मंगलवार, 17 अगस्त 2010

स्वयंवर होना चाहिए।

भाई सुना है, पढा़ है कि पुराने जमाने में स्वयंवर का आयोजन किया जाता था जिसमें कन्याएं बन-ठन कर आए राजे-महाराजाओं का बड़े ध्यान से जायजा लिया करती थीं और जो पसंद आता था, उसे जयमाल पहना कर अपना जीवन साथी बना लिया करती थीं। जैसे-जैसे दिन बीतते गए और शोरे पुस्ती बढ़ती गई, लोग जबरन अपने गले में जयमाल डलवाने के लिए अपनी शक्ति का साइनबोर्ड टांगे हुए स्वयंवर में तशरीफ ले जाते थे। पृथ्वीराज चौहान और संयुक्ता का स्वयंवर कुछ इसी तरह का हुआ था। फिर आजकल तो अगवा करके धीरे से कोर्ट मैरिज करने की परम्परा बडी़ तेजी से दौड़ रही है। अब मुल्क में देखा जा रहा है कि ‘भारत रत्न’ सम्मान के स्वयंवर में रोज एक न एक अपना पूरा शिज़रा लिए हुए बन-ठनकर हाजिरी लगा रहें हैं। कुछ तो इस तलाश में हैं कि स्वयंवर में घुसकर संयुक्ता रूपी ‘भारत रत्न’ सुंदरी को ले उड़ें। ताज्जुब तो भाई यह हो रहा है कि जुमा-जुमा सात दिनों के लिए बने राजा भी पीछे नहीं रहना चाहते हैं। वैसे अपने को तो उसे हासिल करना नामुमकिन है। क्योंकि न तो अपने पीछे कोई चमचा है, जो अपना नाम आगे बढा़ए और न सपोर्ट करके उस स्वयंवर में भेजने वाला हैं। अब मुश्किल यह कि ‘भारत रत्न’ एक है और उसको चाहने वाले दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में तीर चलाने वाले एक दूसरे से अपने को बढ़ चढ़कर मान रहें हैं। अमां एक दिन वह था जब बड़े-बडे़ दिग्गज समाजसेवक और फांसी के फंदो को खुशी-खुशी अपने गले में डालने वाले कभी ख्वाब़ में ऐसा कुछ नहीं सोचते थे। ‘भारत रत्न’ की ही बात नहीं हैं बल्कि छोटे-मोटे इनाम इकराम से नवाजे जाने की चाहत रखने वाले भी एड़ी से चोटी तक का जोर लगा डालते हैं। उनसे ज्यादा मुंह से मुंह जोड़कर रहने वाले उनके इनाम पाने के लिए रायपुर से लेकर रायसीना रोड तक अपनी सारी ताकत झोंकने के लिए तैयार खड़े है। बस नहीं चल रहा हैं वरना पृथ्वीराज चौहान की तरह ‘भारत रत्न’ को जबरदस्ती अपनी गाड़ी में किडनैप करके भाग निकलते। भाई, जिसकी लाठी उसकी भैंस का जमाना है। कम से कम देश की सर्वोत्तम सुन्दरी ‘भारत रत्न’ की भी मर्जी का ख्याल करना चाहिए। क्या आजकल ऊंची कुर्सी पर बैठकर देशसेवा का नाटक करने वालों का मकसद यही होता है?

हमें तो बताया गया है कि निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वालों सें मुल्क खुश रहता है और उनके लिए सर्वोच्च सम्मान यही होता है कि लोग उन्हें याद करते हुए उनके अधूरे कार्यो को पूरा करें। य़ह तो वही हुआ कि बहती गंगा में जब जिसको मौका मिलता, हाथ धो ले। मेरे ख्याल से वही हाथ धोने के लिए इतिहास में पहली बार इतनी मारामारी हो रही है। जम्हूरियत का जमाना है किसको कौन रोक सकता है? मुझे तो शक हो रहा है कि कही लोग यह न कह बैठें कि वोट पड़ना चाहिए। लोकतंत्र में जनता के बहुमत की सब कद्र करते हैं। यह बहुमत कैसे किस तरकीब से आता है, सब जानते हैं। मेरा अपना ख्याल है कि इन सारे इनामों को कुछ दिनों के लिए मुलतवी कर देना ही बेहतर होगा। न रहे बांस न बजे बांसुरी। इनाम देकर खरीददारी का यह बाजार बंद होना चाहिए क्योंकि आगे चलकर कितनों को अपने गोल्ड मेडल कबाड़ी के हाथों बेचते हुए देखा है। बड़े सम्मान से नवाजे गए उस्ताद बिसमिल्लाह खान के आखरी वक्त को सबने खूब देखा है। इसी प्रकार न जाने ऐसे कितने देश के सपूत हैं जिनको कोई सम्मान नहीं मिला लेकिन वे सम्मानों से ऊपर हैं। इसी प्रकार वे लोग भी सम्मान पा गए जो किसी भी तरह से उसके हकदार नहीं थे। हालांकि लोग सब समझते हैं। अच्छा ही हुआ जो इस बार किसी को भारत रत्न नहीं मिला लेकिन इतने भर से इस सम्मान के लिए भीड़ कम न होगी। अगले साल फिर दावेदार सामने आएंगे। ऐसा ही होता रहा तो इस सर्वोच्च सम्मान की गरिमा का क्या होगा? यह तो मुल्क के मुस्तकबिल के अलम्बरदार ही जाने। दिल करता है कि कोई दिल अजीज़ मिले तो उससे कह दूं कि यार मुझमें क्या कमी है।

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