बुधवार, 6 अगस्त 2008

कीचड़ में खोया गुलबन्द...

राजा तो मैं कभी रहा नहीं। न तो किसी ज्योतिषी ने कभी राजगद्दी पर बैठने की बात बताई है। वैसे उम्मीद पर जिन्दा जरूर हूं कि इत्तिफाक से कोई मिल गया तो शायद राजभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। उम्मीद इसलिए पुख्ता होती दिखती है कि कल तक जो बेचते थे दवा-ए-दिल वह दुकान अपनी बढ़ा चले और गद्दीनशीन बन कर गुलछर्रे उड़ाने लगे।

बहरहाल सबकी किस्मत अलग-अलग लिखी जाती है। यह लिखने वाले के मूड पर निर्भर करता है। मैं राजा बनूँ या न बनूँ यह अलग बात है पर यह जरूर है कि मुझे अपनी राजधानी से बेपनाह मोहब्बत है। राजधानी से भी ज्यादा मोहब्बत उसके गले में पड़े गुलबन्दनुमा गोमती से है। मोहब्बत के मामले में मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सौ साल पहले मुझे उससे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा। एक बार एक मोटे-मुस्टण्डे दरोगा जी ने किसी केस सिलसिले में मुझसे सबूत माँगा तो मैंने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया, सर, मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती। हुजूर दरोगा साहब गुस्ताखी माफ की जाए। आज कल तो अच्छे-अच्छे सबूत झुठला दिए जाते हैं। साहेब बस समझ लीजिए कि मुझे मोहब्बत है, तो है। सबूत तो अपने मरहूम मियाँ मंजनू, महिवाल, रांझा और जूलियट भी नहीं दे पाए तो यह नाचीज़ नामुराद किस खेत की मूली है? जनाब़, जब मियाँ मँजनू को अपनी लैला की गली के कुत्ते भी प्यारे थे तो मुझे अपनी महबूब राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द से प्यार क्यों नहीं हो सकता हैं?

मुझे अच्छी तरह पता है कि गुलबन्द का नाम लेने पर मेरे सामने वाली खिड़की से झाँकता हुआ चाँद का कोई टुकड़ा मेरी बैकवर्डी पर हँसते हुए कहेगा कि आजकल नेकलेस का फैशन है। मैं समझ गया कि राजधानी के गले में पड़े गोमतीनुमा गुलबन्द को इसीलिए नेगलेक्ट करते हुए इन कंकरीट के जंगलों में कही छुपाने की ट्रिक खेली जा रही। वे दिन भी क्या दिन थे जब छत्तरमंजिल के सुनहरे छत्तर से टकराती हुए सूरज की सुनहरी किरणें गुलबन्द पर पड़ती थी तो कसम से थोड़ी देर के लिए आँखें चौंधियाँ जाती थीं। ऐसा प्यार उमड़ पड़ता था कि पूछिए मत। लेकिन अब वह बात कहाँ? कंकरीटी जंगल के ऊँचे और भीमकाय पेड़ों में मेरी राजधानी का गोमतीनुमा गुलबन्द न जाने कहाँ गुम हो गया? यह बेज़ान नाचीज ढूंढता फिर रहा है पर उसे पूरी तरह मालूम है कि वह कभी नहीं ढूंढ सकता है। जब बरेली के बाजार में गिरा झुमका नहीं मिल सका तो फिर इस घने जंगल में उसको ढूंढ पाना कितना मुश्किल है? सिर्फ मैं ही नहीं न जाने मेरे जैसे कितने फिदा हुसैन गुहार लगाते रहे मगर अपनी राजधानी के गोमती नुमा गुलबन्द को मटमैले और कीचड़ भरे पानी से निकाल कर उसी पुराने अन्दाज में पहनाने की किसी ने मदद नहीं की? आखिर क्यों? उल्टे उसके लिए ऊँची हवेलियों की आकाश से बातें करती खिड़कियों से जिराफ़ जैसी गरदन निकालें लोग फिकरे कसते हुए गा रहे हैं गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई। भला बताइए तो कुदरत ने कितने अरमानों के साथ अपनी महबूब राजधानी के गले में एक अदद खूबसूरत सा गुलबन्द पहना कर रूख्सत किया था मगर खुदगर्जों ने उसकी कीमत नहीं समझी। समझी भी तो सिर्फ कोरे कागज पर।

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