बुधवार, 3 सितंबर 2008

असली-नकली का खेला...

अमां, मुझे अपने अपने बचपन की वह बात खूब अभी तक याद है। जब मैं किसी इम्‍तहान में बगल वाले की कापी को उचक उचक कर देख कर अपनी कापी पर लिख रहा था। उस वक्‍त मूंछे तो नहीं हल्‍की हल्‍की रेख जमी थी। मारे जोश के जब इम्तहान देकर बाहर निकला तो उन रेखों पर ही ताव से हाथ फेरते हुए साथियों को बताता रहा कि मेरे सारे सवाल सेन्‍ट परसेन्‍ट सही होंगे, क्‍योंकि मैंने बगल वाले से अक्षरश: नकल कर डाली है। उधर बगल वाला परीक्षार्थी मुंह लटकाए हुए लोगों से बता रहा था कि उसके सभी सवाल गलत हो गए। मेरी झूठी खुशी पर तंज कसते हुए किसी पतली कमर मौलवी साहब ने फरमाया, ‘हजरत नकल में भी अकल की जरूरत होती है।’ तब मुझे भी होश आया लेकिन तब होता क्‍या है ‘जब चिडि़यां चुग गयी खेत।’

इन दिनों अपने मुल्‍क में भी नकल की सुनामी लहर उठ रही है। रोज अखबारनवीसों को इस नकल के मुद्दे पर कलम तोड़ कर स्‍याही पी लेनी पड़ती है। सुनते हैं आज कल कोई जगह नहीं बची है जहां जाली नोटों की बौछारे न पड़ रही हों। चाहे डुमरियागंज हो या डूंगरगढ़। सब जगह जाली नोटों की बरसात हो रही है। यह सब देखकर पेशोपेश में पड़ गया हूं कि हाल में संसद के स्‍वर्णपटल पर नोटों की गड्डियां जो दिखाई गयीं, खुदा जाने वे असली थी या नकली? क्‍योकि पहले हम लोग जब मुहल्‍ले में ड्रामा खेलते थे और उसमें नोटों की गड्डियां दिखाने का सीन आता था तो हमारे डायरेक्‍टर साहब नीचे ऊपर असली दो चार नोट रखकर बीच में उसी साइज के कटे सादे कागज रख दिया करते थे। देखने वाले समझते थे कि सब असली नोटों की गड्डियां हैं। अब बहरहाल देस में नोटों की कमी है नहीं पर हैरत इस बात पर जरूर होती है कि बैंक जो नोटों के माहिर समझे जाते हैं और ‘विश्‍वास’ जिनका मूलमंत्र होता है वे इन जाली नोटों के जाल में उपभोक्‍ता को कहां और कैसे फंसाने पर उतारू हो गये?

अब अपने दिलो दिमाग के दरवाजे खोलकर झांकने की झकझोर कोशिश करता हूं कि नकली की नकेल नोटों की ही क्‍यों पकड़ी जा रही है? असली नकली का किस्‍सा तो बहुत पुराना है। नकली शिखण्‍डी को ही सामने करके बेचारे बाल ब्रह्मचारी भीष्‍म पितामह का बन्‍टाधार कर दिया गया। तारीख के पन्‍ने पलटने पर मालुम हुआ कि ‘झांसी की रानी’ के किसी गोलन्‍दाज ने गोले के नाम पर नकली गोलों से फिरंगी फौज पर प्रहार किया था। भय्या, क्‍या नकली है और क्‍या असली है? इस चक्‍कर में घनचक्‍कर बनकर माथा खपाना बेकार है। कुछ दिन लोग बोफोर्स और फौजी शहीदों के कैफीन को नकली बताकर आपस में चोंचें लड़ाते रहे। अब यह बात अलग है कि आज शनि की साढ़े साती कागजी नोटों और सरकार से सरोकार रखने वाले बैंकों पर चढ़ बैठी है।

लेकिन मेरी समझ में किसी एक को दोष देना ठीक नहीं है। बड़े-बुजुर्गों ने खूब मन्‍थन करने के बाद कहा था कि जब अपना ही माल खोटा तो परखैया का क्‍या दोष? पहले अपने गिरेबान में मुंह डालकर झांकना चाहिए। सीने पर जरा आइसक्रीम रखकर सोचिए कि नकली नोटों के पीछे ही हाथ धोकर लोग क्‍यों पड़े हैं? कोई सस्‍ती सीबीआई और कोई मद्दी सीआईडी से जांच कराने के लिए गुटुरगूं कर रहा है। सोचने वाली बात है कि जब माननीयों के बीच असली-नकली का खेल चल रहा है तो कहां तक जांच की आंच गर्मी पहुंचाएगी?

अब तो मुझे लगता है कि खुद दुनिया बनाने वाला सोचता होगा कि कहीं उसके द्वारा रचे और धरती पर उतारे गये लोग असली रह भी गये हैं या नहीं? हो सकता है ‘ग्‍लोबल वार्मिंग’ की बदलती फिजां में किसी नकली रचनाकार ने नकली रचना भेजने का पोस्‍टआफिस खोल दिया हो। इन दिनों तो अपने कवि या लेखकों को कुछ ऐसी लाइलाज बीमारी ने धर-दबोचा है कि वे ग़ालिब, शेक्सपीयर और नीरज की पंक्तियों को अपने नाम से पढ़कर अच्‍छा खासा ईनाम, इकराम हासिल कर लेते हैं। अब तो भाईजान ऐसा जमाना आ गया है कि किसी पार्टी में रहते हुए और पार्टी के लिए समर्पित होने का दावा करने वालों के दावे को असली कहना मुश्किल है। भई कहना पड़ता है कि ‘अच्‍छों को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है।’ कौन अपने असली रूप में सरकार के भीतर फुफकार रहा है और कौन बाहर फुफकारने की एक्टिंग कर रहा है, बताना बहुत मुश्किल है। कौन सच्‍चे दिल से रामनाम जप रहा है और कौन नाम के लिए राम का नाम ले रहा, कहना नामुमकिन है। जब पुलिस की वर्दी में डकैत डकैती करके चले जाते हैं और रिपोर्ट लिखने में आनाकानी की जाती है तो भाई असलियत से रूबरू होना नामुमकिन है। सुनने में आता है कि आजकल इंजेक्‍शन लगा कर सब्जियों को खूब डेवलप कर दिया जा रहा है। दूध को असली कहकर सेहत बनाने की चाहत रखना निहायत मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है। लेकिन जानते समझते हुए किसी के पेट पर लात क्‍यों मारी जाए? हम कहां कहां सीबीआई और एन्‍टीकरप्‍शन को भिड़ाते रहेंगे? जब पुलिसिया फोर्स होते हुए भी आराम से गाड़ी या बसों में लोग छीन झपट कर चलते बनते हैं तो और कहने को रहा ही क्‍या है? और तो और जब नकली वायदे करके लोगों से विकास के नाम पर वोट बटोर लेते हैं तो इससे बढ़कर नकलीपन क्‍या हो सकता है?

असल में नकलीपन की ऐसी हवा चली है कि जड़ से नेस्‍तानाबूद करना खुद अल्‍लाह मियां के वश में नहीं रहा है। खुदा न खास्‍ता अगर वह दोनों जहां का महान ठेकेदार हमारी गली में आ टपके तो कुछ क्‍या परसेन्‍टेज लोग नकली कहकर सीबीआई के हवाले कर बैठेंगे। लेकिन बमुताबिक दादा हुजूर के सब वक्‍त वक्‍त की बात है। नकलीपन का लेवल कभी रिफाइन्‍ड और सरसों के तेल पर लगाया जाता है, कभी पार्टी के निहायत वफादार पर चस्‍पा करके बाहर का रास्‍ता दिखा दिया जाता है। आज कल मेडिकल स्‍टोर वाले नकली दवाओं के लिए अलग बदनाम हो रहे हैं। कभी कभी लोगों को भी शक होने लगता है कि वे असली माता-पिता की असली संतान हैं भी या नहीं?

बहरहाल मौजूदा हालात में तो नकली नोटों को देखना है कि वे आर्यो की तरह कहीं मध्‍य एशिया से तो नहीं आए? खैर जहां से जैसे भी और जिसके जरिए से भी इस स्‍वर्ग स्‍वरूपा धरती पर आये हों उनसे हमें या हमारे जैसे फटीचरों को क्‍या लेना देना। यहां तो नोट देखा नहीं कि लार टपक पड़ी। लार तो बड़े-बड़े दिग्‍गजों के टपक पड़ती है क्‍योंकि उनकी लोभी नजरों के सामने तो सब से बड़ा रुपय्या है। वे कहां हैं कहां हैं जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वे कहां हैं? क्‍या उनका शगल सिर्फ ‘डील’ की झील में डुबकी लगा कर पाउडर मलना है या कभी श्राइन बोर्ड, कभी रामसेतु और कभी राममंदिर की बाल की खाल निकालना है? उनका इस मामले में क्‍या विचार है जो फर्श पर रहकर अर्श पर पहुंचने का ख्‍वाब देख रहे हैं। इन सबके बावजूद उन्‍हें कहने को जी चाहता है कि पलट तेरा ध्‍यान किधर है? क्‍या हादसे हद से गुजर जाने के बाद उन्‍हें चन्‍द दिनों के लिए ख्‍याल आता है? ऐसे उदारवादी देश के उदारवादी कानून को बारम्‍बार नमन करने को जी चाहता है। क्‍यों नहीं ये बीमारियां दूसरे मुल्‍कों में फैल रही हैं। गुस्‍ताखी माफ की जाए, वही कहावत बार-बार कहकर दिल को तसल्‍ली देना चाहता हूं कि ‘हर शाख पे उल्‍लू बैठे हैं अन्‍जामें गुलिस्‍तां क्‍या होगा?’

इसलिए सिर्फ नकली नोटों को ही नहीं, नकली वोटों के सहारे सुनहरी कुर्सी पर टंगड़ी पसार कर बैठे लोगों की तरफ भी ध्‍यान देना चाहिए।


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