बुधवार, 3 सितंबर 2008

तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया...

बखुदा जी चाहता है कि ऊपर वाले का मुँह चूम लूं कि उसने इस धरती के आलीशान टुकड़े पर ऐसे-ऐसे नायाब मुज्जसिमें गढ़ कर भेजे हैं कि बस देखते ही रह जाना पड़ता है। लगता है कि किसी समर-वैकेशन में बड़े इत्मिनान के साथ उन्हे गढ़ते वक्त उनकी किस्मत किसी कमाल की कलम से लिख डाली हो। इसी वजह से बरबस ज़ुबॉं पर यह लाइन आ जाती है, "तारीफ करूं उसकी जिसने उन्हें बनाया।"

अपने जैसों की बात करना तो भय्या हरियाली छोड़ रेगिस्तान का कठिन रास्ता नापना जैसा है। खेत काटने जैसी जल्दी में हड़बड़ी के वक्त जैसे-तैसे टेढ़ा-मेढ़ा गढ़ डाला होगा और तकदीर लिखते-लिखते कलम में स्याही खतम होगई होगी। रोना यही है कि आखिर हमने क्या बिगाड़ा था। जो बेचते थे दवा--दिल मेरे साथ, वे दुकान अपनी बढ़ा चले। एक चैनल पर देखकर ताज्जुब हुआ कि एक विदेशी ने ऋगवेद में दिये गये विवरण के अनुसार उन ऐतिहासिक स्थलों की खोज में ईरान और इराक की ख़ाक छान डाली। उसे हासिल भी बहुत कुछ हुआ जिससे दुनिया के सामने हकीकत आयी। पर अपने माननीय द्वारिकाधीशों को दूर को मारिये गोली निकट की वस्तु भी निहारने के लिये उनके चश्मे का पावर धोखा दे जाता है। फॉर एक्जाम्पिल जहाँ सहारा है, वहीं बेसहारों का विशाल समूह देखकर सोचने पर मज़बूर होना पड़ता है कि सचमुच यही है सच्चे समाजवादी समाज का बेहतरीन नमूना। जरा हमसफर बनकर मेरे साथ लखनऊ से बाराबंकी तक लाल लंगोटावाले लालू पहलवान की रेलमपेल रेल में सफर करने की ज़हमत गँवारा करें। गोमती के गुस्से को पीते हुए जैसे आगे बढ़ेगे कि द्वारिकापुरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का दिलकश नज़ारा सामने देखते ही बनता है। माया उनकी समझ में नहीं आती है। किन्तु-परन्तु सहारे में बेसहारों की रोती-बिलखती फटेहाल झुग्गी-झोपड़ियों को देखकर दौड़ती पसीन्जर गाड़ी की खटमलयुक्त सीट पर बैठे-बैठे सोचता हूँ कि रेलवे लाइन के किनारे इन अनगिनत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले सुदामाओ पर पास रहने वाले द्वारिकाधीशों को जरा भी तरस नहीं आया कि कम से कम उनके सिर पर एक-एक पक्की छत तो मुहैय्या करा देते। फिर क्यों नहीं उन्हें मरहूम साहिर साहब का वही शेर याद करने को दिल चाहता है— ‘कि इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।’ यह सबको मालुम है कि ये वे बदनसीब मजूर-दरहे हैं जिनका काम द्वारिकापुरी को सजाने-सँवारने के बाद दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जाएगा। फिर भी इन्हें और इनकी बिना छत झुग्गी- झोपड़ियों को देखकर यूँ जान पड़ता है जैसे चाँद में लगे दाग़ य़ा जैसे सूर्य में लगा ग्रहण। यह तो बाइसकोप का ग़ैरमामूली सीन है बाढ़ में बग़ावत का बिगुल बजाती गोमती मैय्या के पार रेलवे लाइन के किनारे का। यहाँ तो तमाम जाने-अनजाने द्वारिकाधीशो के रंगमहलों व पंचसितारों के आस-पास लकुट-कमरिया ओढ़े टपकती छतों के नीचे पड़े अनगिनत सुदामाओ की झुग्गी-झोपड़ियों का सिनेमास्कोपिक बाइसकोप देखना आम बात है। पहले वाला ज़माना अब रहा कहाँ कि गरीब और फटेहाल सुदामा का नाम सुनते ही बिना किसी प्रोटोकाल की परवाह किये खुद नंगे पाँव गले मिलने चल देते थे और उनकी हालत पर तरस खाकर उन्हें एक दो नहीं बल्कि तीनों लोक देने को उतावले हो जाया करते थे। आज तो द्वारिकाधीशों का स्वार्थ इतना सिर पर चढ़ कर बोल रहा है कि लोक का एक छोटा सा टुकड़ा और टुकड़े पर एक परमानेन्ट छत मुहैय्या कराना गँवारा नहीं किया। यह तो सब जानते हैं कि उन फटीचर सुदामाओं के यह अरमान कभी नही रहे कि उनका एक बँगला बने न्यारा। उस वक्त भी तो फटीचर ‘सुदामा’ की दिली ख्वाहिश बस सिर छुपाने के लिये एक छोटी सी छत और दो जून की बासी ही सही एक टुकड़ा रोटी ही चाहिये थी। आधुनिक द्वारिकाधीशों द्वारा मनमाने ढंग से उगाये गये कंकरीट के जंगलों के बीच गोमती की सुनामी लहरों से अनचाहे खेल खेलते हुए अपनी कूड़े-कबाड़ों से पटी झोपड़ियों पर किस्मत की मार समझते हुए फटेहाली का रोना मानवाधिकार के ठेकेदारों से रोना भी तो बेहतर नहीं समझते हैं क्योकि डर है कि कहीं उन्हे आज के द्वारिकाधीशों का कोपभाजन न बनना पड़े और बची-खुची रोटी के लाले न पड़ जांये। मेरे ख्याल में राजधानी के द्वारिका धीशों को खुद कल्याणकारी राज्य के बोधिवृक्ष के नीचे विचार करना चाहिये। इसीलिये जी चाहता है कहने को ‘तारीफ करूँ उसकी जिसने उन्हें बनाया।‘ उन्हे जिन्हें इतने विशाल देश की गाड़ी को विकास की लाइन पर दौड़ाने के लिये ड्राइबरी की नौकरी दी गयी है। सच पूछिए तो भाईजान मेरी नज़र में तो डरेबरी की नौकरी आई..एस. और आई.पी.एस. वगैरह से कहीं बड़ी है। जरा सी सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना हुयी। इसीलिये अंग्रेजों ने शायद रिटायर करने की एक उम्र निर्धारित की थी। पर उस ज़माने में शायद एलक्शनवाली एनर्जी और लम्बी उम्र अता करनेवाली मशीन नहीं इजाद की गयी रही होगी। अब कितने भी इनरजेटिक और देशसेवा करने की तमन्ना संजोये यूथ-फेस्टिवल वाले उस ड्राइविंग लाइसेन्स के लिये हाथ-पैर मारते रहें लेकिन कोई फायदा होते नहीं दिखता। आजके द्वारिकाधीशों को अमरत्व की घुट्टी जो उनके आला सरदारों ने पिला दी है इसलिये उनके नजदीक रिटायरमेन्ट का भूत फटक नहीं सकता है। किसी ने ठीक ही कहा है,— न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन जब प्यार करे कोई देखे केवल मन।’ भाई, उन्हें इस मुल्क से बेपनाह प्यार जो है। इसलिए उनके रिटायरमेन्ट का सवाल ही नहीं उठता है।

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