शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

कहैं कबीर सुनो भाई साधो...

आये भी वह गये भी खत्म फ़साना हो गया। पार्टी वालों की बल्ले-बल्ले रही। उधर नेता जी ने एक काम जरुर शानदार या बेमिसाल किया कि कबीर बाबा को समाजवादी की सदस्यता दे डाली। अब सुना जा रहा है कि बीनी बीनी रे झीनी चदरिया गा गा कर नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे घुमक्कड़ कबीर बाबा अपने राजनीतीकरण पर काफी परेशान दिख रहें हैं। नेता जी के जाने के बाद बिजली बाई की नौटंकी के उजडे़ स्टेज के पास उनसे अचानक मुलाकात हो गयी। बधाई देने के बाद उनसे प्रतिक्रिया जाननी चाही तो कबीर बाबा ने कहा कि यह तो नेता जी की महानता है जो मेरे जैसे अदना से इंसान की झोली में समाजवादी सदस्यता डाल दी। साहेब मेरी तो छीछालेदर हो रही है। अब देखो न अपने तोगड़िया और कटियार है जो मेरे राम भक्ति पर मुग्ध हो कर मुझे अपने दल की सदस्यता प्रदान कर के इस कबीर को अपने ढ़ंग से राजनीति का मुखौटा पहनाना चाहते है। उधर महामाया जी मुझे मनुवादी विचारधारा का घोर-विरोधी समझ कर अपने पालतू गजराज पर बैठाकर नगर भ्रमण का अवसर देने को उत्सुक है। अब आप का कबीर किधर जाए कुछ समझ में नहीं आ रहा है। असल में बात यह है कि कबीर को किसी ने पहचाना ही नहीं। याद है न जब तक मैं जीवित रहा किसी ने घास नहीं डाली। किसी ने पगला कहा किसी ने दीवाना बताया। किसी ने हिन्दू बताया तो किसी ने पहचाना ही नहीं। मैं तो समाजवाद की एबीसी तक नहीं जानता हूँ क्योंकि मेरे जमाने में यह सब लफड़ा था ही नहीं। बस इतना जानता था कि सब एक राम या ख़ुदा के बंदे हैं बहरहाल यह तो दुनिया की दस्तूर है कि मरने के बाद सब की तारीफ में कसीदे पढ़े जाते है। उसी दिन मगर में बैठे-बैठे पढ़ रहा था कुछ खाकी नेकर सफेद कमीज और काली टोपी वाले इंदिरा जी की जम कर तारीफ कर रहे थे। मगर जब वही तारीफ़ आडवाणी भाई ने मरहूम जिन्ना साहब के लिये किया तो यही लोग उन्हे बुरा भला कहने से नही चूके। कबीर बाबा को मै बड़े ध्यान से सुन रहा था। कबीर अचानक हंसे और कहने लगे कि यहां तो ‘एडवान्स बर्थ डे’ मनाने का चलन हो गया है उसी तरह जैसे मरने के पहले लोग बाग अपनी समाधि बनवाने लगे हैं, कब्र खुदवाने लगते है और अपनी मूर्ति लगवा कर एडवान्स में अपनी तमन्नायें पूरी कर लेते हैं।

खैर जो कुछ भी हुआ या हो रहा है सब ठीक है। अपना-अपना स्वास्थ है। कल भी कबीर को मानने वालों ने अपने को दास हैं। नेता जी के आने के पूर्व भी ये बेचारे दास गर्मी में झुलस रहे थे।

अंधेरे में खंजड़ी बजा-बजा कर दिल बहला रहे थे और उनके चले जाने के बाद भी शायद फिर उसी अंधेरे में रामनाम लेते हुए जीने की कोशिश करेंगे। अरे यह भी कोई समाजवाद है कि उनके आने पर बिजुरिया ससुरी खूब लंहगा फटकार-फटकार कर कबीर के निर्गुन पर डांस कर रही थी और उनके जाने के बाद सब टांय-टांय फिस्स। कबीर को खुश किया तो क्या किया अरे सब को खुश करने का जतन किया होता तो कबीर को समाजवाद की बात समझ में आती। अरे कबीर तो पहले भी बुतपरस्ती और दिखावे के खिलाफ़ रहा, आज भी हैं। क्योंकि वह देख चुका है कि लेनिन, सद्दाम, गाँधी, दीनदयाल उपाध्याय और अम्बेडकर की मूर्तियों का क्या अंजाम हो रहा है। उसे तो डर है कि कहीं उसके निर्गुन को लोग कल नकार न दें। अब अगर मौजूदा वक्त में कबीर के नाम से उनके वोंटों की झोली भर जाए तो बेचारा कबीर कर ही क्या सकता है क्योंकि आज उसका वजूद है कहां? वोटों की झोली और मांगी मुराद पूरी हो जाने के बाद कौन किसको पूछता है? रही बिजुरिया की बात तो वह भी बेचारी करे तो क्या करे? दास आखिर दास है।

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