शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

हमने मीडिया प्रभारी बनना सीख लिया

वैसे जनाब इतना समझ लीजिए कि जो नुस्खा यहां बतलाने के लिए कलम घिसी जा रही है वह मरहूम हकीम लुकमान और भाई लक्ष्मण की चंगा करने वाले सुषेण वैध के पास भी नहीं था। काबिलीयत में उनके दस ग्राम की भी कमी नहीं थी लेकिन उनके जमाने में ऐसी बीमारी थी ही नहीं। इस जमाने के यह बीमारी इतनी सुखद हो गयी है कि हर कोई इसमें मुफ्तिला होने के लिए अथवा सब कुछ कुर्बान करने को तैयार बैठा है।

बीमारी का नाम है मीडिया प्रभारी का ठण्डा-गरम बुखार। आज कल जब से मीडिया की झाड़ झंखार बेतरतीब ढंग से फैलती जा रही है और अपने कैम्पस में खूबसूरत फूलों की क्यारियों पर क्यारियां फैलती जा रही मीडिया प्रभारी का बुखार लोगों को दबोचता जा रहा है। लोग भी खूब हैं कि ऐसे बुखार से जलते हुए बदन के बावजूद वे चिर परिचित आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। गौर तलब है कि मीडिया प्रभारी के बुखार के लिए मीडिया की जानकारी की कोई जरूरत नहीं है। बस जरूरत है कई अदद मीडिया वालों को सुबह शाम गरमा गरम जलेबी का भोग लगाना। जलेबी ही क्यों अगर हो सके तो चाय समोसे को एक अदद मुस्कान के साथ पेश करना। इसके लिए कोई जरूरी नहीं कि भाषा का मौखिक और लिखित ज्ञान का भण्डार हो।

यही सोच लीजिए कि पहले चोबदार हुआ करते थे, भाट और चारण दरबार की शोभा बढ़ाते हुए राजे महराजों की शान में कसीदे पढ़ा करते थे। आज उन्हें मीडिया प्रभारी का अच्छा सा नाम दिया है। वक्त-वक्त की बात है। कल तक जो नौंटकी के फूहड़ जोकर कहलाते थे, आज फिल्मों में कमेडियन का नाम पाकर फख्र महसूस करते हैं। बस चाहे कैम्पस हो या कारखाना मीडिया प्रभारी की अहमियत की नगड़िया बज रही है। सबसे खासियत इस बेवक्त के बुखार में यह हैं कि मीडिया प्रभारी अपने को किसी अकबरे आज़म के राजा मान सिंह से कम नहीं समझता है। आका बाद में पहले मीडिया प्रभारी फिगर में दिखाई देता है।

बेचारा अपने ओरिजिनल काम को भूलकर मीडिया की एक अदद डिबिया में अपने को बंद कर सुखद अनुभव का नजारा करता है। ख्वाब में आए हकीम लुकमान और धन्वन्तरि जी के साथ जब मैंने संयुक्त रूप से चर्चा की तो उन्होंने जोर का झटका धीरे से देते हुए कुछ नुस्खे बताए जिसे सार्वजनिक हितार्थ यहां दिये जा रहे हैं जो शायद कुछ अति उत्साही लोगों के काम आ जाए क्योंकि जमाना मीडिया का है।–

नम्बर एक – अपने बॉस के साथ परछाई की तरह रहना और बॉस की जुब़ान से निकले एक-एक शब्द को रंग रोगन के साथ प्रकाशित करना। हमेशा ब्रेड और बटर साथ रखना निहायत जरूरी है।

नम्बर दो – कैम्पस या कारखाने जिसमें वह तैनात हो उसकी तारीफ में एक वार्षिक या अर्द्धवार्षिक पत्रिका का प्रकाशन कराना, वह भी अंग्रेजी के हाई स्टैण्डर्ड फ्रेम पर। भले वह कैम्पस या कारखाना हिन्दी भाषी क्षेत्र में स्थित हो। क्योंकि जो बात अंग्रेजी में है वह हिन्दी में कहां?

नम्बर तीन – हमेशा ध्यान रहे कि अगर उस कैम्पस या कारखाने में जनसम्पर्क नाम का कोई पालतू जानवर है तो उसे हमेशा बांध कर रखना जिससे वह हावी न होने पाए और बॉस का स्नेह उसे ज्यादा न मिलने पाए। वरना आपका वजूद खतरे में पड़ सकता है।

नम्बर चार – कैम्पस या कारखाने में इत्तिफाक से यदि कोई कलमबाज दिख जाए तो उसे पीटना। फिर खूब पीट कर बाज़ उड़ा देना और कलम को हथिया लेना जिससे बॉस आप के कलम की करामात का कायल हो जाए।

नम्बर पाँच – कोशिश यह करना चाहिए कि एक सफलतम प्रभारी बनने के लिए अपने बाल-बच्चों के नाम से कुछ रचनाएं प्रकाशित कराते रहने का यत्न करना चाहिए जिससे आपके सम्पूर्ण परिवार की रचना धर्मिता का झण्डा लहरा उठे और साबित हो जाए कि आप मीडिया के बहुत खानदानी नीयरेस्ट व डीयरेस्ट हैं।

नम्बर छः – बिना इसका ख्याल किये कि आपका नामचीन कैम्पस या कारखाना किसी पब्लिसिटी का मोहताज है अब भी मौका मिले बिना बॉस की जानकारी के कुछ पोस्टर छपवा कर शहर में बंटवा देना चाहिए। जैसे कि आजकल कुछ कोचिंग वाले बंटवा रहे है।

नम्बर सात – यह ध्यान रखना निहायत जरूरी है कि अगर मीडिया के धुरन्धर लोग घास न डाले तो छुटभैये पत्रकारों को अपने आस-पास मुस्कुराहट की थाली में पकवान परोस कर प्रसन्न रखना सोने में सुहागे का काम करेगा। नुस्खे बड़े कारगर हैं। अनुभव बताते हैं कि जिन लोगों ने इन नुस्खों पर अमल किया उन्हें कोई डिगा सकता है। शहर में चाहे जितना अतिक्रमण हटाने की मुहिम चलाई जाए, उन्हें कोई छू नहीं सकता है। नुस्खे पर ध्यान दें भगवान आपका भला करेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें