गुरुवार, 9 सितंबर 2010

जादू की छड़ी

हालांकि मुझे सरयू की सुनामी लहरों के बीच डूबे दायरे में लावारिस पड़े रहने के बावजूद सियासती मसाइलों में कोई दिलचस्पी नहीं है फिर दुनिया भर के संविधानों में सबसे बड़े संविधान यानि सबसे बड़े जनमत पर नाज़ जरूर है जिसे उन्होंने बड़े अरमानों से हमें दिया। यह अलग बात है कि वे अब इतिहास के पन्नों में खो गए और जो खुदा के फज़ल से बचे भी हैं वे मेरी तरह किसी गंदी सी बस्ती के टूटे से घोंसलेनुमा घर में ज़िंदगी की आखिरी घड़ियाँ गिन रहें हैं। लोग आते हैं और चले जाते हैं लेकिन सफेदपोश लम्बरदार उन्हें हम तक पहुँचने के पहले बासमती चावल से बने पुलाव की महक से ऐसा मस्त बना देते हैं कि उनका पहुँचना या हमारी बातें सुनना नामुमकिन सा लगने लगता हैं।
आज ही अपने परम विद्वान और निहायत ईमानदार प्रधानमंत्री के बयान से ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी बया पंछी के घोंसले को किसी ने नोचकर रख दिया हो। बेचारे मनमोहन की मुरलिया बजने से ऐसा लगा जैसे मुरली नहीं ए॰आर॰रहमान के ऑर्केस्ट्रा में सेक्सोफोन बज रहा हो। लगा कि अब उन्हें जम्हूरियत खास तौर से हिंदुस्तानी सियासत के सुर में सुर मिलना आ गया है। बेशक उन्हें अभी रिटायर होने की जरूरत नहीं है। उनकी उम्र अभी है ही कितनी? यह बात ज़ुदा है कि इस उम्र में सरकारी कर्मचारी रिटायर कर दिये जाते हैं क्योंकि दोनों के शारीरिक रचना में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। जीव वैज्ञानिक एक तरफ मानतें हैं उम्र बढ़ने के साथ-साथ कार्य करने की क्षमता का ह्रास होना स्वाभाविक है। दूसरी उन्होने बड़ी बेबाकी से कह डाली कि- उनके पास कोई जादू कि छड़ी नहीं है जो इतनी जल्दी सब ठीक हो जाए। यही उनके मातहतों ने भी सीख ली है। इसीलिए गरीबों, बाढ़ पीड़ितों और अपराध होने के बीच दबी ज़ुबान से उनका भी जवाब ऐसा होता है। देश के सर्वोच्च न्यायालय को यह राय देना कि- संसद द्वारा लिए गए नीति निर्देशक फैसलों पर उसे हस्तक्षेप करने से परहेज करना चाहिए। ऐसा बयान देना एक विद्वान और जतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता है। इसके बाद पवार साहब के सपोर्ट में वे स्वयं कहते हैं- कि सड़े हुए अनाज गरीबों को मुफ्त नहीं दिया जा सकता है। यहाँ मुझ जैसा एक मामूली आदमी भी पूछ सकता है कि क्या कभी खाद्य एंव रसद मंत्री जिन्होंने क्रिकेट के मैदान में सिर्फ चौके-छक्के के अलावा कभी उन गरीबों के हालात पर तरस नहीं खाया की अनाज सड़ने की नौबत क्यों आई? समझ में नहीं आता की इस देश में किस तरह का जनतंत्र है? लोग तो कहते है कि यहाँ मिक्सचर जनतंत्र है। राहुल जी ने ठीक ही कहा है कि- सिर्फ दो वर्ग है गरीब और अमीर। अमीर माननीयों कि अलग जमात है जो गांधी और लोहिया का नाम लेकर सिर्फ अपनी पोजीशन सेफ करने के चक्कर में हैं। फाइलों पर सिर्फ चिड़िया बैठा कर नौकरशाहों के हवाले स्याह-सफ़ेद कर लिए अपने काम की इतिश्री समझ बैठते हैं।
गरीबों कि कोई जमात नहीं हो सकती है क्योंकि सियासतदान समझते हैं की अगर वे जागे तो सिंहासन खाली करना पड़ सकता है। मुझे हाल में खुवंत सिंह की लेखनी बहुत मन भायी की इन साँसों के वेतनवृद्धि की क्या जरूरत पड़ी जबकि तमाम अतिरिक्त सुविधाएं मिल रही हैं- सस्ता भोजन, नाश्ता, कई लाख फ्री टेलीफोन काल्स वगैरह-वगैरह। यही नहीं रहने के लिए आवास फ्री जबकि एक लो पेकर्मचारी को आवासीय रेन्ट देना पड़ता है। आवासीय भत्ता भी जिन्हें दिया जाता है वह भी इतना कम की एक मकान भी नहीं मिलता। उधर किसानों की भूमि हथियाने की अलग साजिश। उपज पर असर पड़ना स्वाभविक है। असर नहीं पड़ेगा तो खाद्यान्न दुगने-तिगुने दामों पर विदेशों से आयात कैसे किया जाएगा और बंदरगाहों पर सड़ेगा कैसे?
शिक्षा का हाल यह है कि जितनी लगाम कसी जा रही है उतने महाविद्यालय बी॰एड॰, एम॰एड॰ और एम॰बी॰ए॰ के खुलते जा रहें हैं। कितने शिक्षा सेवी हैं इस देश में? कितना प्रेम है उन्हें ऊंची कीमतों पर शिक्षा देने में? दूर मत जाइए अपनी राजधानी के फ़ैज़ाबाद रोड स्थित (चिनहट के पास) एक ही व्यक्ति के नाम कितने भव्य कॉलेज बने हुए हैं और वे भी महंगे। जहां गरीब चाहते हुए भी अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला सकते हैं। जब भीषण बाढ़ और महामारी में सिर्फ वादों के उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है तो शिक्षा तो दूर की गोट है। सिर्फ राजधानी में ही नहीं आसपास के शहरों में बेहिचक शिक्षा की दुकानेंमाल की तर्ज़ पर खुलती जा रही हैं और शिक्षा आयोग आँख मूँदे पड़ा है।
कहाँ तक रोना रोया जाए। बुरा न मानों यही बातें हैं जो देश में नस्लवाद या नक्सलवाद को बढ़ावा दे रहा है और केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें जनतंत्र का ढ़ोल पीटकर तसल्ली दे रही हैं। यही हाल रहा तो एक दिन ऐसे जनतंत्र के विरुद्ध सम्पूर्ण जनता सड़कों पर उतर आयेगी। जिस देश में पुलिस अधिकारियों की हत्या सरेराह होती हो वहाँ आम आदमी की क्या बिसात है? उस पर से देश का प्रधानमंत्री कहता है कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। वाह! क्या बात है? अगर यही बात मैं अपने परिवार से कहूँ की भई, मैं तुम लोगों को पाल-पोस नहीं सकता हूँ क्योंकि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है तो वे बड़ी बेशर्मी के साथ पूछ बैठेंगे फिर बाप क्यों बने थे?
यहाँ तो हाल यह है की बिन ब्याही बहन ईंट और बेशकीमती पत्थरों से घरौंदे पर घरौंदे गढ़कर खेल रही है उधर उनके गरीब भाई-बहन बाढ़ की चपेट में मौत का निवाला बन रहे हैं मगर बहना को फुर्सत कहाँ कि उन्हें तिनके का सहारा देकर किनारे लगाने पहुंचे। सब काम सिर्फ नौकरशाहों के नाम और उन्हें खूब वादे करने की शिक्षा बखूबी दे दी गयी है क्योंकि संसार का सबसे बड़ा जनतंत्र जो है। वो भी यही कहते हैं कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। छोटी सी बात है की पुरातत्व विभाग का हुक्म है कि- किसी ऐतिहासिक इमारत के इर्द-गिर्द न तो कोई ऊंची इमारतें तामीर कराई जा सकती है और न किसी राजनीतिक दल का दफ्तर खोला जा सकता है क्योंकि उनके प्रदूषण से ऐतिहासिक धरोहर को नुकसान हो सकता है मगर अपने यहाँ बहूबेगम के मकबरे और नवाब शुजाऊद्दौला की गुलाबबाड़ी में क्या हो रहा है? सब जानते हैं समझते हैं, क्योंकि जनतंत्र कुछ मजबूत हाथों सिमट कर रह गया है। क्या भारत जैसे गरीब देश ने ऐसे ही जनतंत्र का सपना देखा था? अलबत्ता सिर्फ एक दो दिन जरूर फ़ख्र किया जाता है की हम जनतंत्र में सांस ले रहे हैं। फिर उसके बाद बदहाल सड़के बजबजाती नालियों, डकैती, लूटमार और बलात्कारी घटनाओं की नंगी तस्वीरें देखने को मिला करती हैं। उधर लोग किसी खास जादूगर से जादू की छड़ी हासिल करने के लिए मिन्नतें करते फिरते हैं पर जादू की छड़ी हासिल नहीं होती है।

नोट: (09/9/2010 को स्थानीय हिन्दी दैनिक जनमोर्चा में प्रकाशित)

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