद्र बनने कि तमन्ना होती है। पहले तो लोग अपने महबूब को ताज़े खूबसूरत फूलों की माला पहना कर उसके खैरमकदम के लिए बेकरार रहा करते थे लेकिन अब बाग़-बगीचे हैं कहाँ? इसलिए बेशकीमती कागज़ के टुकड़ों को एक लड़ी में पिरो कर इस्तकबाल रस्म अदायगी हो रही है। बाकी लोगों का क्या? उनका तो ‘खुदा हाफ़िज़...’।

मीर साहब की बातें सुनकर मेरा भी जी मचल उठा है कि अब मैं भी नाम के साथ अफसाने लिखूँ। शायद मेरे अभिनन्दन के लिए भी अच्छी संख्या बढ़ जाए।

नोट: (18 मार्च 2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘जनमोर्चा’ में प्रकाशित)
'अब नाम का ज़माना है'। - यहाँ से pdf फ़ाइल में डाउनलोड करिए।