बेज़ान पत्थर से तराशे गए बुतों का जमाना फिर लौट आया है। इस बार बोलते बुतों
के दिन बहुरे हैं लेकिन अलग-अलग आन-बान-शान के साथ। अजन्ता, एलोरा और खजुराहों के बुत तो संततराशों की लाख कोशिशों के
बावजूद आज तक नहीं बोल सके। मुमकीन
है कि गुज़रे जमाने के संततराश बुत को बुत ही रहने देना चाहते हों। वे उन्हे आज के
रोबोट नहीं बनाना चाहते हों, जो राजनीति की
रागिनी पर थिरक उठें। आँखों ही आँखों में इशारा समझ बैठें।
हाँ एक फिल्मी हस्ती मरहूम व्ही. शाँताराम ने
जरूर कुछ-कुछ कोशिश किया था और बना डाली थी एक पूरी
फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’। पर उससे सियासती साज के बिना आवाज़ की वह
रवानी नहीं देखने को मिली जो आज हर नुक्कड़ और चौराहों पर देखने को मिलती है।
सियासती संगीत के उस्तादों की काबलियत काबिले तारीफ है
कि उन्होनें ऐतिहासिक फटीचर इमारतों को जस का तस पड़े रहने दिया क्योंकि आज के युग में उनका कोई माने-मतलब तो रहा
नहीं। मतलब तो उन बुतों से है जिनकी बदौलत उन्हें ढेरो मतों की मस्ती मिलने वाली
है या मिलती रही है।
इस नई तकनीक में आदम की काबिल औलादें बुतों के ढेर पर खड़ी है और बुतों की
जुबानी स्वर्ण युग की कहानी सुनने को मिलती है। इसे अगरचे दूसरे तरीके से बयाँ
करें तो अपने शहर में शीत-युद्ध की एक नई तकनीक शुरू हो चुकी है। आदमी शाही महलों
या अज्ञातवास में छुप कर बैठा हैं पर बन्दूकें इन अनबोलते बुतों के कन्धों पर रख
कर चलवा रहा है। बुतपरस्ती कोई इल्ज़ाम नहीं पर सियासत के साये में उनसे संगीत
सुनना या उनके हाथों में संगीन देना क़ाबिले-इल्जाम जरूर कहा जा सकता है। माना कि
इतिहास को खंगाल कर इन बुतों को शहर के हर मोड़ पर स्थापित किया जा रहा है और
लाखों का वारा-न्यारा करके सौन्दर्यीकरण के नाम पर अकीदत के फूल चढ़ाये जा रहे
हैं। पर भावनायें क्या कहती हैं? भावनाओं में छुपा
है अहंकार और अपने नाम की यथा गाथा। सोचने वाली बात है कि एक ओर स्वीकारा जाता है
कि सब में एक ही जीव अविनाशी बैठा है यानी परमात्मा का एक अंश। फिर अनबोलते बुतों
से इतनी मोहब्बत और आत्माधारी इन्सानों से दुराव क्यों? शायद इसलिए कि लोग वाह-वाही करें कि उन्हें ऐतिहासिक हस्तियों के प्रति आस्थावान कहें।
कुछ तो इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए खुद ही बुत बनकर खड़े हो गये हैं।
मेरी अनजान कलम परस्तिश के क़ाबिल गुज़रे ज़माने के बुतो की विरोधी नहीं है और न
इतिहास को याद करना गुनाह समझती है। शहर के सुन्दरीकरण की खिलाफत भी नहीं करती है
पर इतना जरूर है कि हमें चाहिए गेहूँ, न की गुलाब। गुलाब की महक किसे नहीं पसन्द होगी पर
पेट भरने के लिये उससे जरूरी है ‘गेहूँ’। गेहूँ उगाने वाले मेहनतकश किसान के बुत को हम
शतशत् नमन करते हैं। तराशे बिन तराशे पत्थर के चन्द टुकड़े न तो पेट भर सकते हैं
और न वास्तविक रूप से आस्थावान बना सकते है क्योंकि उन्हें अपनी-अपनी पार्टी के ‘ब्रान्ड-ऐम्बसडर’ का रूप दिया जा रहा है। जब सियासत के साज पर बुतों से कर्णप्रिय
संगीत सुनने की हसरत की जाए तो मेरी समझ में वह चन्दरोजा कान फोडू संगीत ही साबित
होगा। काश इनकी जगह कुछ और होता जिसकी खुसबुसाहट लोगों में चल रही है। काश समझ में
बात आती...! मैंने इस रहती
ज़िन्दगी में सियासतदानों द्वारा कितने ही बुतों को फेल पास होते देखा है। तमाम
तवारीखी इमारतों को ढहते ढहाते हुए देखा है। इसलिए पब्लिक के पैसों पर तरस आता है
और बार-बार साहिर का वह मशहूर शेर याद आया करता है—
इक शहंशाह ने दौलत का
सहारा लेकर !
हम गरीबों का
उड़ाया है मज़ाक !!
तभी तो तराशे गये पत्थरों से बने बुत जब किसी चौराहे पर खड़े किए जाते हैं तो
मुझे सियासत के साज़ पर गीत नहीं मर्सिया सुनने को मिलता है।
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