शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक हवेली सूनी-सूनी सी...

जी, यह है मार्टिन बर्न के जमाने की ऐतिहासिक इमारत। है तो बहुत पुरानी मगर उसकी खीसें काढ़ती एक-एक ईंट शहर को जगमगाने का दावा कर रही हैं। मार्टिन बर्न तो शायद अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं। उनके जमाने को मधुर स्मृति भी खो चुकी है पर उनके वक्त की यह बे पेवन्द बिल्डिंग शहरवालों की जान ले रही है। सुना है आजकल यह ‘पाकीज़ा’ किसी बिगड़ैल ठाकुर साहब की रखैल बनी हुयी है। इसलिए इन दिनों शहर वाले इसे ठाकुर की हवेली कहने लगे हैं। जमींदारी और ताल्लुकेदारी छिन जाने के बाद जैसे उनकी हालत भीतर से खस्ताहाल हो गयी है।

उसी तरह विरासत में मिली किसी जमाने की यह बिल्डिंग धीरे-धीरे खंडहर में तब्दील होती जा रही है। फाइलों पर चमगादड़ बीट करते हैं। दीमकों का अन्दाज़ ऐसा निराला है किसी नूर मुहम्मद का नाम सिर्फ मुहम्मद रह गया है और कोई शर्मा, वर्मा बन चुका है। मुझे उस दिन हैरत हो गयी जब सरजू पंडित अपना शिजरा ढूंढने के चक्कर में गश खा कर गिर पड़ा। टुट्ही कुर्सी और चरमराती मेज को ढकेल कर इमारत में टांग पसारे बैठे लक्ष्मीभक्त बाबू नुमा परोपकारी जीवों ने उसे उठाने के लिए एक सप्ताह पुराने पानी के छीटें मारना शुरू किया तो अपने आसन पर स्वशासन करते किसी खपरचिट्ठू बाबू ने मुस्कराते हुए कहा कि अमां रिकार्ड तो दीमक चाट गये। कब इन्हें रोशनी से नवाज़ा गया यह तो कब्र से उठकर मार्टिन बर्न साहब आवें तब ही मालूम हो सकता है। भई यहां इसलिए कम्प्यूटर भी नहीं रखा गया है कि यह सब ढूंढने के झमेले में कौन पड़े? उससे कहदो कि दो-चार दिन बाद मुझसे मिले। काम हो जायेगा।

कुछ देर के लिए मैं भी सकते में आ गया। ठाकुर को अपनी फटेहाल इमारत पर जरा भी शर्म नहीं आती है। कुछ तो मरहूम मार्टिन साहब की आत्मा की शांति के लिए इस तवारीखी इमारत की कायापलट के लिए हाथ पैर मारा होता। फर्नीचर और फाइलों के साथ किताबों को करीने से रखाया जाता ताकि आने वाली पीढ़ियां ठाकुर की शौकीन मिज़ाजी के चर्चे करते। कम से कम बाईपास वाले बाबू साहब की हवेली और उसमें रंगबिरगें फूलों से सजी क्यारियों से कुछ तो सबक लिया होता। शहर को जहां विरासत में गुलाबबाड़ी और मकबरे के साथ सरकिट हाउस के लिबास पर गुमान है, वहीं किसी सुनामी लहर के नहर में डुबकी लगाकर पकीज़गी के पर्याय बने ठाकुर दी ग्रेट को अपनी इमारत को नियामत समझकर अपने लिए न सही शहर की शान के लिए कुछ करना चाहिए। फिर सामने चकचक करते पुलिसिया लैन और अशफाकुल्लाह चौराहे का भी तो कुछ ख्याल होना चाहिए। कहने वाले कह गये हैं कि देखा देखी पुण्य़ और देखा देखी पाप। अब यह बात दीगर है कि ठाकुर साहब लेट मार्टिन बर्न साहब की इस हवेली को लखनऊ के बेलीगारद की तरह ज्यों का त्यों रखने की जिद पर अड़े रहने की जिद पर अड़े रहने की कसम खा रखी हो।

अगर यही बात है तो ठाकुर की हवेली के चारों ओर फैले रोशनी के जगंल में बिलबिलाते मलेरियायी मीटर रीड छाप भयानक कीटाणुओ के अण्डे-बच्चे क्यों फैलते जा रहे हैं? सुना है ये अण्डे-बच्चे अब तो घर-घर घुस कर डंक मारने पर उतारू दिखने लगे हैं। जहां किसी सीधे-सीधे को बैठा देखा उसी को डंक मार दिया। भई, मेरी नज़र में उससे तो कहीं अच्छे मलेरिया के ओरिज़नल मच्छर हैं जो कम से कम काटने के पहले भनभना कर अल्टीमेटम तो देते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस तो सरकार की सरपरस्ती पर होती हैं जो दो बूंद जिन्दगी की पिलाकर अपनी रियाया के सेहत को बनाना चाहती है। एड्स और कैंसर के वायरसों से बचाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। मगर गोद लिये इन मीटर रीड छाप कीटाणुओं के अण्डे-बच्चों से निजात दिलाने में बिल्कुल नाकामयाब हैं जबकि सुना है कि यह उन कीटाणुओं के ओरिजनल अण्डे बच्चें नहीं हैं। रोब रंग ऐसा जैसा कि हवेली के ठाकुर खुद पहुंचे हुए हैं।

मुझे और मेरे जैसे भोले-भाले लोगों के घर में एक दिन जब ऐसा कोई खतरनाक वारयस कलम मुंह में दबाये हमारे नंगे बदन पर चढ़ गया और मुंह समोसे की तरह तिकोंना बनाकर बोला कि यार तुम्हारे बदन में इतना कम खून क्यों हैं? तो हमारे पास सिर्फ यही जवाब था कि खून बढ़ाने की दवा कहां मिलती है? यार बता दो।

बस उसने आव देखा न ताव कुच्च से डंक गड़ा दिया। बाद में कुछ जानकारों ने बताया कि इनका कोई अपना वजूद नहीं है। ठाकुर ने जैसे इस हवेली को रखैल बना रखा है उसी तरह हवेली के जंगल में पालतू मीटर रीडर नामक कीटाणुओं ने इन्हीं मीटरों की महक सुघां कर पाल रखा है जो कहते फिरते हैं कि सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का? गजब की है यह हवेली और गजब का है यहां दिनोंदिन पसरता जंगल। जंगल के जीवों के डंक मारने की दवा ठाकुर के पास भले न हो पर टांग पसारे बैठे बाबू छाप डॉक्टरों के पास जरूर है।

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