शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

बुजुर्ग बने सीनियर सिटीजन

माना कि जमाना जवानों का है। रानी मुखर्जी और विपाशा बसु का है। आर्केस्ट्रा और पॉप म्यूजिक का हैं। जमाना चाऊमिन और पिज्जा का है, पर मुझे तो अभी भी इतवारिया के मुंहफट घरवालों के हाथ का बाटी-चोखा बहुत पसन्द है। चोपई उस्ताद की नौटंकी आज भी बहुत याद आती है। सुरैया और मल्लिका-ए-तरन्नुम् नूरजहाँ के गाने आज भी कान में बजा करते हैं।
मैं जानता हूँ कि उगते सूरज को सब प्रणाम करने में विश्वास करते हैं। लेकिन डूबते सूरज की लालिमा में थोडी़ देर के लिए भूल जाने का मज़ा कुछ और ही होता हैं। जिसे नाजुक मिजाज़ कला के पारख़ी लोगो ने शामें अवध कहा है।
यह सारी बातें करने का मकसद सिर्फ उन नेग्लेक्टेड लोगों की दीन दशा पर गौर करना है जिन्हें खुश करने के लिए ‘सीनियर सीटिज़न’ यानी वरिष्ठ नागरिकता का तमग़ा पहनाया गया हैं। वैसे ही इस मुल्क में तमग़ो, पुरस्कारों और उपाधियों का अस्तित्व क्षणभंगुर होता हैं। उसके बाद तो बात पुरानी पड़ जाती है और आखिर में ऐसे फटेहाल लोगों को या तो कौड़ियों के भाव कबाड़ी को बेचना पड़ता है या आने वाली पीढ़ियों को उनके बाप-दादों की बहादुरी बख़ान करने के लिए सहेज़ कर रखना पड़ता है।
मैं उन लोगों की बात नहीं कर रहा हूँ जो सीनियर सिटीज़नों की सीरीज में शामिल होते हुए भी अच्छी खासी कमाई के रास्ते पर एक्टिव बने हुए हैं। मैं उन बेचारे निरीह सीनियर सीटीजनों की बात कर रहा हूँ जो सीनियर सिटीजन का सम्मान हासिल करने के बाद खुश तो बहुत हैं। पर उनके दिल रो रहे हैं। उनकी इवैलिड जिन्दगी को तब भी धक्‍के खाने को मि‍लते थे। आज भी वही धक्के मिलते हैं और उस पर से शोशा यह कि आप तो देश के सीनियर सिटीजन हैं। जवानों की भीड़ इस देश की घिसीपिटी संस्कृति के अनुसार चरण तो स्पर्श करती है लेकिन कुछ दूर चलकर फब्ती कसती है ‘न जाने कहां से बुढ्ढा कबाब में हड्डी बनने आ जाता है।’ मैं जानता हूँ कि इस बात को हमारे सत्ता और विपक्ष में बैठने वाले नहीं महसूस कर सकेंगें क्योंकि सीनियर सिटीजन की कैटेगरी में रहने के बावजूद भी जिन्हें वही सम्मान और आदर मिल रहा है। मंहगी कारों, अच्छे वेतन और सर्वोच्च ओहदों पर बैठे लोगों को क्या पता कि अभाव में जीने वाला एक सीनियर सिटीजन कैसे जीता है? नमूना हाजिर है एक तो इन्कमटैक्स की मार दूसरे बैंकों का सीनियर सिटीजनों के प्रति मुंह सिकोड़ रवैया। पहले ही न जाने की कुलच्छनी भाषा में मैनेजर साहब सुनाते हैं ‘भई माना कि सरकार ने आप को सीनियर सिटीजन के तमगे से नवाज़ा है मगर आप को मौत के किनारे से नहीं बचाया है। आप को मौत के किनारे से नहीं बचाया है। आप कब अल्लाह को प्यारे हो जायेंगें किसी को पता नहीं हैं। ऐसे में बैंक आप को बड़ा लोन देकर गलती नहीं कर सकता है। चाहे बेटे की शादी करें या बेटी की? ऐसे फटीचर बनने की जरूरत क्या थी? न पैदा करते बेटी-बेटा। हाय-हाय अपने सामन्तो दा जो पैंसठ पार करने के बाद भी काली कोलकाता वाली की कृपा से कम से कम मैनेजर साहब से ज्यादा एक्टिव दिखे। बेचारे प्रदेश से रिटायर हो चुके हैं। गारण्टर के साथ अचल सम्पति के ओरिजनल पेपर्स भी हाजिर करने को तैयार थे मगर नहीं हां में नहीं बदला। देखा आपने सीनियर सिटीजन होने का कमाल? अटल भैय्या या चन्द्रशेखर भैय्या वगैरह की बात ही अलग है। उन्हें लोन-वोन की जरूरत ही क्या होगी? अपने वित्तमत्रीं को शायद इन बुढ्ढे लोगो पर भरोसा नहीं हैं। अब रेल महान की बात ही कुछ जुदा है किराए में कुल तीस परसेन्ट की छूट यानी ऊंट के मुंह में जीरा। पहले लोग बुजर्गों को सिर-माथे चढ़ाते थे। मगर इस अपटूडेट जमाने के रेलवाले उन सीनियर सिटीजनों को सफर करने के लिये सेकेण्ड स्लीपर में धकेल देते है बशर्ते वह बूढा़ सीनियर सिटीजन धक्के खाते हुये रिजर्वेशन ले चुका हो क्योंकि कम से कम अपने शहर की आरक्षण खिड़की ने कोई जगह सीनियर सिटीजन और लेडीज के लिए अलग से व्यवस्था करने की जरूरत नही समझी है। अब देखिए जमाने का हाल कि जवान चले ए॰ सी॰ में और सीनियर सिटीजन का तमगा लटकाए माननीय लोग धक्का खाते हुए सेकेण्ड स्लीपर में। वाह रे देश महान्। जवाब नहीं तेरा। क्या सीनियर सिटीजन यानी वरिष्ठ नागरिकों को झूठी तसल्ली देकर मूर्ख बनाया है? मैं जानता हूँ मेरी बात को लोग मज़ाक समझ कर हसेंगें पर क्या उनका हंसना सही है? क्या इसी भारतीय संस्कृति का ढिंढोरा पीटा जाता है? क्या यही है न्याय और सदाचार हमारे बुजर्गों के प्रति? विशेष रूप से उन सांसद, विधायकों और मंत्रियों को सोचना चाहिए जो साठा के बाद भी पाठा महसूस करते हैं? घर बैठे उनके एक आदेश पर भारत को इण्डिया या हिन्दुस्तान में बदला जा सकता पर बुजुर्गो का ख्याल सिर्फ कागज पर...।

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