मेरे विचार से कुदरत की कारगुजारी भी कुछ कम नही है। इन्सानी जीव को उसने ऐसे फुर्सत के वक्त गढ़ा है कि जरूरत पड़ने पर उसके चेहरों के गेटअप को किसी भी तरह के मुखौटों से बदला जा सके। चेहरे वही रहते है सिर्फ मुखौटे बदल जाते है और यह एक ऐसा निरीह प्राणी है कि वक्त की नजाकत और मुखौटे की रंगत के हिसाब से अपने को ढाल लेता है, लेकिन कमाल यह है कि कुदरत ने इस रंगमंच पर कुछ करेक्टर ऐसे खड़े कर दिये जिनकी इमेज अजर-अमर हो कर रह जाती है। लगता है कि उसके कथानक में विलेन छाप करेक्टरों की अपनी अलग इमेज होती है, जिनके इर्द-गिर्द सारी कहानी घूमकर अपना प्रभाव डालती है।
कलियुग तो कलियुग है, लेकिन सतयुग, त्रेता और द्वापर में भी उन लोगों का बोलबाला रहा है। उस जमाने में भी रावण, कंस और उनके गुर्गो के रोल काफी अहमियत रखते थे। उस समय भी उनके चैलेंजिंग रोल को देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे। उस समय भी सीता का अपहरण और द्रोपदी के चीरहरण के सीन को देखकर, देखने वाले ‘उफ’ कह उठते थे। कुदरत ने कहानी को एक मोड़ देने के लिए इन्सानी जानों में कुछ ऐसे पात्रों की आकर्षक इण्ट्री करा दी कि लोगो को कहने पर मजबूर होना पड़ा कि सत्य की असत्य पर विजय होती है। रावण, दुःशासन, कंस और महिषासुर मंच पर पराजय की एक्टिंग को जीवंत बनाते हुए गिरे जरूर, मगर तभी लाइट आफ कर दी गयी उसके बाद कुदरत ने कुछ ऐसे मुखौटे लगाकर मनुष्य रूपी जीव के चेहरों पर फिट कर दिये और शान-शौकत का तमगा लटका दिया कि देखने वालों के मुंह से अपने आप बाअदब-बामुलाहिजा होशियार निकल पड़ा। गुलामों की तरह उनके सामने गिड़गिड़ाते रहे और लगान के नाम पर उनके कोड़ों की मार से आहें भरते रहे। जगह जमीन से बेदखल होकर सिर्फ फरियादी घंटा बजाते रहे और आश्वासनों से कलेजों को ठण्डा करते रहे। बहरहाल वह सीन वहीं खत्म।
फिर लाइट आन हुई तो नयी सीन शुरू हुई। सूत्रधार ने पब्लिक को मुंह चिढ़ाते हुए बताया कि यह पब्लिक है पब्लिक, सब जानती है—यह कलियुग का सीन है। बहनों, भाभीयों और भय्याओं। पब्लिक प्रजातंत्र के तेज प्रकाश में काफी तल्लीन दिखी। मगर कथानक के इस भाग में उसने विलेन प्रधान दृश्य देखे।
एक-दो रावण नहीं कई-कई रावण। एक-दो दुःशासन नहीं कई-कई दुःशासन, कई-कई द्रोपदियों के चीर खींचते दिखायी पड़े। पब्लिक में से कुछ लोगों को मजा आ रहा था तो कुछ लोगों ने आब्जेक्शन किया
-तभी डॉयरेक्टर मटकते हुए मंच पर अवतरित हुआ और बड़ी बेदर्दी से माईक खींचते हुए बोला—जिन्हें देखना हो देखें वरना जंगल में जाकर धूनी रमायें। हम आज की इस सीन को उड़ा नहीं सकते है क्योंकि इन्हीं की बदौलत तो हमें डॉयरेक्टरशिप मिली है। फिर हम तो वही कर रहें हैं जो हमारी परम्परा रही है। हमारे चेहरे आप ही जैसे हैं, लेकिन जानदार एक्टिंग के लिए शानदार मुखौटे लगाकर आपके सामने हाजिर हुए हैं। आप चिल्लाया कीजिए हम पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं हैं।
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