शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

संजीवनी को ढूंढ़ने की जरुरत

उस दिन मेरे सामने था एक सभागार की चहार दीवारियों में सिमटा-सिमटा एक ‘जनक्षेत्र’। वही जनक्षेत्र जो शायद इन दीवारों से बाहर निकल कर शहर राज्य और राष्ट्र की भारी भरकम आबादी में तब्दील हो जाता है और मैं उसकी एक इकाई मात्र रह जाता हूं जो कभी विद्रोहावस्था में सुनामी लहरों की तरह कहर बरपा कर सकता है।

मैं कई बार यह अल्फाज़ गुरूओं पीर पैगम्बरों और देश के जाने पहचाने नेताओं से भी सुनता रहता हूं। फिर एक सवाल उठता है ‘दिले नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द क़ी दवा क्या है?’ कभी-कभी यह भी ख्याल आता है कि शायद दर्द का हद से गुजरना ही दवा हो जाए।

उस नीर भरी दुख की बदली में मेरी दृष्टि अचानक उस मंच पर लगे बैनर और उसके दोनों सिरों पर टंगी दीवार घडी़ की सुइयों पर अटक गयी। ‘जनक्षेत्र’ वाली इबारत के ठीक ऊपर की घडी की सुइयां टिकटिक करती हुयी आगे बढ़ती जा रही थी। यानी जनक्षेत्र वक्त के साथ हमेशा फैलता बढ़ता रहा है। आदिम काल से जनक्षेत्र के विस्तार की प्रक्रिया सदैव चलती रही है। दुसरे सिरे पर जहां पीर जग की खिला था उस पर टंगी घड़ी जहां की तहां रुकी पड़ी थी जो शायद इसी तरह ‘पीर जग की’ पर मंथन करते-करते जनक्षेत्र रुक सा गया है। कभी कुदरत के नाम पर तो कभी अपनी किस्मत का रोना रोकर। कवि और कविता ने व्यथा को व्यथित होकर संजोया फिर अपने शब्दों में पिरोकर जनक्षेत्र को सुनाया ‘कल्पना में कसकती वेदना है, अश्रु में जीता सिसकता गान है। शून्य आहों में सुरीले छन्द हैं।’ बात यहां पर आकर जैसे हमें थप्पड़ मारती है कि उन आहों को जो जन की पीर से निकलती है सुनकर भी उस रूकी हुयी घड़ी की तरह शून्य में खोये हुए हैं। कवि पीर जग की में कितनी वेदना के साथ कहता है-

‘अन्तरमन में पीर बहुत है आंखों में छायी नीर बहुत है उर में उठी वेदना कितनी क्या इसकी पहचान न होगी'?

बात सही है कि इस वेदना की पहचान कब होगी? कहां होगी? और कौन करेगा?

समझ में नहीं आता है कि जनक्षेत्र की परिधि में फैले आदमियों के जंगल में कब सच्ची व्यथा सुलगेगी? क्या ‘पीर’ सिर्फ किसी सुसज्जित कमरे में चाय की चुस्कियों के साथ सुनने और वाह-वाह करने के लिए होती है? सामन्ती मानसिकता और अदबी अंहवाद के दरवाजे खिड़कियों को खोलकर जरा बाहर निकल कर उस संजीवनी को ढूंढ़ने की भी जरूरत है जिससे पीर जग की दूर हो सके। उन सुनामी लहरों से उठी पीड़ा और गरीबों मजलूमों के दर्द को दिल से समझे बिना कवि की रचना का क्या फायदा होगा?

आश्चर्य की बात है कि जनक्षेत्र की एक इकाई (पूर्व प्रधानमंत्री) की सामयिक या असमायिक मृत्यु पर राष्ट्र झंडा झुकाकर शोक व्यक्त करता है लेकिन वही जनक्षेत्र जब खुद मौत की चादर ओढ़े होता है तो कफन के लिए सिर्फ इमदाद मांगने के राष्ट्र कहलाने वाला विशाल जनक्षेत्र (जनसमूह) झंडा झुकाकर आखिरी सलाम कहना गंवारा नहीं करता है। क्या यही है सच्चा एहसास जग की पीर के लिये? वास्तव में कवि या कथाकार को सुनकर लोग अपनी पीड़ा से ज्यादा बेचैन देखे जाते हैं लेकिन पर पीड़ा से नहीं। कवि ने कविता के माध्यम से पीर जग की का एक्सरे फोटो दिखाया लेकिन हमने सिर्फ पल भर के लिए रोनी मुद्रा बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर डाली। मैं भी उनमें से एक हूं जो भाग्य का खेल समझ कर स्तब्ध रह जाता हूं। लेकिन अपने अजीज़ कवि की बेबाकी से कुछ जरूर सीखने की ललक रखता हूं। मुझे न जाने क्यों कवि रामचन्द्र कौल ‘अनाम’ की ये पंक्तियां हमेशा सालती रहती हैं -

...और कितने ऐसे भी है
जिनके पैर हैं, बदन हैं
और सर भी है
लेकिन उनके सर में कुछ भी नहीं हैं
यहीं नहीं बहुतेरे ऐसे भी हैं
जिनके सब कुछ है
पर उनके चेहरे नहीं हैं।

और आज इन बिना चेहरे वालों की संख्या सबसे अधिक है। इन बिना चेहरों की भीड़ में जब कोई चेहरे वाला दिखाई पड़ जाता है तो उसे जल्दी से जल्दी इस भीड़ से निकल भागना पड़ता है।

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