शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

महंगाई फैशन के आईने में

लोग कहते हैं कि महंगाई बहुत बढ़ गयी है। कहते होंगे – लोगों का काम है कहना। कुछ लोग यूं ही बात का बतगड़ बना लेते हैं। सब तो नही कहते हैं। क्योंकि सब कहते तो देश में न जाने क्या हो जाता। भारी आफत आ जाती। दूसरी तरह की सुनामी लहरों का कहर बरपा हो जाता। मगर कुछ लोग कहते होंगे जिनका समाज में कोई वजूद नहीं है।

मैंने भी गोकुल चाय वाले की दुकान पर सुना है। तालिब भाई के होटल पर सुना है। जिन्हें कोई काम धंधा नही है उन्हीं से सुना है। उनमे कोई रिटायर्ड रेलवे वाला होता है, कोई सिलाई का काम करता है, कोई ट्यूशन करता है या ज्यादा से ज्यादा कोई किसी दफ्तर में दफ्तरी का काम करता है। जिनमें शाहिद मियां, मैकू मिस्त्री, कुवंर बहादुर या ढोढ़ेराम होते है।

मुझे इन बेचारों पर तरस आती है। दबी जुब़ान से उठा इन्कलाब भी कोई इन्कलाब होता है। अरे वह तो ‘महंगाई बनी फैशन’ के सैलाब में न जाने कहां गुम होकर रह जायेगा। है इनकी शिकायत में कोई दम? हैं इनकी आवाज़ में कोई बुलन्दी? कहीं है इनका वजूद? सुन लिया होगा इन्होनें महंगाई की चर्चा ऐसे लोगों से जो खिसियाये हुए होगें किन्हीं वजहों से या जो सरकार गिराने के लिये कोई मुद्दा तलाश रहे होगें। मैं भी समझता हूं कि वाकई में यह पूरे देश का मुद्दा होता तो अब तक न जाने क्या हो जाता।

हमारे प्रिय जनप्रतिनिधि सड़को पर उतर कर एक-एक दुकान का जायजा लेते कि कहां लोग महंगी चीजे खरीदने और बेचने के लिये मजबूर है? कहीं लोग भूखे सो जाने को विवश हो रहे हैं? आखिर वह हमारे प्रतिनिधि हैं-शाहिद, मैकू, कुंवर बहादुर और ढोढ़े के प्रतिनिधि हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि जनता कहलाने वाली इन लोगों ने अपना कीमती वोट देकर चुना है। वे ऐसे बेवफा नहीं हैं कि एहसान भूल जायें। मगर वे बेचारे करें भी तो क्या करें? महंगाई कहीं दिखती भी तो नहीं है-लखनऊ, भोपाल, पटना, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली से गांधीनगर तक तो उन्होनें छान मारा पर कहीं दिखती नहीं हैं और न तो उसे कोई दिखाने के लिए मिलकर शोर गुल मचा रहा है। यह सब अहमक हैं -

किसी गलतफहमी के शिकार हैं –जरूर किसी ने गुमराह किया है –इनका कोई स्टैण्डर्ड नहीं है न। कोई काम धंधा या बातचीत का विषय नहीं सूझा तो लेकर बैठ गये महंगाई.......महंगाई। अरे अक्ल के दुश्मनों अगर चर्चा ही करना है तो करते ‘सास भी कभी बहू थी’ के बारे में। शहर में बन रही किसी आलीशान महलनुमा इमारत के बारे में या किसी मंदिर-मस्जिद के बारे में। यह भी कोई मुद्दा है महंगाई? कहां दिखती है महंगाई?

-यही न कि थोड़ा टैक्स बढ़ गया है, -यही न डीजल पेट्रोल और रसोई गैस थोड़ी महंगी हो गयी है? –यही न स्कूलों में थोड़ी फीस बढ़ गयी है? यही न कि किरासन के कुओं में सुनामी का थोड़ा असर आया है?

-यही न कि बैकों में ब्याज घट गयी है? अरे मूर्खों पैसा खर्च करने के लिये होता है। रखने के लिये नहीं। चाटे-पोछे सब बराबर। फिर जब कुछ बचेगा ही नहीं तो बैंक में रखोगे क्या? दुख मुसीबत या शादी-ब्याह के लिए सरकार है न? सांसद और विधायक कोटे की राशि किस लिये है? विकास के लिये न। यह भी तो विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत आता है।

अच्छा माना कि महंगाई बढ़ गयी है तो इसको इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए कि घटी क्या चीज है?

-क्राइम बढ़ा है। फैशन बढ़ा है। आबादी बढ़ी है। लोगों के रहन सहन का दर्जा बढ़ा है। महंगे सामान खरीदने की आदतें बढ़ी है। फाइलें बढ़ी हैं। कम्प्यूटर बढ़े है। मोबाइल और टेलीफोन बढ़े है। गांव की जगह शहर बढ़े है।

तो भाई अगर महंगाई को बढ़ने का सुअवसर दिया गया तो बेजा क्या है? सीधी सी बात है कि एक लकीर के बगल में दूसरी बड़ी लकीर खींचने पर पहली लकीर अपने आप छोटी दिखेगी- अब अगर पहली लकीर की तरह किसी मैकू, शाहिद, कुंवर बहादुर और ढोढ़े का कद छोटा होता जा रहा है तो कोई क्या करें? भले वह समय से पहले वजूद खो बैठे। कोई कर ही क्या सकता है?

पूरे मुल्क में ऐसे कितने लोग हैं? इन कुछ एक लोगों के लिए महंगाई की फलती फूलती जिन्दगी में रोक लगा देना बहुत बेइन्साफी होगी- बहुत बेइन्साफी। इसलिए शाहिद, मैकू, कुवँर बहादुर और ढोढ़े महंगाई की बतकही अब किया तो किया मगर आगे मत करना। यह सब पुराने जमाने की बात हो गयी है। देखते हो कहीं कोई तुम लोगों की बातों में हां में हां मिलाने वाला दिख रहा है? समझो, यह तरक्की का जमाना हैं। मंगल और शनि पर पहुँचने की तैयारी है। मंहगाई का रोना लेकर बैठोगे तो तुम्हारे ही देश वाले तुम पर हँसेगे, फब्तियां कसेंगें। कहेंगें कि कैसे मोस्ट बैकवर्ड लोग हैं जो मंहगाई को फैशन के आइने में देखना नहीं जानते।

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