आजकल अपने लंगोटिया यार मीर साहब ‘खिचड़ी भोज’ के पीछे दीवाने बने हुए हैं। कहते हैं कि जितना मजा इफ्तार पार्टी में नहीं आता है उससे ज्यादा मजा ‘खिचड़ी भोज’ में आता है क्योंकि उसमें खाने वाले कई आइटम होतें हैं। खिचड़ी एक शार्टकट रास्ता होता है। भई खाने का मौज तो बस इसी में मिलता है। आए दिन अपने मीर साहब का नाम खिचड़ी भोज में शामिल होने की वजह से अखबार में फोटो सहित सुर्खियों में रहा करता है। यही नहीं, वे डकराते हुए कभी किसी गरीब की मढै़य्या के दरवाजे पड़ी खटिया पर पसर कर चांद सितारों की तमन्ना किया करते हैं। अक्सर ‘दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का’ गाते हुए किसी खिचड़ी भोज में शामिल होकर गुडफील का मजा लेने से जरा भी हिचकिचाते नहीं हैं। भले इसे कुछ जलनशील लोग नौटंकी का नाम दें। हां, यह जरुर है कि इस हाड़ गलाने वाली सर्दी में कुछ पुलिस वालों और खबरिया चैनल वालों को भाग दौड़ करने में मुसीबत जरुर होती है।
अब रही अपनी बात तो वह अलग है। मैं तो अपनी घोंसलेनुमा घर में फटा कम्बल ओढ़े आज के खिचड़ी-भोजों और टूटी खटिया पर पड़े-पड़े महसूस करता हूं कि इस बदलते मौसम में पूरा का पूरा मुल्क खिचड़ी मय हो गया है। बस डर है तो बस ‘कोल्ड डायरिया’ का। किंतु सपने भी देखता हूं तो खिचड़ी का, खिचड़ी खाने का और बनाने का। किसी कम्बल बांटने वाले का शोर शराबा और गश्त करते पुलिस वालों के डंडों की ठक-ठक सुनकर पक्का यकीन हो जाता है कि सचमुच मैं एक खिचड़ी युग में जी रहा हूं। मैं तो भाई यही ‘फील’ कर रहा हूं और अपने विचार से ठीक ही फील कर रहा हूं क्योंकि बहुत से इबादत गाहों में आज भी खिचड़ी का बोलबाला है। काफी समझबूझ कर खिचड़ी भोग लगाने और भक्तों को प्रसाद स्वरूप बांटने का सिस्टम अपनाया गया है। अब यही समझने की बात है कि पहले किसी-किसी के घर कभी-कभार खिचड़ी पका करती थी लेकिन आज तो पूरा देश खिचड़ी का शौकीन दिख रहा है। मेरी समझ से यह खिचड़ी युग चल रहा है। हर जगह चाहे देश हो या प्रदेश सब जगह खिचड़ी परोसी जा रही है। पहले तो दाल अलग और भात अलग परोसने का रिवाज था। यानी राजा-प्रजा के बीच एक स्पष्ट रेखा खिंची होती थी। वह था सामंतवादी या राजशाही का जमाना। उसके बाद लोगों के मिजाज में परिवर्तन आया। भात फैलाकर उस पर छौंकी बघारी दाल के साथ सब्जी या सलाद वगैरह लेकर खाने का रिवाज शुरू किया गया। इस नए अंदाज को लोगों ने पूंजीवादी प्रवृति का नाम दिया। कभी अपने मीर साहब के मिजाज का आलम यह था कि विदेशी मक्खन के बिना निवाला उनके गले के नीचे नहीं खिसकता था। नए जोश और पुराने इतिहास का वास्ता देकर लोगों ने महाराणा प्रताप की तर्ज पर घास की रोटियां खाने का ड्रामा पेश करना शुरू कर दिया। जिन्हें चुपड़ी रोटी और बिरय़ानी हजम नहीं हो सकती उन्होंने दलील देना शुरू कर दिया कि भारत गरीबों का देश है। इसलिए समाजवादी आंगन में पत्तल पर रूखी सूखी खाने का रिवाज अपनाया था। सोचा चलो किसी को हम गरीबों की फिक्र तो हुई। पर कुछ खास लोगों के सामने सिर्फ नाम का पत्तल बिछाया गया जिस पर परोसी जाने लगी तहरीनुमा खिचड़ी और खिचड़ी के संग उसके तीन यार पापड़, दही घी, अचार। इसी तरह एक ही मुल्क में एक साथ सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवाद की खिचड़ी से सब खिचड़ीमय हो रहा है। कहीं गरीबों के देश में समाजवाद का सीन देखते-देखते गरीबों नें खुदकशी करनी शुरू कर दी और कहीं सिन सिनाकी की बुबलाबू के बोनट पर बैठकर सारे शहर को जलता हुआ देखकर बांसुरी बजाने का शौक चर्राने लगा। यानी सब कुछ बिलकुल खिचड़ी की तरह। ढूंढते रह जाइए दाल के दाने चावल और मटर बिलकुल उसी तरह जैसे आजकल की मसाला फिल्में। पहले हीरो-हीरोइन, कामेडीयन और विलेन अलग-अलग होते थे पर आज सब कुछ एक ही हीरों में देखने को मिलने लगा है। भगवान भला करे, ऐसी खिचड़ी खाकर डकार लेने वालों का। यहां तो मोहल्ले के आवारा लौंडे चिढा़ते हुए कहते हैं, ‘आधी रोटी बासी दाल, खा ले बेटा बाबूलाल’।
अब रही अपनी बात तो वह अलग है। मैं तो अपनी घोंसलेनुमा घर में फटा कम्बल ओढ़े आज के खिचड़ी-भोजों और टूटी खटिया पर पड़े-पड़े महसूस करता हूं कि इस बदलते मौसम में पूरा का पूरा मुल्क खिचड़ी मय हो गया है। बस डर है तो बस ‘कोल्ड डायरिया’ का। किंतु सपने भी देखता हूं तो खिचड़ी का, खिचड़ी खाने का और बनाने का। किसी कम्बल बांटने वाले का शोर शराबा और गश्त करते पुलिस वालों के डंडों की ठक-ठक सुनकर पक्का यकीन हो जाता है कि सचमुच मैं एक खिचड़ी युग में जी रहा हूं। मैं तो भाई यही ‘फील’ कर रहा हूं और अपने विचार से ठीक ही फील कर रहा हूं क्योंकि बहुत से इबादत गाहों में आज भी खिचड़ी का बोलबाला है। काफी समझबूझ कर खिचड़ी भोग लगाने और भक्तों को प्रसाद स्वरूप बांटने का सिस्टम अपनाया गया है। अब यही समझने की बात है कि पहले किसी-किसी के घर कभी-कभार खिचड़ी पका करती थी लेकिन आज तो पूरा देश खिचड़ी का शौकीन दिख रहा है। मेरी समझ से यह खिचड़ी युग चल रहा है। हर जगह चाहे देश हो या प्रदेश सब जगह खिचड़ी परोसी जा रही है। पहले तो दाल अलग और भात अलग परोसने का रिवाज था। यानी राजा-प्रजा के बीच एक स्पष्ट रेखा खिंची होती थी। वह था सामंतवादी या राजशाही का जमाना। उसके बाद लोगों के मिजाज में परिवर्तन आया। भात फैलाकर उस पर छौंकी बघारी दाल के साथ सब्जी या सलाद वगैरह लेकर खाने का रिवाज शुरू किया गया। इस नए अंदाज को लोगों ने पूंजीवादी प्रवृति का नाम दिया। कभी अपने मीर साहब के मिजाज का आलम यह था कि विदेशी मक्खन के बिना निवाला उनके गले के नीचे नहीं खिसकता था। नए जोश और पुराने इतिहास का वास्ता देकर लोगों ने महाराणा प्रताप की तर्ज पर घास की रोटियां खाने का ड्रामा पेश करना शुरू कर दिया। जिन्हें चुपड़ी रोटी और बिरय़ानी हजम नहीं हो सकती उन्होंने दलील देना शुरू कर दिया कि भारत गरीबों का देश है। इसलिए समाजवादी आंगन में पत्तल पर रूखी सूखी खाने का रिवाज अपनाया था। सोचा चलो किसी को हम गरीबों की फिक्र तो हुई। पर कुछ खास लोगों के सामने सिर्फ नाम का पत्तल बिछाया गया जिस पर परोसी जाने लगी तहरीनुमा खिचड़ी और खिचड़ी के संग उसके तीन यार पापड़, दही घी, अचार। इसी तरह एक ही मुल्क में एक साथ सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवाद की खिचड़ी से सब खिचड़ीमय हो रहा है। कहीं गरीबों के देश में समाजवाद का सीन देखते-देखते गरीबों नें खुदकशी करनी शुरू कर दी और कहीं सिन सिनाकी की बुबलाबू के बोनट पर बैठकर सारे शहर को जलता हुआ देखकर बांसुरी बजाने का शौक चर्राने लगा। यानी सब कुछ बिलकुल खिचड़ी की तरह। ढूंढते रह जाइए दाल के दाने चावल और मटर बिलकुल उसी तरह जैसे आजकल की मसाला फिल्में। पहले हीरो-हीरोइन, कामेडीयन और विलेन अलग-अलग होते थे पर आज सब कुछ एक ही हीरों में देखने को मिलने लगा है। भगवान भला करे, ऐसी खिचड़ी खाकर डकार लेने वालों का। यहां तो मोहल्ले के आवारा लौंडे चिढा़ते हुए कहते हैं, ‘आधी रोटी बासी दाल, खा ले बेटा बाबूलाल’।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.
जवाब देंहटाएंKhoob hai kalam aapki. Swagat blog parivar aur mere blog par bhi.
जवाब देंहटाएंजबरदस्त लेखन सिंह साहब!
जवाब देंहटाएंऔर खिचड़ी तो मेरा प्रिय खाद्य है। उसपर कलम चलाने को बहुत शुक्रिया!
इस नए चिटठे के साथ चिटठा जगत में आपका स्वागत है । आशा है कि आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को मजबूती देंगे। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ है।
जवाब देंहटाएंsarkar bhee khichadi hoti hai
जवाब देंहटाएंnarayan narayan
welcome!!!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रवाह से युक्त लेखन स्वागत है आपका चिठ्ठा जगत में. समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दे
जवाब देंहटाएंचिट्ठाजगत में आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. दूसरों को राह दिखाते रहिये. आगे बढ़ते रहिये, अपने साथ-साथ औरों को भी आगे बढाते रहिये. शुभकामनाएं.
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साथ ही आप मेरे ब्लोग्स पर सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.