मंगलवार, 17 अगस्त 2010

कलमकारों की माया होली में

अमां कमाल है। लोगो की कलम कैसे कैसे करवट बदलती है?लिखने वाले कलम तोड़कर स्याही गटक जाते हैं। वह तो कहिए भला हो उनका जिन्होंने स्याही को सालिड बनाकर कलम में भर दिया वरना सभी लेखक मिलकर बरसाने में गाना शुरू कर देते ‘मेरा गोरा रंग लै ले मुझे श्याम रंग दै दे।’फिर समां जब होली का हो तो क्या कहने। भंग की तंरग में बेसुरे भी सुर में रेंकते-रेंकते दुल्लती चलाने से बाज नहीं आते हैं। लत्ती की आग में अगर कोई भला अनभला मानुष आ ही गया तो अंग्रेजी के सॉरी को हिन्दी में और सारगर्भित बनाते हुए कह दिया जाता है,‘यारों बुरा न मानो होली है।’होली के रंग का हुड़दंग तो इस नाचीज ने उस दिन राज्य सरकार की नाक के नीचे बसे गोमती नगर से लेकर नैना देवी के नैनों के पास फैले भीमताल, गाजी मियां के बहराइच और दिल्ली है दिल हिन्दोस्तान में देखा। सी.बी.आई. वाले उछलते कूदते छापे का ठप्पा मारते हुए कहे जा रहे थे कि बुरा न मानो होली है। इस नाचीज को उनके रंग में सने हुए छापों से थोड़ी सी दहशत तो हुई मगर इस चमत्कारी युग के रंग का चमत्कार जब समझ में आया तो समझ कर तसल्ली बख्श हुआ कि इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। यह तो अपने बरसाने वाली लट्ठमार होली जैसी है।

बरसाने की लट्ठमार होली हमारी परम्परा का हिस्सा बनकर सुखद हो गयी है। फिर आज के होली में तो ऐसे-ऐसे चटख रंग देखने को मिलते हैं जो कुछ देर की हाय तौबा और कपड़े खराब हो जाने के डर को रंग उड़ाकर रंग को चमत्कारी बना देते हैं। शायद यहां भी होली के मौके पर ऐसा ही कोई रंग तैयार किया गया हो। तजुर्बे तो यही कहते हैं। होली में छापे नहीं पड़ेंगें,रंग से तरबतर नहीं होंगें और मुंह में कालिख नहीं पुतेगी तो कैसी होली? ऐसे मौके पर तो उन, धवल वस्त्रधारियों को न जाने कब से घोंटी जाने वाली भंग की तंरग में झूम-झूम कर गाना चाहिए ‘जय-जय शिवशंकर कांटा गड़े न कंकड़ प्याला तेरे नाम का पिया।’पियो खूब छक कर के पियो और शान से अगली होली तक जियो। जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां? फिर भाई मेरे, होली के दिन दिल मिल जाते हैं तो फिर उनके छापों रंगों और कालिख का बुरा क्या मानना? शायद ऐसी ही कुछ कभी बरसाने की लट्ठमार होली भी रही होगी।

बाद में धीरे-धीरे चुपके-चुपके उनकी लाठियों और गालियों को अपने हक में दुआ समझकर बरसाने वालों ने अपने अनोखे ढंग से होली मनाने का रिवाज समझ लिया होगा। इसलिए तो कहना पड़ता है कि लिखने वालों का बस नहीं चलता है वरना वह ऊपर वालों की भी वीडियो रिकार्डिंग दिखाकर कहते कि उसके पास दुनिया भर की मिल्कीयत क्यों हैं? कहां से आयी? वह बेचारा होली के दिन दिल मिलाने के लिये खाइके पान बनारस वाला अपनी सोने की पिचकारी से रंग फेंकता और लोग उस पर लट्ठ बरसाते।

बुरा न मानों होली है। होली में बुढ़वा भी जवानी के जोश में कुलांचे भरने लगता है फिर लेखक तो लेखक है। होली में तो वह छुट्टा सांड बन जाता है। तभी तो कभी कलम से गंगा को पतित पावनी लिखता है तो कभी लिखता है ‘राम तेरी गंगा मैली हो गयी।’अब होली की ठिठोली में कौन उनकी कलम को समझाये कि राम जी कहां से गंगा जी के बीच खींच लाए गये। अरे वह तो विष्णु के चरणों से निकली, ब्रह्मा के कमण्डल में रूकी और शंकर की जटा में समा गयी। हां थोड़ा बहुत सबूत दे सकते हैं तो श्रीमान भगीरथ। राम जी बेचारे को इस पचड़े में नाहक घसीटने की कोशिश की जा रही है। मगर होली है। किसको क्या समझाया जाए? यहां तो होली में बुढि़या भी भौजी बन जाती है। सब लट्ठमार होली में कलम के कलमकारों की माया है।

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