शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

दो गज जमीन भी न मिल सकी...

अख्तरी आज बहुत याद आ रही है। पागल दास की याद में पागल बना जा रहा हूँ। उनकी ग़ज़ल, उनकी पखावज़ उनका साज़, उनकी आवाज़ जैसे मेरे दोनों कानों की संकरी गली में घुसते हुए सुना रहे हो। "मरने के बाद भी चर्चा नहीं हुई तेरी गली में" सोचता हूँ खूब गिले शिकवे करूं। अपने शहर के भारी भरकम अलम्बरदारों और कला के मृदंग की थाप पर अंग-अंग फड़काने वालों पूछूं की उन्होंने बेचारी अख्तरी का नामोंनिशान मिटा देने की कसम क्यों खा रखी हैं? पखावज़ के पागल बाबा पागल दास को किसी अदृश्य पागलखाने का एक मामूली सा पागल समझकर क्यों भूल जाने का फैसला कर लिया? जबकि अवध अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब का रकीब बना उन्हें ढूंढ रहा है, नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे। भदरसा, अयोध्या, और फैजाबाद की गलियों में उनके नाम पर रखे गये किसी मुहल्ले या किसी सड़क को ढूंढता फिर रहा है बेचारा अपना अवध। लेकिन दूरदर्शी डिब्बे पर इस निराली दुनिया के किसी ‘निराला’ की यादगार को खस्ताहालत में पड़ा देखकर फैसला कर रहा हूँ कि अब वह किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं करना चाहता है। उन लोगों की अक्ल मारी थी। जिन्होंनें औऱंगजेब़ को फन का दुश्मन कहा था। क्योंकि उसने फन के ज़नाजे को जाता देखकर कहा था कि उसे खूब गहराई में दफ़नाना जिससे वह कभी मुंह न उठा सके। आज भी तो मैं अख्तरी यानि बेगम अख्तर और बाबा पागलदास के मुंह उठाने का इन्तजार कर रहा हूँ। हाथ में अकीदत के फूल लिए खड़ा हूँ। लेकिन...। आज एक बात और मेरे जेहन में घुमड़ रही है कि अवध के सरबराहो को "गैरों से कब फुरसत, हम अपनों से कब खाली? चलो अच्छा हुआ न वो खाली न हम खाली।" खाली होते तब न गुजरे जमाने की फनकारों की हसीन यादों को सीने से लगाये घूमते। कम्बख्त राजनीति की भूलभूलैया से बाहर जाने का रास्ता ढूंढने में जिन्दगी यूं ही तमाम हुयी जा रही है। फिर कैसे करें कोशिश कबीर, प्रेमचंद, निराला, बेगम अख्तर और पागलदास की यादगारों को हमेशा जवां रखने की।

अभी-अभी खबर सुन रहा हूँ कि अवध की एक अजीम्मुशान शख्सियत पं॰ विधा निवास मिश्र नहीं रहे। दूरदर्शी बक्से पर कई कलमकारों को आँसू बहाते हुए देखकर ऐसा महसूस हुआ कि जैसे चाँद एक बेवा की चूँडी़ की तरह टूटा हुआ और हर सितारा बेसहारा शोक में डूबा हुआ हमसे पूंछ रहा है कि आगे क्या होगा? वही होगा जो पहले हुआ है। सिर्फ विधा निवास मिश्र के साथ यह हादसा तो हुआ नहीं है। माना कि उन्हें पद्मश्री के खिताब से नवाज़ा गया था तो क्या हुआ? इस रहती दुनिया में खिताब, नाम और मश्हूरियत आती-जाती रहती है। उनकी ही यादें संजोकर रखी जाती है और उनकी ही यादगारों को अकीदत के दो फूल चढ़ाने के लिए महफूज रखे जाते हैं जिनसे होकर राजनीति की भूलभूलैया में प्रवेश करने का रास्ता साफ दिखता है। कसूर सिर्फ उन अलम्बरदारों का ही नहीं, हमारा भी है। जब हम अपने पेट की आग बुझाने के लिए जद्दोजहद् नहीं कर सकते तो फन और फनकार, कला और कलम, साहित्य और साहित्यकार बहुत दूर की चीज है। खुदगर्ज़ आदमियों के इस बेतहरीब जंगल में कहां उनकी यादगार स्थापित करें? कुछ समझ में नहीं आता है। सड़के, गली, मुहल्ले, गांव, कस्बे सब तो किसी न किसी के नाम की माला पहले से जपते दिखायी दे रहे हैं। लोगों के दिलों पर तमाम पार्टी वालों ने सियासती और मज़हबी परच़म लहराते दिख रहे हैं। ऐसे में सगींत, साहित्य और कला के लिए थोडी़ भी जगह मिल जाती तो कितना अच्छा होता। अपनी अख्तरी और अपने बाबा पागलदास कितने खुश हो जाते, वरना जफर की तरह- "कितना है बद्ननसीब ज़फर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिल सकी कूए यार में।" याद करते रहना पड़ेगा उन्हें।

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